धर्म और समाज: स्वामी विवेकानंद का दृष्टिकोण | Religion and Society: The View of Swami Vivekananda in hindi

धर्म और समाज: स्वामी विवेकानंद का दृष्टिकोण -एक समय की बात है किसी सभा में स्वामी विवेकानन्द अपने अनुयाइयों को भाषण दे रहे थे। तभी किसी भक्त को समाज और धर्म के बारे में जाने की जिज्ञासा हुई। आइए पढ़ते हैं- स्वामी जी ने किस प्रकार धर्म और समाज की बहुत ही सुंदर व्याख्या की है।

धर्म और समाज: स्वामी विवेकानंद का दृष्टिकोण

एक बार स्वामी विवेकानंद जी से किसी ने जिज्ञासा की कि “हिन्दुओं में बाल विवाह होता है, ये गलत है, हिन्दू धर्म में सुधार होना चाहिए कि नहीं?

स्वामी जी ने उस से पूछा :-“क्या हिन्दू धर्म ने कभी कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति का विवाह होना चाहिए और वह विवाह उसके बाल्यकाल में ही होना चाहिए”

प्रश्न पूछने वाला थोडा सा सकपकाया फिर भी जिद करते हुए बोला-

“हिन्दुओं में बाल विवाह नहीं होते क्या ?

स्वामी जी :- पहले ये बताओ “विवाह का प्रचलन हिन्दू समाज में है अथवा हिन्दू धर्म में।धर्म तो ब्रह्मचर्य पर बल देता है। 25 वर्ष की अवस्था से पहले गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने की अनुमति कोई स्मृति नहीं देती और स्मृति भी तो समाज-शास्त्र ही है,ये समाज का विधान है’ ….. स्वामी जी ने थोड़ा विराम लिया और फिर से बोले :- धर्म तो विवाह की बात करता ही नहीं है। धर्म , पत्नी प्राप्ति की नहीं, ईश्वर -प्राप्ति की बात करता है।

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प्रश्न फिर हुआ-स्वामी जी सुधार होना तो जरूरी है ।

स्वामी जी :अब आप स्वयं ही निर्णय करें कि सुधार किसका होना जरूरी है .. समाज का या हिन्दू धर्म का … हमें धर्म-सुधार की नहीं,समाज सुधार की जरूरत है और ये ही अपराध हम अब तक करते आ रहे हैं … हमें समाज-सुधार की जरूरत थी और करने लग गए धर्म में सुधार।

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स्वामी जी आगे बोले …धर्म सुधार के नाम पर हिन्दुओं का सुधार तो नहीं हुआ किन्तु ये सत्य है कि हिन्दुओं का विभाजन अवश्य हो गया। उनमें हीन भावना अधिक गहरी जम गई। धर्म सुधार के नाम पर नए-नए सम्प्रदाय बनते गए और वो सब हिन्दू समाज के दोषों को,हिन्दू धर्म से जोड़ते रहे और इनको ही गिनाते रहे साथ ही साथ ये सम्प्रदाय भी एक दूसरे से दूर होते गए.सब में एक प्रतिस्पर्धा सी आ गई और हर सम्प्रदाय आज इसमें जीतना चाहता है, प्रथम आना चाहता है।

हिन्दू धर्म की आलोचना करके “शासन की कृपा पाना चाहता है और उसके लिए हिन्दू धर्म की आलोचना करना सबसे सरल उपाय है … आज देखो, ये जितने भी सम्प्रदाय हैं हिन्दुओं की तुलना में ईसाईयों के अधिक निकट हो गए हैं। वे हिन्दू समाज के दोषों को -हिन्दू धर्म के साथ जोड़कर हिन्दुओं के दोष और ईसाईयों के गुण बताते हैं। पहले ही हिन्दू मुगलों की हिंसा से पीड़ित रहे हैं। ये दुर्भाग्य ही तो है ..समाज सुधार को..धर्मके सुधार से जोड़ देना ..जबकि धर्म में सुधार की जरूरत ही नहीं थी.जरूरत तो केवल धर्म के अनुसार समाज में सुधार करने की है।

 

धर्म संबंधी अंधविश्वास समाज में पूरी तरह व्याप्त है। विज्ञान की दृष्टि से आस्था और अंधविश्वास

मनुष्य पैदा होता है, तो धर्म उसके साथ रहता है। धर्म का हमारे जीवन से महत्वपूर्ण रिश्ता है। हम यह नहीं सोचते हैं कि धर्म क्या है तथा इसका क्या उद्देश्य है? इन प्रश्नों को जाने का प्रयास ही नहीं करते हैं। हमने धर्म से संबंधित ऐसे अंधविश्वास पाल लिए हैं जो हमें उससे आगे सोचने ही नहीं देते हैं। समय बदल रहा है, हमारे पास वैज्ञानिक दृष्टिकोण आ गया है।

लेकिन इस दृष्टिकोण को लोग त्याग देते हैं। उनके लिए विज्ञान और धर्म दो अलग-अलग राहें हैं। इन्हें आपस में जोड़ देना उचित नहीं है। इसे प्रकृति से जुड़ी कोई घटना नहीं मानते हैं। बस धर्म में यदि चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण को लेकर कोई व्याख्या कर दी गई है, तो वही सत्य है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण को हम किनारा कर देते हैं।

धर्म का संबंध हम ईश्वर से तथा उसके पूजने के तरीकों तक सीमित कर देते हैं। इसके अतिरिक्त हम मनुष्य तक को इस आधार पर विभाजित कर देते हैं। यही कारण है कि आज मनुष्य हिन्दू, मुस्लिम, सिख, बौद्ध इत्यादि धर्मों में विभाजित हो गया है। यह वह अंधविश्वास है, जो मनुष्य सदियों से पालता आया है और आगे भी इस पर विश्वास रखेगा। बात फिर इस प्रश्न पर आकर रूकती है कि धर्म है क्या?

मनुष्य द्वारा किसी की सहायता करना, किसी के दुख को कम करने के लिए किए गए कार्य आदि धर्म कहलाता है। यही सही अर्थों में धर्म है। धर्म यह नहीं है कि ईश्वर को पूजने के लिए कौन-से तरीके अपनाएँ जाएँ। पूजा पद्धति इसलिए अस्तित्व में आयी ताकि मनुष्य का ध्यान केंद्रित किया जा सके। उसे बुरे मार्ग में भटकने से रोका जाए। इस तरह से ईश्वर का डर दिखाकर उसे अधर्म करने से रोका गया। धीरे-धीरे कब इसमें अंधविश्वास का समावेश हो गया पता ही नहीं चला। हम धर्म से हट गए।

पूजा पद्धति को धर्म मानने लगे। व्रत, पूजा आदि को बढ़ावा मिलने लगा। हम इन मान्यताओं पर इतना विश्वास करने लगे कि मानवता से हमारा नाता टूट गया। हमारा विश्वास और आस्था मंदिर, मस्जिद तथा चर्च तक सीमित रह गई। हमने सड़क पर घायल पड़े व्यक्ति की ओर देखना धर्म नहीं समझा। हमने मंदिर पर दीपक जलाना अधिक धर्म समझा। यह धर्म नहीं है। मानवता सही अर्थों में धर्म है।

हमारे पूजनीय पुरुषों ने मनुष्य को बुरे मार्ग से बचाने के लिए धर्म का सहारा लिया था। मनुष्य अपने जीवन में अच्छाई, परोपकार और प्रेमभाव की भावनाओं को बनाए रखे, इसीलिए धर्म का निर्माण किया गया। उसे पूजा-पाठ, नमाज़-रोजे, प्रार्थना आदि करने के लिए ज़ोर दिया गया, जिससे उनका मन शान्त रहे।

सभी धर्मों ने कुछ बातों पर विशेष रूप से ज़ोर दिया है। उसके अनुसार मनुष्य, मनुष्य मात्र से प्रेम करे, सबके साथ मिलकर रहे, सबका कल्याण करे इत्यादि बातें कही गई हैं। किसी धर्म ने यह कभी नहीं कहा कि वह आपस में लड़े-मरे। हमारा आस्था और विश्वास में कमज़ोरी हमारी संकीर्ण सोच का परिणाम है। अतः हमें धर्म के बारे में दोबारा से सोचना पड़ेगा।

धर्म और समाज का क्या सम्बन्ध है

मनुष्य के जीवन में धर्म का एक महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन अक्सर हम इसे सही तरीके से समझ नहीं पाते हैं। हम धर्म को केवल पूजा-पाठ, मंदिर-मस्जिद तक सीमित कर देते हैं और इसके गहरे अर्थों को भूल जाते हैं। समाज में अंधविश्वास इतने व्याप्त हैं कि हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण को नकार देते हैं और धर्म को गलत तरीके से समझते हैं।

जब भी कोई महान व्यक्ति सत्य और धर्म की बात करता है, समाज उसे समझने में असमर्थ होता है। जैसे जब बुद्ध ने अपने विचार प्रस्तुत किए, तो लोग उन्हें धार्मिक मानने से इनकार कर देते थे। जीसस को भी सच्चाई के लिए सूली पर चढ़ा दिया गया। मंसूर ने जब खुद को परमात्मा कहा, तो उसे भी मार डाला गया क्योंकि लोगों ने इसे अधार्मिक समझा। यह इसलिए होता है क्योंकि समाज एक नकली धर्म का पालन करता है, जो केवल आरामदायक और सुविधाजनक होता है।

धर्म का वास्तविक उद्देश्य मनुष्य को सच्चाई की राह पर ले जाना है, उसे अच्छा इंसान बनाना है। लेकिन समय के साथ हम पूजा-पाठ, व्रत और उपासना को ही धर्म मानने लगे हैं और असली धर्म, जो मानवता है, उसे भूल गए हैं। हमने मंदिर में दीप जलाना तो धर्म मान लिया, लेकिन सड़क पर घायल व्यक्ति की मदद करना धर्म नहीं समझा।

महापुरुषों ने धर्म का निर्माण इसलिए किया था ताकि मनुष्य प्रेम, परोपकार और अच्छाई की राह पर चले। उनका उद्देश्य था कि मनुष्य जीवन में सच्चाई और ईमानदारी को अपनाए। लेकिन समय के साथ धर्म में अंधविश्वास जुड़ गए और हम अपने मार्ग से भटक गए। अब हमें धर्म के मूल उद्देश्य को समझना होगा और उसके अनुसार समाज का सुधार करना होगा।

धर्म और विज्ञान को एक साथ जोड़कर ही हम एक बेहतर समाज का निर्माण कर सकते हैं। हमें यह समझना होगा कि धर्म का सही अर्थ क्या है और कैसे इसे अपने जीवन में सही तरीके से अपनाया जा सकता है। धर्म का संबंध केवल ईश्वर की पूजा से नहीं, बल्कि मनुष्य की भलाई से है। जब हम इस सच्चाई को समझेंगे, तभी हम एक सच्चे धार्मिक व्यक्ति बन पाएंगे।

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