Radha Rani का जन्म, उनसे जुड़ी महत्वपूर्ण बातें
Radha Rani के जन्म,उनसे जुड़ी महत्वपूर्ण बातें
नृग पुत्र राजा सुचन्द्र और पितरों की मानसी कन्या कलावती ने 12 वर्षों तक तप करके ब्रह्म देव से राधा को पुत्री रूप में प्राप्ति का वरदान मांगा था। फलस्वरूप द्वापर में वे राजा वृषभानु और रानी कीर्ति के रूप में जन्मे। दोनों पति-पत्नी बने।
राधा जी ने मथुरा के रावल गांव में वृषभानु जी की पत्नी कीर्ति की बेटी के रूप में जन्म लिया, लेकिन वे कीर्ति के गर्भ में नहीं थीं। भाद्रपद की शुक्ला अष्टमी चन्द्रवासर मध्यान्ह के समय सहसा एक दिव्य ज्योति प्रसूति गृह में फैल गई, यह इतनी तीव्र ज्योति थी कि सभी के नेत्र बंद हो गए। एक क्षण पश्चात् गोपियों ने देखा कि एक नन्ही बालिका कीर्ति मैया के पास लेटी हुई है। उसके चारों ओर दिव्य पुष्पों का ढेर है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, राधा रानी का जन्म उनकी माता के गर्भ से नहीं हुआ है। वह श्रीकृष्ण के जैसे ही अजन्मी हैं।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में एक पौराणिक कथा के अनुसार, राधा जी श्रीकृष्ण जी के साथ गोलोक में रहती थीं। एक बार उनकी अनुपस्थिति में श्रीकृष्ण अपनी दूसरी पत्नी विरजा के साथ घूम रहे थे। तभी राधा जी आ गईं, वे विरजा पर नाराज हुईं तो वह वहां से चली गईं।
श्रीकृष्ण के सेवक और मित्र श्रीदामा को राधा की यह बात ठीक नहीं लगी। वे राधा को भला बुरा कहने लगे। बात इतनी बिगड़ गई कि राधा ने नाराज होकर श्रीदामा को अगले जन्म में शंखचूड़ नामक राक्षस बनने का श्राप दे दिया। इस पर श्रीदामा ने भी उनको पृथ्वी लोक पर मनुष्य रूप में जन्म लेने का श्राप दिया।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, राधा का विवाह रायाण से हुआ था। रायाण भगवान श्रीकृष्ण का ही अंश थे।
राधा को जब श्राप मिला था तब श्रीकृष्ण ने उनसे कहा था कि तुम्हारा मनुष्य रूप में जन्म तो होगा, लेकिन तुम सदैव मेरे पास रहोगी।
कान्हा और द्वारकाधीश | प्रेम का आईना
कृष्ण और राधा स्वर्ग में विचरण करते हुए अचानक एक दूसरे के सामने आ गए। विचलित से कृष्ण और प्रसन्नचित सी राधा। कृष्ण सकपकाए : राधा मुस्काईं।
इससे पहले कृष्ण कुछ कहते : राधा बोल उठीं- “कैसे हो द्वारकाधीश ?” जो राधा उन्हें कान्हा-कान्हा कह के बुलाती थीं – उसके मुख से द्वारकाधीश का सम्बोधन कृष्ण को भीतर तक घायल कर गया, फिर भी किसी तरह अपने आप को संभाल लिया और बोले राधा से- “मै तो तुम्हारे लिए आज भी कान्हा हूँ तुम तो द्वारकाधीश मत कहो” ! आओ बैठते हैं, कुछ मैं अपनी कहता हूँ, कुछ तुम अपनी कहो। सच कहूँ राधा : जब-जब भी तुम्हारी याद आती थी – इन आँखों से आँसुओं की बूँदें निकल आती थीं।
बोली राधा- “मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ। ना तुम्हारी याद आई : ना कोई आँसू बहा l क्योंकि हम तुम्हें कभी भूले ही कहाँ थे – जो तुम याद आते। इन आँखों में सदा तुम रहते थे। कहीं आँसुओं के साथ निकल ना जाओ- “इसलिए रोते भी नहीं थे”। प्रेम के अलग होने पर तुमने क्या खोया इसका इक आइना दिखाऊँ आपको ? कुछ कड़वे सच, प्रश्न सुन पाओ तो सुनाऊँ ?
कभी सोचा इस तरक्की में तुम कितने पिछड़ गए – यमुना के मीठे पानी से जिंदगी शुरू की और समुन्द्र के खारे पानी तक पहुँच गए ? एक अंगुली पर चलने वाले सुदर्शन चक्र पर भरोसा कर लिया और दसों अंगुलियों पर चलने वाली बाँसुरी को भूल गए ? कान्हा जब तुम प्रेम से जुड़े थे तो जो अंगुली गोवर्धन पर्वत उठाकर लोगों को विनाश से बचाती थी – प्रेम से अलग होने पर वही अंगुली क्या-क्या रंग दिखाने लगी ?
सुदर्शन चक्र उठाकर विनाश के काम आने लगी। कान्हा और द्वारकाधीश में क्या फर्क होता है बताऊँ ? कान्हा होते तो- “तुम सुदामा के घर जाते” – सुदामा तुम्हारे घर नहीं आता।
युद्ध में और प्रेम में यही तो फर्क होता है – युद्ध में आप मिटाकर जीतते हैं और प्रेम में आप मिटकर जीतते हैं। कान्हा प्रेम में डूबा हुआ आदमी दु:खी तो रह सकता है, पर किसी को दुःख नहीं देता। आप तो कई कलाओं के स्वामी हो स्वप्न दूर द्रष्टा हो, गीता जैसे ग्रन्थ के दाता हो, पर आपने क्या निर्णय किया, अपनी पूरी सेना कौरवों को सौंप दी ? और अपने आपको पांडवों के साथ कर लिया ? सेना तो आपकी प्रजा थी, राजा तो पालाक होता है, उसका रक्षक होता है l
आप जैसा महाज्ञानी उस रथ को चला रहा था जिस पर बैठा अर्जुन आपकी प्रजा को ही मार रहा था। अपनी प्रजा को मरते देख आपमें करूणा नहीं जगी ? क्योंकि आप प्रेम से शून्य हो चुके थे।
आज भी धरती पर जाकर देखो l अपनी द्वारकाधीश वाली छवि को ढूँढ़ते रह जाओगे- “हर घर हर मंदिर में मेरे साथ ही खड़े नजर आओगे”। आज भी मैं मानती हूँ – लोग गीता के ज्ञान की बात करते हैं, उनके महत्व की बात करते हैं, मगर धरती के लोग युद्ध वाले द्वारकाधीश पर नहीं : प्रेम वाले का पर भरोसा करते हैं। गीता में मेरा दूर-दूर तक नाम भी नहीं है – पर आज भी लोग उसके समापन पर “राधे राधे” करते हैं”।
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