यज्ञोपवीत संस्कार
एक पवित्र धागा होता है जो हिंदू धर्म में विशेष रूप से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जातियों के पुरुषों द्वारा पहना जाता है। इसे उपनयन संस्कार के दौरान धारण किया जाता है, जो एक महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान है। इस धागे को ‘यज्ञोपवीत’ भी कहा जाता है और यह व्यक्ति के धार्मिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों का प्रतीक होता है।
यज्ञोपवीत का अर्थ | यज्ञोपवीत संस्कार क्या है
यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक महत्वपूर्ण संस्कार है। इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ और स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है।
शरीर के पृष्ठभाग में, पीठ पर, एक प्राकृतिक रेखा होती है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है और एक अति सूक्ष्म नस होती है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकुचित अवस्था में हो, तो मनुष्य काम, क्रोध आदि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता। अपने कंधे पर यज्ञोपवीत धारण करने की मात्र अनुभूति से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है। यदि इस प्राकृतिक नस का संकुचन होने के कारण इसमें निहित विकार कम हो जाएं, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
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इसीलिए, सभी हिंदुओं में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने पर उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है। यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं, बल्कि आरोग्य का पोषक भी है। अतः इसे सदैव धारण करना चाहिए।
शास्त्रों में दाएं कान के माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अग्नि, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होता है। इसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। यदि ऐसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए, तो अशुचित्व नहीं रहता।
यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद = यज्ञ + उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं:
1. उपनयन संस्कार, जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है।
2. मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं।
इस प्रकार, यज्ञोपवीत एक धार्मिक, सामाजिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण संस्कार है, जो व्यक्ति के जीवन में शुद्धता, अनुशासन और आरोग्य का संचार करता है।
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यज्ञोपवीत की सही उम्र
पटना के आचार्य रामशंकर दूबे ने इसके बारे में खास जानकारी दी. उन्होंने बताया कि हिंदू धर्म में जनेऊ को बहुत पवित्र माना गया है. किसी भी बालक का जनेऊ तभी करना चाहिए जब वह उसका पालन करने के लिए सक्षम हो. 10 साल की उम्र में जनेऊ का सही उम्र माना जाता है. बच्चा इस अवस्था में तमाम चीजों को समझता है और नियमों का पालन भी कर सकता है.
“जनेऊ धारण करने का बड़ा विशेष महत्व है. हिंदू धर्म में तीन धागे वाले जनेऊ धारण करने वाले व्यक्ति को ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है. इसमें ब्रह्मा विष्णु महेश के प्रतीक के साथ-साथ देवऋण, पितृऋण ऋषिऋण का. इसलिए घर में जब कोई शुभ मांगलिक कार्यक्रम हो तो पूर्व में धारण किए जनेऊ को उतार कर नए जनेऊ धारण कर लेना चाहिए. बिना जनेऊ का विवाह नहीं होता है. विवाह के बाद 6 धागों वाला जनेऊ पहनने का विधान है.
यज्ञोपवीत धारण करने का महत्व
जनेऊ धारण करने का महत्व हिंदू धर्म में अत्यधिक धार्मिक, सामाजिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से है। यहाँ हम विस्तार से इसका महत्व देखेंगे:
धार्मिक महत्व
1. **उपनयन संस्कार**:- जनेऊ धारण करने की प्रक्रिया उपनयन संस्कार का हिस्सा है, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्गों के लड़कों के लिए किया जाता है। यह संस्कार उनकी शिक्षा और धार्मिक जीवन की शुरुआत को चिह्नित करता है।
2. **यज्ञ और स्वाध्याय का अधिकार**:- जनेऊ धारण करने के बाद, व्यक्ति को यज्ञ, वेद अध्ययन और अन्य धार्मिक कृत्यों का अधिकार मिलता है।
3. **धार्मिक प्रतीक**:- यह धागा ब्रह्मचर्य, शुद्धता और धार्मिक कर्तव्यों का प्रतीक है। इसे धारण करने वाला व्यक्ति अपने धर्म और समाज के प्रति जिम्मेदारियों का पालन करने की प्रतिज्ञा करता है।
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### सामाजिक महत्व
1. **समाजिक पहचान**: जनेऊ समाज में व्यक्ति की पहचान और उसकी सामाजिक स्थिति का प्रतीक होता है। यह दिखाता है कि व्यक्ति धार्मिक और सामाजिक कर्तव्यों के प्रति प्रतिबद्ध है।
2. **सामाजिक अनुशासन**: जनेऊ धारण करने वाले व्यक्ति को समाज में एक आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है। इससे व्यक्ति में अनुशासन, शुद्धता और नैतिकता का विकास होता है।
### वैज्ञानिक महत्व
1. **विद्युत प्रवाह की रेखा**: जनेऊ धारण करने के पीछे वैज्ञानिक तर्क यह है कि शरीर में दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक एक प्राकृतिक विद्युत प्रवाह की रेखा होती है। यह रेखा सूक्ष्म नस होती है, जिसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है।
2. **मनोवैज्ञानिक प्रभाव**: जनेऊ की अनुभूति से व्यक्ति को यह याद दिलाया जाता है कि वह अपने धार्मिक और नैतिक कर्तव्यों का पालन करे। इससे भ्रष्टाचार और अनैतिक कार्यों से बचने में मदद मिलती है।
3. **स्वास्थ्य लाभ**: जनेऊ धारण करने से शरीर में प्राकृतिक नस का संकुचन कम होता है, जिससे मानसिक विकार और तनाव कम होते हैं। यह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देने में सहायक होता है।
### धार्मिक और वैज्ञानिक मिश्रण
1. **दाएं कान का महत्व**: शास्त्रों में दाएं कान के महत्व का भी उल्लेख है। आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अग्नि, धर्म, वेद, आप, सोम और सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में माना जाता है। इसे दाएं हाथ से स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है।
2. **पवित्रता का प्रतीक**: जनेऊ को दाएं कान पर रखने से अशुचित्व नहीं रहता और यह व्यक्ति को पवित्रता की अनुभूति कराता है।
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यज्ञोपवीत पहनने के लाभ
पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया जाता था।
वर्तमान में यह प्रथा लोप सी गयी है।
जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है।
विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है।
पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था।
मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर तीन बार लपेटना पड़ता है।
इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है।
आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है।
जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है।
जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज,एसीडीटी,पेट रोग,मूत्रेन्द्रीय रोग,रक्तचाप,हृदय रोगों
सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते।
जनेऊ पहनने वाला.नियमों में बंधा होता है।
वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता।
जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले।
अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है।
यह सफाई उसे दांत,मुंह,पेट,कृमि,जिवाणुओं के रोगों से बचाती है।
जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।
जनेऊ पहनाने का संस्कार
सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है।
यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत,यज्ञसूत्र या जनेऊ।
यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है।
इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं।
ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है।
तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है।
तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा,विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं।
तीन सूत्र हमारे ऊपर तीन प्रकार के ऋणों का बारम्बार स्मरण कराते हैं कि उन्हें भी हमें चुकाना है।
1 – पितृ ऋण
2 – मातृ ऋण
3 – गुरु ऋण
अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता।
यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र | यज्ञोपवीत मंत्र इन संस्कृत
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजा पतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।
जनेऊ को लेकर लोगों में कई भ्रांति विद्यमान है|
लोग जनेऊ को धर्म से जोड़ दिए हैं जबकि सच तो कुछ और ही है।
जानें कि सच क्या है ?
जनेऊ पहनने से आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है।
क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए अन्यथा अधर्म होता है।
वस्तुतः इसके पीछे साइंस का गहरा रह्स्य छिपा है।
दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता।
आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है, एक पुरुष को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या उत्तदायित्व
वहन करना है,एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का।
अब एक एक जनेऊ में 9 – 9 धागे होते हैं।
जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9 – 9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है।
अब इन 9 – 9 धांगों के अंदर से 1-1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें 27-27 धागे होते हैं।
अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27-27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण.वहन करना है।
अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9=36 होता है,जिसको एकल अंक बनाने पर 36=3+6=9
आता है,जो एक पूर्ण अंक है।
अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9+2 = 11 होगा जो हमें बताता
है कि हमारा जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी(1 और 1) के मिलने से बना है।
1 + 1 = 2 होता है जो अंक विद्या.के अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता है।
जब हम अपने दोनो पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें अशीम शांति की प्राप्ति हो जाती है।
यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत।
अर्थात अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है।
अपनी अशुचि अवस्था को सूचितकरने के लिए भी यह कृत्य उपयुक्त सिद्ध होता है।
हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें।
इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए
पवित्र और उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है।
दाएं कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस,गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है।
मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है।
दाएं कान को ब्रह्म सूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है।
यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है।
यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान बम्ह्रसूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है।
बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है।
किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है।
अंडवृद्धि के सात कारण हैं।मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है।
दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है।
इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है।
मधुबनी में प्राचीन काल से जनेऊ का निर्माण किया जाता है
**मधुबनी: जनेऊ बनाने में महिलाओं का प्राचीन योगदान**
बिहार के मधुबनी जिले के 60 से अधिक गांवों में प्राचीन काल से ही महिलाएं जनेऊ बनाने का काम करती आ रही हैं। इस क्षेत्र में बने जनेऊ की विशेषता के कारण इसकी मांग विदेशों तक है। जिले में 100 से अधिक महिलाएं इस कार्य में स्थायी रूप से लगी हुई हैं। कोरोना महामारी के दौरान भी लॉकडाउन के समय ये काम घर से ही जारी रहा।
**लघु-उद्योगों का हो रहा विकास**
राजनगर प्रखंड के मंगरौनी गांव की निवासी रीता पाठक जनेऊ बनाती हैं। उनके पास करीब 100 वर्ष पुराना चरखा और तकली है, जो उन्हें ससुराल में धरोहर के रूप में मिला है। रीता प्रतिदिन 30 से 50 जनेऊ बना लेती हैं। लॉकडाउन के दौरान उन्होंने 1200 जनेऊ तैयार किए। रीता बताती हैं कि एक महिला हर साल 12 से 13 हजार तक जनेऊ बना लेती है। मधुबनी में बने जनेऊ की विदेशों में भी भारी मांग है, जिससे लघु-उद्योग का विकास भी हो रहा है। रीता पाठक के अनुसार, आय तो अधिक नहीं होती, लेकिन अन्य सामानों के साथ इसकी बिक्री हो जाती है। उन्हें सालाना 50 से 75 हजार रुपये की आमदनी आराम से हो जाती है।
**विदेशों में भी मांग**
मधुबनी के उम्दा क्वालिटी के इस जनेऊ की मांग विदेशों में भी है। शुभ और मांगलिक कार्यों, लग्न और उपनयन के दिनों में इसकी मांग बढ़ जाती है। इसकी आपूर्ति जिले के गांवों से होती है और लोग आर्डर देकर भी इसे बनवाते हैं। विदेश से आने वाले अप्रवासी यहीं से जनेऊ लेकर जाते हैं। स्थानीय बाजार में इसकी कीमत 8 से 12 रुपये है, जबकि महानगरों और विदेशों में इसकी कीमत 30 से 40 रुपये तक होती है।
जनेऊ अशुद्ध कब होता है |
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जनेऊ कब-कब अशुद्ध हो जाता है इस बात को सब लोगों को जानना चाहिए. जब आप मल मूत्र के समय में जनेऊ कान पर नहीं चढ़ाते हैं तो यह अशुद्ध हो जाता है. इसके अलावे श्राद्ध कर्म करने के बाद, सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण के बाद अशुद्ध हो जाता है. इसलिए इसके नया जनेऊ धारण कर लेना चाहिए. इसके अलावा तीन भागों में से एक धागा भी अगर टूट जाता है तो वह अशुद्ध हो जाता है. इसलिए अधिकांश लोग हर पूर्णिमा पर जनेऊ बदल लेते हैं
क्या महिलाएं भी पहन सकती हैं जनेऊ ?
वह लड़की जिसे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना हो, वह जनेऊ धारण कर सकती है। ब्रह्मचारी तीन और विवाहित पुरुष छह धागों का जनेऊ पहनते हैं। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के होते हैं। यज्ञोपवीत में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। यह पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक भी है।
सार
जनेऊ धारण करने से व्यक्ति धार्मिक, सामाजिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लाभान्वित होता है। यह उसे अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाता है और समाज में एक आदर्श नागरिक के रूप में स्थापित करता है। इसके धार्मिक और वैज्ञानिक लाभ व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करते हैं, जिससे वह एक स्वस्थ और अनुशासित जीवन जी सकता है।
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