एक रिश्ता अनजाना सा | Ek Rishta Anjana sa

एक रिश्ता अनजाना सा :

दोस्तो! कभी-कभी जिंदगी ऐसे मोड़ पर ले आती है जब अपने दूर हो गए और सहारे की जरूरत थी, तब एक ऐसा इंसान साथ आया जिसे हम अपना मानने से भी कतराते थे।  

यह कहानी है दिल से जुड़े उस रिश्ते की, जिसने रिश्तों की परिभाषा बदल जाती है। 

मुंशी प्रेमचंद की 5 छोटी कहानियाँ
मुंशी प्रेमचंद की 5 छोटी कहानियाँ-

क्या एक मां का दिल उस बेटे के लिए भी पिघलेगा जो उसकी कोख से नहीं, लेकिन उसके परिवार का अभिन्न हिस्सा बन गया? और क्या अनिरुद्ध और सुमिता को अपनी संतान की उपेक्षा के बाद इस अनजान रिश्ते में सच्चा अपनापन मिल पाएगा?

यह कहानी है एक अनकहे प्यार, त्याग, और विश्वास की—जो हर रिश्ते से ऊपर है।

एक रिश्ता अनजाना सा:

हॉस्पिटल के बिल काउंटर पर खड़ा होना मेरे लिए असहनीय था। घुटनों का दर्द इतना बढ़ गया था कि संतुलन बनाए रखना मुश्किल हो रहा था। लेकिन मजबूरी ऐसी थी कि सहारे के लिए कोई भी अपना पास नज़र नहीं आ रहा था।  

अनिरुद्ध, मेरे पति, को दो दिन पहले जबरदस्त दिल का दौरा पड़ा था। देहरादून में उचित चिकित्सा व्यवस्था न होने के कारण डॉक्टरों ने सलाह दी कि उन्हें दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में भर्ती किया जाए। बच्चों को अनिरुद्ध की हालत की जानकारी दे दी थी, लेकिन उनमें से कोई देखने नहीं आया। यह सोचकर मेरा दिल भर आया कि क्या इसी दिन के लिए लोग औलाद चाहते हैं? दर्द और तकलीफ बढ़ती जा रही थी, तभी आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा। अचानक किसी ने मुझे थाम लिया और अधिकार भरी आवाज़ में कहा,  

“आप यहां से हटिए, मैं पैसे जमा करवा देता हूं।”

उसकी आवाज़ सुनकर मैंने चौंककर ऊपर देखा। सामने विराट था। उसे देखकर मेरी आंखें ठहर सी गईं।  “तुम… तुम यहां कैसे पहुंचे?” मैंने कांपते स्वर में पूछा।  “कैसे भी, लेकिन आपने तो मुझे कुछ बताया नहीं। हमेशा की तरह मुझे गैर ही समझा, न?” उसकी आवाज़ में गहरी शिकायत थी।  

“खैर, आप बाबा के पास जाइए। मैं पैसे जमा करके डॉक्टर से बात कर अभी आता हूं।”

धीरे-धीरे चलते हुए मैं अनिरुद्ध के कमरे तक पहुंची। वह आंखें मूंदे लेटे थे। मैं पास रखे स्टूल पर बैठ गई। दिल और दिमाग जैसे शून्य हो गए थे। थोड़ी देर बाद विराट भी कमरे में आया और झुककर अनिरुद्ध के पैर छूने लगा।  

अनिरुद्ध ने जैसे ही आंखें खोलीं और उसे देखा तो उनके चेहरे पर चमक आ गई। अपनी कमजोर बांहें फैलाकर बोले,  

“विराट!”

विराट बच्चे की तरह उनकी बांहों में सिमट गया और सुबकते हुए बोला,  

“मैं आपसे बहुत नाराज हूं बाबा। आपने मुझे पराया कर दिया। जब दो दिन से घर की घंटी बज रही थी और कोई जवाब नहीं दे रहा था, तो मुझसे रहा नहीं गया। पड़ोसियों से पता चला कि आप बीमार हैं, तो मैं यहां चला आया।”

विराट लगातार बोल रहा था और अनिरुद्ध बस मुस्कुरा रहे थे। वह कहता रहा,  

“अब आप बिल्कुल चिंता न करें, बाबा। अब मैं सब संभाल लूंगा।”

अनिरुद्ध के चेहरे पर सुकून था। मेरे मन में भी राहत की एक हल्की सी लहर दौड़ गई। विराट फिर मेरी तरफ मुड़ा और बोला,  

“बाहर मेरा अर्दली खड़ा है। आप उसके साथ मेरे गेस्ट हाउस पर चलें। आप भी थक गई होंगी। बाबा की आप चिंता न करें। मैं उनका पूरा ख्याल रखूंगा।”

उसकी बात में इतनी आत्मीयता थी कि मैं विरोध नहीं कर पाई। चुपचाप अपनी स्वीकृति दे दी।  

गेस्ट हाउस पहुंचकर, नहा-धोकर जब लॉन में बैठी, तो अर्दली चाय और बिस्कुट ले आया। चाय की चुस्की लेते हुए थोड़ी राहत मिली, लेकिन मन बीते समय की परछाइयों में उलझने लगा।  

जब मेरी शादी अनिरुद्ध से हुई थी, तब वह वकालत में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे थे। धीरे-धीरे उनका नाम ऊंचा होने लगा, और हमारे दो बेटे हुए।  

कुछ साल बाद अनिरुद्ध ने अपने पुराने भरोसेमंद मुंशीजी को अपने साथ रख लिया। लेकिन अचानक मुंशीजी का गांव भूकंप की चपेट में आ गया, और उनके परिवार में केवल उनका पोता विराट बचा। अनिरुद्ध ने विराट को अपने घर ले आए।  

मुंशीजी की मृत्यु के बाद अनिरुद्ध ने विराट को अपने बेटे की तरह पाला। हालांकि मैं इसे कभी अपना नहीं मान पाई। वह हमारे बच्चों के साथ स्कूल जाता, उनकी पढ़ाई में मदद करता, लेकिन मेरे लिए वह हमेशा ‘मालकिन’ कहने वाला नौकर ही था।  

विराट पढ़ाई में होशियार था। अनिरुद्ध ने उसे डॉक्टर बनाने का सपना देखा, लेकिन मैंने सख्त विरोध किया। विराट ने बिना शिकायत किए एनडीए की परीक्षा दी और सेना में अधिकारी बन गया।  

अस्पताल में अनिरुद्ध का सफल ऑपरेशन हुआ। विराट ने सारा खर्च और जिम्मेदारी संभाल ली। डिस्चार्ज के बाद उसने हमें अपने साथ डलहौजी चलने का आग्रह किया। अनिरुद्ध ने मेरी तरफ देखा, और पहली बार मैंने विराट की बात मान ली।  

डलहौजी में विराट और उसकी पत्नी भावना ने हमारा स्वागत दिल से किया। भावना के स्नेह और विराट की देखभाल ने मेरा दिल जीत लिया। रात को विराट ने कहा,  

“मां, आप और बाबा यहीं रहेंगे। मैं अब आपको कहीं नहीं जाने दूंगा।”

उस रात मैंने अनिरुद्ध से कहा,  

“काश, विराट मेरी कोख से जन्मा होता।”

अनिरुद्ध मुस्कुराए और बोले,

“क्या फर्क पड़ता है? वह है तो हमारा ही बेटा।”

मैंने उनकी बात पर सिर हिलाया और कहा,  

“अब मैं भी मान गई हूं। वह सिर्फ तुम्हारा नहीं, हमारा बेटा है।”

उस रात पहली बार दिल से सुकून महसूस हुआ। हमने अपनी खोई हुई खुशी वापस पा ली थी।  

दोस्तो ! आपको यह कहानी कैसी लगी। अपने सुझाव कॉमेंट्स बॉक्स में जरूर बताएं।

राधे राधे 🙏🙏

Leave a Comment

error: