कर्ण:सबसे बड़ा दानवीर | Karan sabse bada daanveer Mahabharat

कर्ण :सबसे बड़ा दानवीर | Karan :sabse bada danveer Mahabharat

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं। व्यक्ति को फल की अभिलाषा बिना किए हुए,अपने कर्म करने चाहिए। तभी वह ईश्वर की कृपा का पात्र बन सकता है। यदि मनुष्य अपने कर्मों में दान धर्म सर्वप्रथम स्थान दे और निस्वार्थ भाव से दान धर्म करता है। तो निश्चय ही वह महान दानी कहलाता है। जैसे कि अंगराज कर्ण थे-

इंद्रप्रस्थ की स्थापना के बाद,एक बार की बात है। महाराज युधिष्ठिर अपने इंद्रप्रस्थ के महल में बैठे सभी लोगों को दान दे रहे थे। जैसे ही दान लेने वाले लोगों की कतार समाप्त हुई। महाराज युधिष्ठिर मन ही मन मुस्कुराते हुए बोले- इस सृष्टि में क्या मुझसे महान कोई दानी भी होगा, जो प्रजा में इतना अधिक दान देता हो। धर्मराज युधिष्ठिर के मुख से इस तरह के वचनों को सुनकर पास बैठे वासुदेव कृष्ण क्षण भर के लिए धर्मराज युधिष्ठिर को देखा और बड़े ही प्रेम से बोले- अपने ही मुख से अपनी ही महानता के गुण गाना आपको शोभा नहीं देता कुंती पुत्र।

वैसे ही इस सृष्टि में एक अन्य दानी भी है। जिसे सबसे अधिक दान करने का गौरव प्राप्त है। आज तक उस दानी के द्वार से कोई भी खाली हाथ नहीं लौटा। इसीलिए मेरी आंखों में तो वह पुरुष ही सबसे बड़ा दानी है। यह सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर को बहुत ही अचरज हुआ और वह बोले- हे वासुदेव आज तक मेरे द्वार से भी कोई खाली हाथ नहीं लौटा। फिर आप कैसे उस पुरुष को महान बता सकते हैं। जिसकी प्रशंसा करते आप थक नहीं रहे हैं।

धर्मराज युधिष्ठिर ने एक ही स्वर में श्री कृष्ण से पूछा, युधिष्ठिर के इस प्रश्न को सुनकर श्री कृष्ण जी पल भर के लिए मुस्कुराए और बोले- वह महान दानी पुरुष और कोई नहीं बल्कि अंग प्रदेश का राजा अंगराज कर्ण है। श्री कृष्ण से कर्ण का नाम सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर को जैसे एक धक्का सा लगा। वह मन ही मन में सोचने लगे।

आखिर एक सूत पुत्र इतना बड़ा दानी कैसे हो सकता है। हो ना हो अवश्य वासुदेव को कोई भ्रम हो गया है। क्योंकि स्वयं वासुदेव  उस कर्ण की प्रशंसा कर रहे हैं, तो अवश्य ही कर्ण में कुछ ना कुछ बात तो होगी। लेकिन फिर भी वह मेरी बराबरी तो नहीं कर सकता। इतना विचार करने के बाद वह श्री कृष्ण से बोले- वासुदेव यदि आप इतनी ही विश्वास से करने की प्रशंसा कर रहे हैं कृपया अपनी बात को सिद्ध कीजिए।

कर्ण का जीवन परिचय – Karn in Mahabharat - हिंदी पथ

क्योंकि आज तक मेरे द्वार से भी कोई याचक खाली हाथ वापस नहीं गया है। धर्मराज युधिष्ठिर को इस तरह व्याकुल देखकर श्री कृष्ण ने बात को टालते हुए कहा- हे कुंती पुत्र आप इतने व्याकुल न हो। समय आने पर मैं आपको सिद्ध भी कर दूंगा। तब तक के लिए आप निस्वार्थ भावना से अपना कार्य करते रहिए।

धीरे-धीरे समय गुजरा इस बात को हुए महीनो के महीनो बीत गए। देखते ही देखते वर्षा ऋतु का मास शुरू हो गया। राज्य पर इंद्रदेव ने वर्षा की ऐसी झड़ी लगाई, जहां भी देखो, वहां जल ही जल नजर आता, सूखी धरती तो कहीं ढूंढने पर भी नहीं मिलती थी। सारे जंगल भूमि सब मानो लंबे स्नान पर आए हो। ना कोई वृक्ष सूखा,ना कोई पौधा, ना ही कहीं भूमि का टुकड़ा। पशु पक्षी ग्रीष्म ऋतु में ऐसी वर्षा देखकर नाचने गाने लगे।

और तो और सारी प्रजा भी वर्षा ऋतु का स्वागत करती हुई दिख रही थी। इस भयंकर और मूसलाधार बारिश में एक बूढ़ा ब्राह्मण धर्मराज युधिष्ठिर के महल में आया, और विनती करता हुआ बोला- हे महाराज मैं आपके राज्य में रहने वाले ब्राह्मण तपस्वी हूं, और मेरा व्रत है कि मैं बिना हवन किए अन्न जल ग्रहण नहीं करता और मेरी दुविधा यह है कि कई दिनों से मेरे पास यज्ञ करने के लिए चंदन की लकड़ी नहीं है। यदि आप इस संकट में मेरी सहायता कर दें तो महाराज आपकी बड़ी कृपा होगी।

अन्यथा ना तो मेरा हवन पूरा होगा, और ना ही मेरा व्रत और मैं अपने व्रत की पूर्ति के लिए बिना अन्न जल के निर्वाह करता रहूंगा, इसीलिए है महाराज मुझ पर कृपा करें। उस ब्राह्मण की बात सुनकर महाराज युधिष्ठिर ने तुरंत ही कोषागार के कर्मचारियों को बुलवाया और राज्यकोष से चंदन की लकड़ी देने का आदेश दिया। यह श्री कृष्ण की माया थी या फिर कोई संजोग कि उस दिन कोषागार में एक भी सूखी लकड़ी नहीं थी।

यह सुनकर ब्राह्मण तपस्वी व्याकुल हो उठा उसे ऐसी हालत में देख महाराज युधिष्ठिर बोले- हे ब्राह्मण देवता आप चिंता ना करें। इतना कहकर महाराज ने अर्जुन समेत कुछ सैनिकों को चंदन की लकड़ी का प्रबंध करने का आदेश दिया। आदेश पाते ही सभी जंगल की ओर चले गए। महल के बाहर इतनी बारिश हो रही थी कि जंगल तक पहुंचना भी कठिन था। लेकिन फिर भी भीम और अर्जुन के साथ सभी सैनिकों ने जंगल का कोना-कोना छान मारा। लेकिन इतनी दौड़ धूप करने के बाद भी चंदन की सूखी लकड़ी की व्यवस्था ना हो पाई और सभी सैनिक निराशा हाथ लेकर महल में लौट आए।

चारों तरफ हाथ पैर मारने के बाद भी जब धर्मराज युधिष्ठिर चंदन की लकड़ी का प्रबंध नहीं कर पाए, तो अंत में उन्होंने उस ब्राह्मण तपस्वी के आगे हाथ जोड़कर विनती की और कहा- है तपस्वी मैं इस समय विवश हूं, मुझे क्षमा करना, किंतु इस समय चंदन की सूखी लकड़ी का प्रबंध करना असंभव है। जैसे ही वर्षा रुकेगी, मैं आपके लिए चंदन की लकड़ी का प्रबंध अवश्य कर दूंगा। महाराज युधिष्ठिर की इस बात से उस तपस्वी ब्राह्मण का दिल टूट गया।

दूर बैठे श्री कृष्ण साथ घटनाक्रम देख रहे थे। जैसे ही वह तपस्वी ब्राह्मण जाने लगा, श्री कृष्ण जी ब्राह्मण को रोकते बोले- हे ब्राह्मण देवता मेरे अनुमान से एक स्थान पर आपको चंदन की लकड़ी मिल सकती है। आप एक काम कीजिए,यहां से कुछ दूरी पर अंगराज कर्ण का महल है। आप उनके द्वार पर जाइए ।वह आपको खाली हाथ नहीं जाने देंगे। उस ब्राह्मण याचक ने श्री कृष्ण की बात सुनी और सीधा अंगराज कर्ण के द्वार पर चला गया।

दूसरी और महाराज युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण से पूछा- हे वासुदेव मैं इस प्रदेश का कोना-कोना छान मारा। परंतु वर्षा ऋतु होने के कारण मुझे चंदन की सूखी लड़कियां कहीं नहीं मिली। ऐसे में वह कर्ण सूखी लड़कियों का प्रबंध कहां से कर पाएगा। महाराज युधिष्ठिर जी के इस प्रश्न को सुनकर, भगवान श्री कृष्णा मुस्कुराए और बोले -महाराज अब इस बात का पता तो वहां जाकर ही लगेगा, किंतु मैं इस बात से सुनिश्चित हूं कि अंगराज कर्ण के पास इस दुविधा के लिए कोई ना कोई विकल्प अवश्य होगा।

एक काम करते हैं वहां जाकर स्वयं ही देख लेते हैं। श्री कृष्ण का इतना सा कहना था की धर्मराज युधिष्ठिर और भगवान श्री कृष्ण दोनों ने ही अपना-अपना भेष बदल और साधु के पीछे-पीछे चल पड़े। जैसे ही वह तपस्वी ब्राह्मण महल में पहुंचा। उसने अपनी व्यथा कर्ण को सुनाई, कर्ण ने सिपाहियों से कहा की राजकोष से लड़कियां लाकर ब्राह्मण देवता को दे दी जाएं। लेकिन ईश्वर की माया ऐसी थी। कर्ण के राजकोष में चंदन की लड़कियां समाप्त हो चुकी थी।

इस पर कर्ण ने अपने सैनिकों को जंगल में जाकर सुखी लड़कियां लाने को कहा। यह सारा माजरा भेष बदलकर धर्मराज युधिष्ठिर और भगवान श्री कृष्णा भी देख रहे थे। कुछ समय बाद कर्ण के भी सैनिक युधिष्ठिर के सैनिकों की तरह जंगल से खाली हाथ लौट आए, क्योंकि इतनी बारिश में चंदन की सूखी लकड़ी का मिल पाना असंभव सा था। अब अंगराज कर्ण भी उसी जगह पर आ पहुंचे थे, जहां से आकर युधिष्ठिर ने ब्राह्मण देवता को खाली हाथ लौटा दिया था।

कर्ण की जगह कोई और भी होता तो वह शायद वह भी महाराज युधिष्ठिर की ही तरह ब्राह्मण को खाली हाथ लौटा देता, लेकिन इस मामले में महारथी कर्ण सबसे अलग है। दान उनके जीवन का सबसे पहला धर्म था। लेकिन अभी वह जिस जगह आ पहुंचे थे, वहां से निकलने का उन्हें कोई रास्ता नहीं नजर आ रहा था। जिसे देख वह तपस्वी ब्राह्मण निराश होने लगा था। कर्ण और ब्राह्मण की ऐसी हालत देख धर्मराज युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण जी से धीरे से बड़े ही हल्के  स्वर में कहा- देखा वासुदेव मैंने कहा था ना ऐसी हालत में चंदन की सूखी लकड़ी मिल पाना असंभव है।

भगवान श्री कृष्ण बातें सुनकर कुछ देर नहीं बोले और मंद मंद मुस्कुराते रहे। युधिष्ठिर अभी बात कर ही रहे थे, तभी कर्ण ने कहा हे ब्राह्मण देवता आप निराश ना हो, मेरे पास एक उपाय है। इतना कहकर कर्ण ने अपने एक सैनिक से कहकर कुल्हाड़ी मंगाई और सीधा अपने कक्ष की ओर चल पड़े, कर्ण ने अपने महल के लगे खिड़की दरवाजों की चंदन की लकड़ी काट काट कर ढेर लगा दी। इसके बाद वह  ब्राह्मण देवता से बोले हे तपस्वी ब्राह्मण देवता आपको जितनी लकड़ी चाहिए ,कृपा ले जाइए।

कर्ण ने लकड़ी ब्राह्मण के घर पहुंचने का भी प्रबंध कर दिया। ऐसी हालत में इतनी सारी लड़कियां पा कर ब्राह्मण देवता कर्ण को आशीर्वाद देता हुआ, अपने आश्रम वापस लौट आया। यह देख श्री कृष्ण जी ने युधिष्ठिर से कहा- कुंती पुत्र खिड़कियां और दरवाजे तो तुम्हारे महल के भी  चंदन की लकड़ी के बने थे, फिर तुम्हारे मन में यह विचार क्यों नहीं आया, यह प्रश्न सुनकर युधिष्ठिर मौन से हो गए।

श्री कृष्णा बोले साधारण अवस्था में दान देना कोई विशेषता नहीं है धर्मराज ,असाधारण स्थिति में भी किसी के लिए अपना सब कुछ त्याग देना ही, वास्तव में असली दान है। इसीलिए मेरी आंखों में तब भी कर्ण महान दानी था। आज भी कर्ण हीं महान दानी है। श्री कृष्ण की बातें सुनकर महाराज युधिष्ठिर भी स्वयं को रोक नहीं पाए और कर्ण के पास जाकर बोले- तुम वास्तव में  सच्चे दानी हो अंगराज कर्ण, इतना कहकर वह अपने महल वापस लौट आए।

You may also like this:-

गंगा में बहाई अस्थियां आखिर जाती कहां है?
पवित्र रामायण से 10 सीख!/Pavitra Ramayan Se 10 Seekh

 

Leave a Comment

error: