श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता की कथा

श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता की कथा

श्री कृष्ण और सुदामा दोनों गुरु भाई थे। दोनों की मित्रता की मिसाल आज भी दी जाती है। श्री कृष्ण और सुदामा की दोस्ती का प्रसंग यह प्रेरणा देता है कि मित्रता धन-वैभव, ऊंच-नीच से ऊपर होती है। श्री कृष्ण भगवान विष्णु के आठवें अवतार माने जाते हैं और उनका जन्म एक राजकीय परिवार में हुआ था। वहीं सुदामा का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।

कंस वध के पश्चात श्री कृष्ण के माता-पिता देवकी और वसुदेव जी ने श्री कृष्ण को शिक्षा ग्रहण करने के लिए ऋषि सान्दीपनि के आश्रम में भेजा था। सुदामा श्री कृष्ण के गुरु भाई थे। सान्दीपनि ऋषि के आश्रम में ही दोनों की मित्रता हुई थी।

समय के साथ श्री कृष्ण द्वारिकापुरी के राजा बन गए। वहीं सुदामा का जीवन बहुत दरिद्रता में गुजर रहा था। उनकी पत्नी अत्यंत पतिव्रता स्त्री थी। जो भी अन्न उन्हें प्राप्त होता, वह पहले पति और बच्चों को खिलाकर फिर स्वयं खाती थी। अगर भोजन समाप्त हो जाता, तो स्वयं भूखी ही रह जाती थी। सुदामा जी अपनी पत्नी को अपने मित्र श्री कृष्ण की कहानी सुनाकर बताते कि वे अब द्वारिकापुरी के राजा बन गए हैं।

श्री कृष्ण और सुदामा

जब दरिद्रता भोगते हुए बहुत समय बीत गया, तो एक दिन सुदामा जी की पत्नी कहने लगी, “मैं आपको एक उपाय बताती हूँ जिससे आपकी दरिद्रता अवश्य नष्ट हो जाएगी।” श्री कृष्ण आपके सखा हैं इसलिए आपको त्रिलोकीनाथ, द्वारिकाधीश श्री कृष्ण के पास जाना चाहिए। वे अर्थ, धर्म, मोक्ष के दाता हैं। वे आपकी सहायता अवश्य करेंगे। सुदामा कहने लगे, “मैं तुम्हारे कहने पर श्री कृष्ण के पास जाऊंगा। इस बहाने मुझे मेरे सखा श्री कृष्ण के दर्शन हो जाएंगे।” उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा, “मैं श्री कृष्ण के लिए भेंट में क्या लेकर जाऊं?”

सुदामा जी की पत्नी किसी से मांगकर चावल ले आई और एक पोटली में चावल बांधकर दे दिए। सुदामा जी चावल की पोटली कांख में दबाकर द्वारिकापुरी की ओर चल पड़े। द्वारिकापुरी पहुंचकर उन्होंने देखा कि चारों ओर समुद्र फैला है और बीच में सुंदर द्वारिकापुरी बसी है। सुदामा जी मणियों से जड़ित महल को देखकर हर्षित हो रहे थे। महल के द्वार पर पहुंचकर सुदामा जी द्वारपाल से कहते हैं, “मैं द्वारिकाधीश से मिलना चाहता हूं। मैं श्री कृष्ण का मित्र हूं और मेरा नाम सुदामा है।” द्वारपाल उन्हें वहीं रोककर स्वयं श्री कृष्ण को सूचना देने गया।

द्वारपाल श्री कृष्ण से कहता हैं कि, “महाराज, दीन-हीन हालत में एक ब्राह्मण आया है। वह अपने आपको आपका मित्र बता रहा है, उसका नाम सुदामा है।” सुदामा नाम सुनते ही श्री कृष्ण नंगे पांव दौड़े चले गए और जाकर सुदामा को हृदय से लगा लिया और हाथ पकड़कर महल में ले आए।

श्री कृष्ण ने उन्हें सिंहासन पर बैठाकर उनके पांव धोकर चरणामृत लिया, उन्हें तिलक लगाया और पुष्प अर्पित किए। रुक्मिणी जी ने पंखा लाकर उनकी सेवा की।

महल की स्त्रियां मन में विचार करने लगीं कि इस दीन-हीन से जान पड़ने वाले ने ऐसे कौन से तप किए हैं जो तीन लोकों के स्वामी उनकी सेवा कर रहे हैं, श्री कृष्ण क्यों उनका इतना सम्मान कर रहे हैं?

श्री कृष्ण ने उन्हें पलंग पर बैठाया और संदीपनि ऋषि के गुरुकुल की बातें स्मरण करने लगे। उन्होंने पूछा, “भाभी ने मेरे लिए क्या भेंट भेजी है? भाभी ने जो दिया है वह मुझे देते क्यों नहीं?” इतना सुनते ही सुदामा जी चावल की पोटली दबाने लगे तो श्री कृष्ण ने वह पोटली उनकी कांख से खींच ली।

श्री कृष्ण ने पोटली खोलकर दो मुट्ठी चावल खा लिए और जैसे ही तीसरी मुट्ठी भरी, रुक्मिणी जी ने श्री कृष्ण का हाथ पकड़ लिया। वह कहने लगीं, “प्रभु, आपने दो लोक तो इसे पहले ही दे दिए हैं, अब अपने रहने का स्थान भी नहीं छोड़िए।”

वैसे भी इन्हें किसी वस्तु को पाने की ना तो खुशी है और ना ही जाने की चिंता। रुक्मिणी के मुख से ऐसे वचन सुनते ही श्री कृष्ण कहने लगे, “यह मेरा परम मित्र है। यह सदा ही मेरे ध्यान में मग्न रहता है। इसके आगे संसार के सब सुख तुच्छ हैं।”

इस तरह श्री कृष्ण ने रुक्मिणी को समझाया और फिर सुदामा जी को स्वादिष्ट भोजन कराकर पान खिलाया और शैया पर सुला दिया। सुदामा जी दिन भर की यात्रा से थके थे, इसलिए सोते ही उन्हें नींद आ गई।

उनके सोते ही प्रभु ने विश्वकर्मा को बुलाकर कहा कि सुदामा के लिए सुंदर भवन तैयार करो और उसमें अष्ट सिद्धि और नवनिधि रख दो ताकि उन्हें किसी बात की चिंता ना रहे। विश्वकर्मा ने इतना सुनते ही वहां जाकर सुंदर महल बना दिया और श्री कृष्ण को सूचना दे दी।

अगले दिन जब सुदामा श्री कृष्ण से विदा लेने लगे, तो प्रेमवश श्री कृष्ण से कुछ ना मांग पाए। वह श्री कृष्ण से विदा लेकर प्रणाम कर अपने घर की ओर चल पड़े।

रास्ते में सोचने लगे, “अच्छा हुआ जो मैंने श्री कृष्ण से कुछ नहीं मांगा। अगर मांगता, तो वे मुझे अवश्य देते, लेकिन फिर भी मुझे लोग लोभी समझते। अब मुझे कोई चिंता नहीं है। मैं घर जाकर अपनी पत्नी को समझा लूंगा कि मेरे मित्र ने मेरा कितना सम्मान किया था। यही मेरे लिए बहुत बड़ी बात है।”

 

 

इसी उधेड़बुन में जब सुदामा अपने गांव के निकट पहुंचे, तो उस स्थान पर उनकी झोपड़ी नहीं थी, बल्कि वहां एक सुंदर महल बन चुका था। सुदामा परेशान हो गए और सोचने लगे, “ईश्वर, यह आपने क्या किया? मेरी कुटिया और मेरी पत्नी कहां गईं? किससे पूछूं, किससे बात करूं?” हिम्मत कर सुदामा महल के द्वारपाल से जाकर पूछते हैं, “यह सुंदर महल किसका है?”

द्वारपाल कहने लगे, “श्री कृष्ण के मित्र सुदामा का महल है।” उनकी आवाज सुनकर उसी समय उनकी पत्नी सुंदर आभूषण और वस्त्र पहने हुए सखियों के साथ सुदामा के पास आई। उन्होंने सुदामा को सारा वृत्तांत सुनाया। सुनते ही सुदामा उदास हो गए। उनकी पत्नी कहने लगी, “स्वामी, धन पाकर तो हर कोई प्रसन्न होता है, फिर आपकी उदासी का क्या कारण है?”

सुदामा कहने लगे, “यह माया बड़ी ठगनी है। इसने सारे संसार को ठगा है और ठगती रहेगी। उसी माया को ही प्रभु ने मुझे दे दिया। उन्हें मेरे प्रेम पर विश्वास नहीं था। मैंने माया कब उनसे मांगी थी जो उन्होंने मुझे दे दी। इसलिए मेरा मन उदास है।” सुदामा जी की पत्नी कहने लगी, “स्वामी, आप उदास ना हों क्योंकि श्री कृष्ण ने आपके मन की नहीं, अपितु मेरे मन की इच्छा को पूर्ण कर दिया।”

ऐसा माना जाता है कि श्री कृष्ण और सुदामा के इस प्रसंग का अक्षयतृतीया से संबंध है क्योंकि सुदामा जी अक्षय तृतीया के दिन ही श्री कृष्ण से द्वारिकापुरी में मिले थे और श्री कृष्ण ने बड़े चाव से उनके चावल खाए थे।

मित्रता का महत्व और संदेश

श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता की यह कथा यह संदेश देती है कि सच्ची मित्रता धन, वैभव, और सामाजिक स्थिति से परे होती है। सच्चे मित्र वही होते हैं जो कठिन परिस्थितियों में एक-दूसरे का साथ देते हैं और बिना किसी स्वार्थ के अपने मित्र की सहायता करते हैं।

श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता इस बात का प्रमाण है कि सच्ची मित्रता का कोई मोल नहीं होता। इस कथा से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपने मित्रों का सम्मान करना चाहिए और उनके प्रति सच्ची निष्ठा रखनी चाहिए।

श्री कृष्ण ने सुदामा की दरिद्रता को दूर कर दिया क्योंकि उन्होंने सुदामा की निष्ठा, प्रेम और समर्पण को पहचाना। यह कथा हमें यह भी सिखाती है कि सच्चा प्रेम और मित्रता ही सबसे बड़ी संपत्ति है। हमें अपने मित्रों की सहायता करनी चाहिए और उन्हें सम्मान देना चाहिए, चाहे हमारी सामाजिक स्थिति कुछ भी हो।

श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता का यह प्रसंग सदैव हमें यह याद दिलाता है कि जीवन में सच्चे मित्रों का कितना महत्व होता है। यह मित्रता की महानता का एक सुंदर उदाहरण है, जो हमें प्रेरणा देती है कि हम भी अपने मित्रों के प्रति सच्चे और वफादार रहें। जीवन की कठिनाइयों में हमें अपने मित्रों का साथ नहीं छोड़ना चाहिए, और सच्चे मित्र की तरह हर समय उनकी सहायता के

 श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता की कथा (आगे)

श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता की यह कथा आज भी लोगों के दिलों में बसी हुई है। यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची मित्रता समय, परिस्थिति और सामाजिक स्थिति से परे होती है। श्री कृष्ण ने सुदामा के प्रेम, निष्ठा और समर्पण को पहचाना और उसे अपनी सहायता से नवाज़ा। सुदामा की दरिद्रता को दूर कर उन्होंने यह सिद्ध किया कि सच्चे मित्र वही होते हैं जो अपने मित्र की कठिनाई में साथ देते हैं।

सुदामा जी अपने सुंदर महल में जब स्थापित हो गए, तो उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर श्री कृष्ण की भक्ति और सेवा में अपना जीवन व्यतीत किया। उनके मन में कभी भी उस माया का मोह नहीं जागा जो श्री कृष्ण ने उन्हें दी थी। वे सदैव श्री कृष्ण के प्रति कृतज्ञ रहे और उनकी भक्ति में लीन हो गए। सुदामा जी का जीवन अब पूर्णतः बदल चुका था, लेकिन उनके मन की सरलता और सच्चाई में कोई परिवर्तन नहीं आया।

मित्रता का आदर्श

श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता का यह प्रसंग हमारे लिए एक आदर्श है। यह हमें सिखाता है कि सच्चे मित्र की पहचान उसकी निस्वार्थ भक्ति, प्रेम और निष्ठा से होती है। यह भी सिखाता है कि सच्ची मित्रता का आधार हमेशा विश्वास और समझदारी पर होना चाहिए।

यह कथा हमें यह भी बताती है कि सच्चे मित्रों का साथ हमारे जीवन को संपूर्ण बनाता है। चाहे कितनी भी कठिनाइयां क्यों न आएं, सच्चे मित्र हमेशा एक-दूसरे के साथ खड़े रहते हैं।

 जीवन के अन्य महत्वपूर्ण संदेश

इस कथा से हमें यह भी सिखने को मिलता है कि हमें कभी भी अपने मित्रों को उनकी सामाजिक स्थिति के आधार पर नहीं आंकना चाहिए। सुदामा की दरिद्रता और श्री कृष्ण की राजसी ठाठ-बाठ के बावजूद, उनकी मित्रता में कोई कमी नहीं आई।

सुदामा का श्री कृष्ण से मिलने का प्रसंग हमें यह भी सिखाता है कि सच्ची मित्रता में समर्पण और विनम्रता का विशेष महत्व होता है। जब सुदामा ने श्री कृष्ण को भेंट स्वरूप चावल दिए, तो श्री कृष्ण ने उसे बड़े प्रेम से स्वीकार किया, यह दर्शाता है कि सच्चे मित्र का दिया हुआ हर उपहार अनमोल होता है।

### अंतिम विचार

श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता की यह कथा हमें यह समझने में मदद करती है कि जीवन में सच्चे मित्रों का कितना महत्व होता है। यह मित्रता की महानता और उसकी पवित्रता का एक अनमोल उदाहरण है। हमें अपने मित्रों के प्रति सदैव निष्ठावान और समर्पित रहना चाहिए, और उनकी सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए।

श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता का यह प्रसंग हमारे जीवन में प्रेरणा का स्रोत है। यह हमें यह सिखाता है कि सच्ची मित्रता के लिए न तो धन की आवश्यकता होती है और न ही किसी विशेष सामाजिक स्थिति की। सच्ची मित्रता केवल प्रेम, निष्ठा, और विश्वास पर आधारित होती है। हमें भी अपने मित्रों के प्रति सच्चे और वफादार रहना चाहिए और जीवन की कठिनाइयों में उनका साथ नहीं छोड़ना चाहिए।

इस प्रकार, श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता की यह कथा हमें सिखाती है कि सच्ची मित्रता अमूल्य होती है और हमें इसे संजोकर रखना चाहिए। यह कथा हमें अपने मित्रों के प्रति प्रेम, सम्मान और निष्ठा की भावना को बढ़ावा देती है और हमें सच्चे मित्र बनने की प्रेरणा देती है।

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