निष्ठुर अनुकंपा/Nishthur Anukampa

किसी शहर में एक कुलीन परिवार रहता था उसमें चार भाई थे। परिवार की जायदाद और धन दौलत बर्बाद हो चुकी थी। चारों भाई हुनरमंद और पढ़े लिखे थे। फिर भी वह अपनी खानदानी इज्जत के कारण कहीं नहीं नौकरी चाकरी या काम धंधा नहीं कर पाते थे।घर की गरीबी दिनोंदिन बढ़ रही थी। घर की स्त्रियों के आभूषण भी कम दामों में बेच चुके थे। आखिर वह स्थिति भी आई जब घर में कुछ भी ना बचा। और खाने-पीने के लाले पड़ने लगे अब क्या किया जाए।

उनके घर के पास बगीचे में सहिजन का एक पेड़ था। सहिजन उसके फलने का मौसम था। लंबी लंबी और हरी हरी सहिजन की फलियां डालियों पर लटक रही थी। जब शाम हो जाती और चारों तरफ कुछ सन्नाटा छा जाता तो उन चारों भाइयों में से कोई एक उस पेड़ पर चढ़ जाता और फलियां को तोड़कर नीचे गिरा देता।

कुछ रात बीते एक कुंजडिंन आती और सहिजन की फलियां खरीद कर ले जाती। इससे जो थोड़े से पैसे मिल जाते उन्हीं से उस परिवार का निर्वाह होता। दीपावली के बाद एक दिन उनका एक रिश्तेदार उनके घर आया। उससे इन लोगों को बुरी दशा की जानकारी ना थी। जब भोजन तैयार हुआ तो बड़े भाई ने बहाना बनाया -“आज मेरा सोमवार का व्रत है मैं खाना ना खा लूंगा”।

दूसरे ने कहा-” मेरे पेट में दर्द उठ रहा है डॉक्टर ने खाने को मना किया है”।

तीसरे भाई का कहना था कि उसे अपने दोस्त के घर दावत में जाना है अतः वह शरीक ना हुआ।

सबसे छोटा भाई घर में आए हुए मेहमान के साथ खाना खाने बैठा। दो थालियां लगाई गई। जब दोनों जन खाने बैठे तो बड़ी मां मेहमान से खाने का खूब आग्रह करती रही। लेकिन उसने अपने छोटे लड़के को जरा भी ना पूछा। वह लड़का भी सदा हुआ था। कोई चीज परोसी जाती। इससे पहले ही हाथ हिला कर कह देता मुझे नहीं चाहिए। इस तरह दो बार भोजन करने पर मेहमान ताड़ गया। कि यह लोग गरीबी के शिकार हो गए हैं। घर की हालत खराब है खाने पीने की तकलीफ बढ़ गई है। फिर भी इन्हें फिक्र नहीं है।

किसी तरह उस रात का खाना खाकर वहां मेहमान बरामदे में सो गया। सो क्या गया उसने सोने का ढोंग रचा। करीब 10:00 बजे रात को वह कुंजडिंन आई। बड़े भाई ने बड़ी सावधानी से बिल्ली की तरह दबे पैरों से पेड़ पर चढ़कर सहिजन की काफी फलियां तोड़ी। कुंजडिंन जानती थी। कि इस वक्त इनकी गरज है। वह जो दान देगी, वही ले लेंगे ज्यादा पैसा उससे ना मांगेंगे।

जब बड़ा भाई टोकरी में सहिजन की फलियां लेकर कुंजडिंन के पास आया तो उसने दाम कम दिए और कहा- “आजकल सीजन की मांग नहीं है। मुझे भी बाजार में लाभ नहीं मिलता। अब मैं तुमको पहले की तरह ज्यादा कीमत नहीं दे सकती। तुम्हारी गरज हो तो दाम लो नहीं तो मैं चली “। बड़े भाई ने मुंह पर हाथ रख कर कहा तुम जितना चाहो दे दूं। मगर जोर से मत बोलो बरामदे में हमारे मेहमान सो रहे हैं, जाग जाएंगे।

कुंजडिंन ने इस मौके का लाभ उठाकर उन फलों के दाम और भी घटा दिए। लाचार होकर बड़े भाई को उतनी ही पैसे लेने पड़े जितने कुंजडिंन ने दिए। कुंजडिंन चली गई चारपाईयों पर सब लोगों के जोर-जोर से खर्राटे सुनाएं पड़ने लगे।

एकमात्र मेहमान अभी जाग रहा था। वह दूरदर्शी तो था ही उसने सोचा यह कितना अच्छा प्रतिष्ठित खानदान है। झूठी और बनावटी इज्जत के ख्याल से यह नौजवान लड़के खाने-पीने की तकलीफ बर्दाश्त कर रहे हैं। और इस मामूली सहजन के पेड़ के भरोसे अपना गुजारा कर रहे हैं। वह चुपचाप उठा बरामदे के एक कोने में पड़ी कुल्हाड़ी उठाई, और बिना किसी आहट के सहिजन के पेड़ के पास पहुंच।

पेड़ को जड़ के पास से काटकर धरती पर गिरा दिया। फिर पौ फटने से पहले ही नीम अंधेरे में मेहमान उस घर से चल दिया। सवेरा हुआ। बड़े भाई ने उठकर देखा। कि मेहमान बरामदे से गायब है। और बगीचे में सहिजन का पेड़ कटा पड़ा है। घर को सहारा देने वाले किसी बुजुर्ग के मरने से जो मातम छा जाता है। वैसा ही उस परिवार पर छा गया।

चारों भाइयों की मां कहने लगी -“यह दुष्ट मेहमान कहां से आया था। यह रिश्तेदार मेहमान नहीं पिछले जन्म का हमारा दुश्मन था। अगर इसे हमारी बुरी हालत पर तरस आ रहा था। तो चुपचाप हमारे घर आठ दस मन अनाज भेज दिया होता। हमारे परिवार के एकमात्र सहारे सहिजन के पेड़ को इसने क्यों काट डाला”।

बड़े भाई ने मां से कहा -“अम्मा जब तक हमारा बस चला घर की पुश्तैनी इज्जत बचाई, ना किसी की नौकरी की ,ना किसी के आगे हाथ फैलाया मगर आगे गुजारा चलना मुश्किल है कहीं ना कहीं यहां काम ढूंढना ही ही पड़ेगा “।

उस बस्ती में चारों भाइयों की अच्छी इज्जत थी। अपने खानदान और अपनी इमानदारी के लिए वे काफी प्रसिद्ध थे। जहां जाते वही लोग उनसे अच्छा बर्ताव करते। एक बड़े धनी मानी सज्जन ने बड़े भाई को अपने यहां नौकरी पर रख लिया। अन्य भाई भी कहीं ना कहीं लग गए। एक साल बीत गया। चारों की हालत अच्छी हो गई। घर का कामकाज भी ठीक चलने लगा। घर में दूध की कमी नहीं रह।

दूसरी दीपावली आई। वही मेहमान फिर उनके घर आया। उसने कबूल किया। कि आंगन का वह पेड़ उसी ने कुल्हाड़ी से काट गिराया था। उस कठोर कर्म के पीछे उसके दिल की नेक नियति थी। कोई खराब इरादा नहीं था। घर के लोग भी यह अच्छी तरह जान गए थे।

उन चारों भाइयों ने बड़े प्रेम से अपने मेहमान की खातिरदारी की और उसे विदा करते समय कहा -“उस दिन आपने हमारा सहिजन का पेड़ नहीं काटा। मानो हमारी काहिली और बदकिस्मती को काट कर फेंक दिया था। अगर आप हम पर तरस खाकर आठ दस अनाज अनाज हमारे घर भेज देते तो हम और भी नीचे गिर जाते हैं। पूरे बुजदिल बन जाते। आपने हमारे आंगन का पेड़ गिरा कर हमारी गिरी हुई किस्मत को ही ऊंचा उठा दिया। दुनिया में भाई बंधु हो तो आपके जैसे हो”।

शिक्षा :-चाहे परिस्थितियां कैसी भी हो हमें परिश्रम करना नहीं छोड़ना चाहिए।

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