ईश्वर के प्रति समर्पण का क्या अर्थ है | प्रेरणादायक अनमोल वचन

ईश्वर के प्रति समर्पण का क्या अर्थ है : संत एकनाथ की कथा

ईश्वर के प्रति समर्पण-पुराने समय की बात है, महाराष्ट्र में संत एकनाथ नाम के एक प्रसिद्ध संत रहते थे। वे भगवान विट्ठल के परम भक्त थे और अपना जीवन भगवान की सेवा और भक्ति में व्यतीत करते थे। संत एकनाथ के समर्पण और भक्ति के किस्से दूर-दूर तक मशहूर थे।

एक बार की बात है, संत एकनाथ काशी यात्रा पर गए। गंगा स्नान के बाद, वे अपने भक्तों के साथ भगवान का कीर्तन कर रहे थे। उसी समय, एक शरारती व्यक्ति ने संत एकनाथ की भक्ति की परीक्षा लेने का सोचा। उसने संत एकनाथ पर ऊपर से गंदा पानी फेंक दिया। संत एकनाथ ने बिना किसी क्रोध के, मुस्कुराते हुए, फिर से गंगा स्नान किया और कीर्तन में लीन हो गए।

यह घटना बार-बार घटित हुई। हर बार, जब भी वह शरारती व्यक्ति उन पर गंदा पानी फेंकता, संत एकनाथ बिना किसी गुस्से के पुनः स्नान करके कीर्तन में लौट आते। संत एकनाथ के इस व्यवहार ने उस व्यक्ति को आश्चर्यचकित कर दिया। आखिरकार, उसने संत एकनाथ से माफी मांगी और उनके चरणों में गिर पड़ा।

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संत एकनाथ ने उसे उठाया और कहा, “पुत्र, मैं तो भगवान के प्रति समर्पित हूँ। तुम्हारे इस कार्य से मेरी भक्ति और भी मजबूत हुई है। मेरे लिए, हर कठिनाई भगवान का आशीर्वाद है।”

इस घटना से वह व्यक्ति भी भगवान का भक्त बन गया और संत एकनाथ के चरणों में समर्पित हो गया।

यह कहानी हमें यह सिखाती है कि ईश्वर के प्रति समर्पण का अर्थ है, किसी भी परिस्थिति में धैर्य और शांति बनाए रखना। संत एकनाथ का धैर्य और उनकी भक्ति यह दिखाती है कि सच्चा समर्पण और विश्वास हर कठिनाई को पार कर सकता है। ईश्वर के प्रति समर्पण में अपार शक्ति होती है, जो हमें जीवन की हर परीक्षा में उत्तीर्ण करती है।

 

ईश्वर या सर्वव्यापी परमात्मा कौन है?

ईश्वर के प्रति समर्पण का अर्थ है अपने जीवन को पूरी तरह से ईश्वर के हुक्म पर अर्पित करना और उसके मार्ग में चलना। यह भावना और अभिप्राय आध्यात्मिकता में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। समर्पण का अर्थ है कि व्यक्ति ईश्वर के विशेष इच्छाओं, दिशाओं और निर्देशों का पालन करता है, और अपने कार्यों को ईश्वर की प्रसन्नता के लिए समर्पित करता है। इससे उसका जीवन एक आदर्श और परम्परागत धार्मिक जीवन बन जाता है। समर्पण के माध्यम से व्यक्ति अपने आत्मा को प्रशांति और संतोष की प्राप्ति में भी संगठित करता है।

ईश्वर के प्रति समर्पण का अर्थ है अपने मन, वचन, और क्रियाओं को ईश्वर को समर्पित करना। यह एक आध्यात्मिक अभिव्यक्ति का रूप है जिसमें व्यक्ति अपने जीवन को ईश्वर की इच्छा और दिशा के अनुसार निर्धारित करता है। समर्पण का यह मतलब नहीं है कि व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों से बच जाए, बल्कि वह उन्हें ईश्वर के सेवा में समर्पित करता है। इसका अर्थ है कि व्यक्ति ईश्वर की प्रेम, शक्ति, और दया के साथ अपने जीवन का हर पल जीता है, और उसके अधीन अपने समस्त क्रियाओं को समर्पित करता है।

भगवान प्रेम, पवित्रता व आनन्द की पराकाषठा हैं।

वह सम्पूर्ण सृष्टि का एकमात्र पोषक व व्यवस्थापक है।

वह पवित्र, सरल व दिव्य भाव से प्रेम करने वालों के बहुत क़रीब होता है ओर वासना से भरे, अधिक क्रोध करने वाले, स्वार्थी व लालची लोगों से उनकी अपने दोषों से उत्पन्न अपवित्रता व अहंकार से लगाव के अनुपात मे दूर होता है।

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ईश्वर या सर्वव्यापी परमात्मा कहाँ रहते हैं?

परमात्मा हर जीव के हृदय में आत्मा के रूप में सदैव मौजूद रहते है।

ईश्वर सब के (हृदय के) भीतर मौजूद है इस बात का प्रमाण यह है कि जीवन की हर गति केवल ईश्वर की शक्ति से ही संचालित होती है।

जैसेकि हमारी धड़कन, हमारे श्वास, हमारे विचार, हमारे देखने, सुनने, बोलने व स्वाद लेना आदी जैसी शक्तियाँ, हमारे शरीर का रक्त संचारण, पाचन क्रिया आदि जैसे हमारे भीतरी अंगों द्वारा होने वाले इन सभी क्रियाओं का संचालन ईश्वर द्वारा ही होता हैं।यह केवल वही अन्तरयामी ईश्वर ही जानता है कि अभी हमारे शरीर के कितने श्वास बाक़ी है, तथा किस क्षण हमारी मृत्यु हो जायेगी!

सूर्य का प्रकाश, पृथ्वी का घूमना, रात-दिन का बदलाव, मौसम का बदलाव, बारिश, सौरमंडल व उसके ग्रह, आकाश गंगा, तारा समूह, गुरुत्वाकर्षी बल आदि जैसे समस्त ब्रह्मांड के सभी कार्यों का संचालन भी ईश्वर ही करता है।

सर्वव्यापी परमात्मा को किसने देखा है?

ईश्वर के प्रति समर्पण-ईश्वर विश्वास है। विश्वास में द्वंद्व अवस्था, जीवन मे विकास का सबसे बड़ा काँटा है जो कार्यों को कुशलता से सम्पन्न नहीं होने देता। द्वंद्वावस्था की स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है।

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ईश्वर को देखने व जानने के लिये हृदय रूपी दर्पण की स्वच्छता जितनी आवश्यक है, उतना (मन का ईश्वर के प्रति प्रेम भरे भाव पर) ठहराव भी उतना ही आवश्यक है। क्योंकि मैले दर्पण में या गतिमान जल में सही प्रतिबिम्ब नहीं दिखता।

विश्वास का द्वंद्वीकरण क्या है?

ईश्वर की बजाये स्वयं अपना ध्यान रखना व ख़ुद को ही सही समझना।

ईश्वर से स्वयं को पृथक समझने पर ही विश्वास का द्वंद्व उत्पन्न होता है। इससे अन्त:करण की क्षति होती है और परिणामस्वरूप हम अपनी आत्मा की दिव्य सलाह/आवाज़ को अनसुना करने लगते है।

भ्रम क्या है?

यह हमारे मन में एक से अधिक भावों या विचारों का एकत्रित हो जाना है। और इसके परिणामस्वरूप पूर्व स्थिति के विश्वास का मिट जाना है।

अत: भ्रम एक पाप है; भ्रम द्वंद्व के कारण उत्पन्न होता है।

द्वंद्व एकाकी भाव के विपरीत है।

 

और भ्रम या द्वंद्व रहित स्थिति क्या है?

“एक सर्वशक्तिमान पूर्ण परमात्मा जो हर कण मे व्याप्त है” इस सत्य को जीवन मे होने वाली हर घटना, चारों तरफ़ मौजूद हर चीज़ व हर व्यक्ति मे (व उनके व्यवहार तक मे भी) हर पल महसूस करने का प्रयास करना; यही चित्त या मन का द्वंद्व रहित ठहराव कहलाता है तथा

अपने हृदय के इस बेशकीमती दिव्य-प्रेम भाव को बाहरी वातावरण के प्रभाव से सदैव पूर्णता बचा कर रखना और कभी भी नष्ट न होने देना ही एकाकी भाव कहलाता है।

एकाकी भाव से तात्पर्य है कि ईश्वर की अद्वितीय शक्ति जो सारी सृष्टि को चला रही है; वह परम शक्ति जो हम सब को बहुत प्यार करती है, उससे हम इतना अधिक प्रेम करें की उसके अतिरिक्त हमारे मन में या हृदय में किसी अन्य चीज़, शक्ति या आकर्षण का आभास दृष्टिगोचर न हो।

इस संसार के समस्त जीवों के प्रति करूणा व सहानुभूति का भाव रखें परन्तु प्रेम केवल सबसे अधिक प्रेम के लायक़ एकमात्र पात्र पूर्ण परमातमा से ही करना चाहिये।

आपके हृदय में जितनी अधिक ईश्वर के प्रति प्रेम व उसे पाने की तड़प होगी व जितना अधिक ईश्वर के प्रति समर्पण का भाव होगा उतनी ही अधिक जल्दी आप ईश्वर की मौजूदगी को (अपने हृदय मे बसे ईश्वर पर ध्यान के नियमित अभ्यास की सहायता से) अपने दिल मे तथा साथ ही इस दुनिया की हर चीज़ के दिल में महसूस कर पायेंगे।

यही सारे वेदों व धर्म ग्रन्थों का सत्व है।

ईश्वर पर अटल विश्वास या पूर्ण समर्पण कैसे किया जाता है?

ईश्वर के प्रति समर्पण-जैसेकि एक ग्रामीण, क़ानून को न जानने वाला व्यक्ति भी अपनी टूटी-फूटी भाषा में, अपनी सारी स्थिति वकील को सुना देता है व वकालतनामे पर हस्ताक्षर करने के बाद अपने पूरे मामले को वकील पर पूरा भरोसा कर के छोड़ देता है और स्वयं चिन्ता-मुक्त हो जाता है।

क्योंकि उसे विश्वास है कि क़ानून सम्बन्धी उसकी जानकारी कुछ भी नहीं है, अत: वह स्वयं पैरवी नहीं कर सकता। वो चिन्तामुक्त हो कर, वकील पर पूरा भरोसा करता है कि वह जो चाहे या जैसा ठीक समझे करे।

इसी प्रकार हम सभी का असली पालन-पोषण करने वाला मात्र ईश्वर ही है। और वही सच्चे अर्थ में हमारा वकील है। जो मनुष्य सच्चे हृदय से ईश्वर को अपना वकील समझता है वो शान्त रहता है।

अपने इस पूर्ण परमात्मा रूपी वकील के भरोसे अपना मान-सम्मान, जान-माल इत्यादि सब कुछ छोड़ देना एवं स्वयं चिन्तामुक्त हो जाना, यही सही अर्थ मे समर्पण है।

मानव अपनी जीविका की चिन्ता में दिन-रात बावला रहता है और समझता है कि वह स्वयं ही इसकी व्यवस्था कर सकता है ओर ईश्वर को भूल जाता है।

गीता के 2:48 श्लोक मे श्री कृष्ण ने कहा है:

हे अर्जुन! मनुष्य को संसार की चीज़ों के प्रति आसक्ति छोड़ कर सफलता (सिद्धी) व असफलता (असिद्धी) दोनों परिस्थितियों मे समान रूप से रहने के लिये पूर्ण परमातमा के प्रेम के भाव मे स्वयं को स्थापित करना चाहिये। ईश्वर के प्रति प्रेम भाव मे डूबे रह कर (समत्व की अवस्था) सभी कार्य करना ही योग कहलाता है।

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