अर्पण | Arpan Short story in hindi | अर्पण का अर्थ

अर्पण का अर्थ: कहानी

अर्पण-अपने को बिना शर्त भगवान् को अर्पण करे। लोग कहते हैं कि अर्पण तो होता नहीं है। इसका सीधा उत्तर है, भले ही कोई माने या न माने कि हम अर्पण करना चाहते ही नहीं हैं।

एक मदनमोहनजी शास्त्री थे। वे बड़े विद्वान् थे और विनोदी स्वभाव के थे। उन्होंने एक बड़ी दिल्लगी की बात कही। उन्होंने कहा-एक पण्डितजी थे। वे किसी गाँव में कथा कहने गये। वे बड़ी सुन्दर-सुन्दर बातें कहने लगे जिससे लोग बड़े प्रभावित हुए। लोग आकर उन्हें पैसा देने लगे। उन्होंने कहा-नहीं, मैं पैसा नहीं लेता। 

तब पैसा देने वालों ने सोचा कि ये लेते तो हैं नहीं तो इनको रुपया दे दो। लोग कहेंगे कि वह रुपया दे रहा था। उनको रुपया दिया तो नहीं लिये, दस-बीस रुपया दिया तो नहीं लिये। सौ-पचास रुपया दिया तो भी नहीं लिये। फिर, गाँव में यह बात फैल गयी कि पण्डितजी महाराज बड़े निर्लोभी हैं। कोई कुछ दे तो लेते नहीं हैं।

 एक सेठजीने सोचा कि पण्डितजी लेते तो हैं नहीं, तो अपने को बड़ा आदमी बनने में क्या हर्ज है। यह पुराने जमाने की बात है। आज तो हजार रुपये कुछ नहीं है परन्तु उस समय बहुत बड़ी रकम थी। सेठजी एक हजार की थैली लेकर गये और बोले–महाराज ! इसको ले लीजिये।

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पंडितजी ने कहा नहीं, मैं इसे नहीं लूँगा। सेठजी ने फिर आग्रह किया तो पण्डितजी ने रोषपूर्वक कहा- नहीं, मुझे रुपया दिखाते हो ? उसने कहा-महाराज ! लेना पड़ेगा। इन्होंने फिर मना कर दिया। सेठजी ने फिर आग्रह किया कि इसे ले लीजिये तब उन्होंने अपने शिष्य को बुलाया और कहा-देखो, यह बड़ा आग्रह कर रहा है। चलो, आज व्रत भी टूटे तब भी इसे ले लो। अब तो सेठजी का मुँह सूख गया। वह एक पैसा नहीं देना चाहता था और बेचारा लुट गया।

उसी तरह हम लोग भी भगवान् से ले लो, ले लो कहते हैं परन्तु देना चाहते नहीं हैं। कहते हैं—महाराज ! ले लो, सब आपका हैं। यह आपका वह आपका हम आपके हैं। यदि भगवान् बोलें-जरा, मुझे दे दो तो। तब हम ऐसा नहीं करेंगे। हम विशुद्ध मन से नहीं कहते हैं।

“जय जय श्री राधे”

 विष्णु अर्पण | hindi dharmik katha | hindi prerak prasang | moral stories |

 

क्या फर्क है अर्पण और समर्पण में ?

अर्पण और समर्पण के साथ तर्पण को भी समझ लिया जाए ये बड़ा उचित रहेगा ।

पहले मैं ज्ञान भाव से बता रही हूं , बाद में यही बात भक्ति भाव से बताउंगी।

भारतीय संस्कृति को यदि हम केवल तीन शब्दों में कहना या बताना चाहुं तो इसका मतलब अर्पण, तर्पण और समर्पण है ।

इन तीनों में ही त्याग की भावना है।

यह त्याग समाज के लिए कर्तव्यरूप है, उपकाररूप नहीं।

हम किसी पर उपकार नही करते, बल्कि यह हमारा कर्तव्यरूप है।

हमारे द्वारा किया गया यह त्याग ही अर्पण कहलाता है।

पितरों के लिए, माता पिता के लिए किया गया त्याग तर्पण कहलाता है।

भगवान के लिए किया गया त्याग समर्पण कहलाता है।

हमारा कर्तव्य है कि जिस समाज में हम रह रहे हैं, उस समाज के लिए कुछ करें।

  • कर्तव्य वह कर्म है जिसको करने से पुण्य नहीं मिलता। लेकिन ना करने से पाप जरूर लगता है।
  • इसे भक्ति भाव से बांके बिहारी के संदर्भ से समझना ज्यादा उचित रहेगा ।

    अर्पण और समर्पण में केवल इतना ही अंतर होता है कि..

    यदि आप केवल भगवान का ध्यान या भजन करेंगे तो यह अर्पण का भाव है।

    और अगर आप अपना काम (कर्म) करते हुए राधे जी (भजन) का नाम लेंगे तो यह समर्पण का भाव है।

    अर्पण में आप भगवान की खोज में मंदिर जाएंगे और समर्पण में मंदिर में बैठे हुए बाँके बिहारी आपके साथ आपके घर आएँगे..।

सच्चा समर्पण क्या है?

समर्पण का अर्थ है सम + अर्पण = समर्पण का अर्थ हुआ अपने मन का अर्पण कर देना। समर्पण का मतलब चाहतें, आकांक्षाएँ, इच्छाओं का परित्याग। समर्पण का मतलब है, अपने अहंकार का त्याग कर जिसके समक्ष हमनें समर्पण किया है उसके कहे अनुसार जीवन गुज़र करना। आत्मसमर्पण का भी आध्यात्म में यही अर्थ है कि अपनी आत्मा का समर्पण कर देना।

यह कह देना जितना आसान है उतना ही मुश्किल है। मनुष्य में परमात्मा के प्रति भी समर्पण का भाव बहुत दुर्लभ होता है, गुरु के प्रति समर्पण भाव भी दुर्लभ होता है, पत्नी का पति के प्रति, पति का पत्नी के प्रति , पुत्र का माता – पिता के प्रति, भी समर्पण हो पाना बहुत दुर्लभ होता है।

सारी उम्र हम अपने अहंकार को नहीं छोड़ पाते। हम दूसरों को बिना लोभ कुछ अर्पण भी नहीं कर पाते। भगवान् को भी कुछ पाने की लालसा से ही प्रसाद चढाते हैं, लालसा पूर्ण नहीं होती तो भगवान् बदल लेते हैं। जबकि भगवान् तो एक ही है|

हम तो भगवान् से भी छुपाते फिरते हैं। गुरु से छुपा कर रख पाना हर किसी के लिए संभव नहीं हो पाता है। क्योंकि, समर्पण का अर्थ है मेरे “मैं” की मृत्यु और तेरे “तू” का जन्म। अर्थात मेरा व्यक्तित्व अब मेरा नहीं रहा वह मेरे गुरु का या मेरे परमात्मा का हो गया।

सरल शब्दों में समर्पण का अर्थ है अपने आपको मन व बुद्धि से पूर्णरूपेण किसी ऐसे ईष्ट को नि:स्वार्थपूर्वक सौंप देना, जिस पर पूर्ण श्रद्धा व विश्वास हो अथवा बिना किसी तर्क व संदेह किए बराबर किसी भी उपयोग हेतु ज्यों का त्यों स्वयं को किसी के हवाले कर देना। समर्पण में संदेह व तर्क की कोई गुंजाइश नहीं होती। जिसको समर्पण किया जाता है यदि उस पर संदेह व स्वार्थ है तो वहां समर्पण नहीं होता, बल्कि वह केवल नाम मात्र दिखावा है जो सच्चे समर्पण से कोसों दूर होता है।

समर्पण में छल छिद्र व कपट का कोई स्थान नहीं होता। रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने जैसे संकेत भी दिया है कि भगवान को छलिया, छिद्रान्वेषी बिलकुल भी पसंद नहीं हैं क्योंकि ये विकार समर्पण में बाधक हैं। समर्पण ठीक वैसे ही है जैसे एक कन्या विवाह के बाद अपने पति के प्रति समर्पित हो जाती है। माता-पिता का मोह छोड़कर वह अपना सब कुछ पति को ही मानती है। पति पर उसका पूर्ण विश्वास होता है। पति पर पूर्ण विश्वास ही उसके लिए जीवन का एक अर्थ है।

समर्पण में श्रद्धा का महत्व ज्यादा होता है। जिस पर श्रद्धा होती है, उसी पर समर्पण होता है। जिस पर श्रद्धा नहीं होती, उस पर समर्पण भी नहीं होता। जब श्रद्धा किसी व्यक्ति पर होती है और उसके प्रति समर्पण होता है तो समर्पण करने वाले को विशेष सुख मिलता है। जब श्रद्धा भगवान के प्रति होती है और व्यक्ति भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण कर देता है तो उसे विशेष आनंद मिलता है। इसीलिए योगी आदमी भगवान से योग लगाते हैं और अपने आप को पूर्ण समर्पित कर देते हैं तो वे सुख, शांति और परमात्मा का आनंद लेते हैं।

समर्पण क्यों करना चाहिए?

क्योंकि जब तक समर्पण नहीं होता, तब तक सच्चा सुख नहीं मिलता। सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए समर्पण किया जाता है। समर्पण यदि कपटपूर्ण है तो सुख भी दिखावा मात्र ही होगा। समर्पण से ही परमात्मा सहाय बनते हैं। मीरा ने समर्पण यह कहकर कि ‘मेरो तो गिरधर गोपाल बस दूसरो न कोई’ किया तो मीरा को पिलाया जाने वाला जहर परमात्मा ने अमृत में बदल दिया।

द्रौपदी ने हार थक कर जब अंत में केवल और केवल श्रीकृष्ण को समर्पण किया तो भगवान श्रीकृष्ण ने उनका चीर हरण नहीं होने दिया और द्रौपदी की लाज की रक्षा की। द्रौपदी का कुछ काम नहीं आया। काम आया केवल भगवान के प्रति समर्पण।

राजा जनक ने अष्टावक्र ऋषि के प्रति समर्पण किया तो राजा जनक को तत्क्षण ज्ञान हो गया। रामकृष्ण परमहंस के प्रति बालक नरेंद्र का, जो कि बाद में स्वामी विवेकानंद के नाम से जाने गए, समर्पण हुआ तो काली मां उनके हृदय में प्रकट हो गई। महात्मा बुद्ध को कोई भी शास्त्र बुद्ध न बना पाया। अंत में बालक सिद्धार्थ परम सत्ता के प्रति एक वट वृक्ष के नीचे बैठे पूर्णरूपेण समर्पित हुए तो वे तत्क्षण बुद्ध हो गए और यही बालक सिद्धार्थ कालांतर में महात्मा बुद्ध कहलाए

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