अयोग्य व्यक्ति की सफलता का रहस्य
राधे राधे 🙏🙏
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Toggleअयोग्य को सफलता और योग्य को असफलता क्यों मिलती है ?
अयोग्य व्यक्ति की सफलता का रहस्य
अयोग्य व्यक्ति को सफल होते हुए और योग्य व्यक्ति को असफल होते हुए देखना कई बार मन को विचलित कर देता है। लेकिन इसका कारण उसके पूर्व जन्म के पाप और पुण्य होते हैं। जैसे कोई व्यक्ति बहुत पढ़ा-लिखा है, ग्रेजुएट है, बुद्धिमान है, बड़ा प्रवीण भी है, फिर भी वह असफल है। उसकी डिग्री और बौद्धिकता किसी काम में नहीं आ रही क्योंकि उसका पूर्व का पाप रूपी प्रारब्ध उसे रौंद रहा है।
दूसरी ओर, कई बार ऐसा देखने में आता है कि कोई न ज्यादा पढ़ा-लिखा है, न ही बहुत बुद्धिमान, फिर भी सफलता उसके कदम चूमती है। इसका कारण उसका पूर्व जन्म का पुण्य होता है। उसका पुण्य प्रताप उसे भोग भोगा रहा है और सफलता दिला रहा है। इसलिए पाप और पुण्य के प्रारब्ध के कारण कभी-कभी अच्छे व्यक्ति को दुख में और पापी व्यक्ति को सुख में देख कर समाज भ्रमित हो जाता है।
परंतु जिसे शास्त्रों का बोध है, वह जानता है कि वर्तमान में जो व्यक्ति पाप कर रहा है, उसे पूर्व के पुण्य का साथ मिल रहा है। लेकिन जिस दिन उसका पुण्य समाप्त होगा और वर्तमान का पाप, साथ ही पूर्व का पाप मिल जाएगा, उसी दिन उसका सर्वनाश हो जाएगा। वह जड़ समेत नष्ट हो जाएगा।
इसलिए धर्म और पुण्य का फल होता है सुख, शांति और आनंद, जबकि पाप और अधर्म का फल होता है दुख, अशांति और नाना प्रकार की चिंताएं। इसीलिए हमें धर्म के मार्ग पर चलना चाहिए, पुण्य कार्य करना चाहिए, भगवत कार्य करना चाहिए, ताकि हमें जीवन में शांति, आनंद और सुख प्राप्त हो सके।

अगर ईश्वर और आत्मा दोनों ही कर्म नहीं करते, तो कर्म कौन करता है?
ब्रह्म और भ्रम — यह सारा संसार भ्रम में डूबा हुआ है। जैसे स्वप्न में हम अनेक अनुभव करते हैं — आना-जाना, खाना-पीना, हँसना-रोना, लड़ाई-झगड़ा — लेकिन जब नींद खुलती है तो हमें लगता है कि वो तो एक स्वप्न था, भ्रम था, सत्य नहीं था। उसी प्रकार यह संसार भी एक स्वप्न के समान है। स्वप्न में कर्म कौन करता है? न शरीर करता है, क्योंकि वह सैया पर पड़ा होता है, न आत्मा करती है, क्योंकि आत्मा तो केवल प्रकाशक है। फिर कर्म किसका होता है? केवल मन का, केवल कल्पना, केवल मिथ्या।
यही भगवान शंकर ने कहा — “उमा कहूं मैं अनुभव अपना, सत हरि भजन जगत सब सपना।” यह जगत स्वप्नवत है, पर इसका बोध तब होता है जब हम ज्ञान में जागते हैं।

कर्म तीन गुणों — सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण — की प्रेरणा से अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) के माध्यम से होते हैं। आत्मा स्वयं कोई कर्म नहीं करती, वह केवल प्रकाश देती है। माया की प्रेरणा से यह सब संचालित हो रहा है। न आप कर्ता हैं, न ईश्वर कर्ता है, लेकिन भ्रमवश आपने अपने को कर्ता मान लिया है।
जैसे स्वप्न में हम स्वयं को कर्ता मान लेते हैं, पर वह स्वप्न होने के कारण उसका फल नहीं भोगते, वैसे ही जागृत अवस्था में भी यदि हम समझ लें कि कर्ता भाव भ्रम है, तो हम बंधन से बच सकते हैं। लेकिन जब हम कहते हैं — “मैंने खाया, मैंने किया, मैं करूंगा,” तब यही अज्ञान जन्म-मरण का कारण बन जाता है।
अजन्मा और अविनाशी होते हुए भी यह कर्ता भाव हमें मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र में डाल देता है। यही भ्रम है, जो हमें बांध रहा है। इस भ्रम से मुक्ति तभी मिलेगी जब भगवान की कृपा होगी — “जासु कृपा सब भ्रम मिट जाई, गिरिजा सोई कृपालु रघुराई।” इसलिए भगवान का भजन करें, शास्त्रों का स्वाध्याय करें, जिससे बुद्धि में विवेक जागे और कर्ता भाव का यह भ्रम नष्ट हो जाए।
यह भ्रम मूढ़ता, मलिनता और अहंकार से उत्पन्न होता है। जब आत्मा स्वयं को कर्ता मानती है, तब वही अज्ञान जन्म लेता है। “मैंने भोगा, मैं भोगूंगा, मैंने किया, मैं करूंगा”— यह “मैं” ही बंधन का कारण है। जबकि आत्मा को कोई बंधन नहीं है, शरीर जड़ वस्तु है — उसे भी कोई बंधन नहीं। बंधन केवल एक भ्रम है, और इस अज्ञान रूपी भ्रम को ही मिटाना है।
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