अमृत कथा | अमृत ​​वचन | विद्यार्थीयो के लिए 4 प्रेरणादायक कहानियां

प्रभु का चिंतन

अमृत ​​वचन -एक बार संत कबीर से किसी ने पूछा, आप दिन भर कपड़ा बुनते रहते हैं तो भगवान का स्मरण कब करते हैं ?

कबीर उस व्यक्ति को लेकर अपनी झोपड़ी से बाहर आ गए। बोले, यहां खड़े रहो। तुम्हारे सवाल का जवाब सीधे न देकर, मैं उसे दिखा सकता हूं।

कबीर ने दिखाया कि एक औरत पानी की गागर सिर पर रखकर लौट रही थी। उसके चेहरे पर प्रसन्नता और चाल में रफ्तार थी।

उमंग से भरी हुई वह नाचती हुई-सी चली जा रही थी। गागर को उसने पकड़ नहीं रखा था, फिर भी वह पूरी तरह संभली हुई थी।

कबीर ने कहा, उस औरत को देखो। वह जरूर कोई गीत गुनगुना रही है। शायद कोई प्रियजन घर आया होगा। अमृत ​​वचन

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अमृत ​​वचन
                    अमृत ​​वचन

वह प्यासा होगा, उसके लिए वह पानी लेकर जा रही है। मैं तुमसे जानना चाहता हूं कि उसे गागर की याद होगी या नहीं।

कबीर की बात सुनकर उस व्यक्ति ने जवाब दिया, उसे गागर की याद नहीं होती तो अब तक तो गागर नीचे ही गिर चुकी होती।

कबीर बोले, यह साधारण सी औरत सिर पर गागर रखकर रास्ता पार करती है। मजे से गीत गाती है, फिर भी गागर का ख्याल उसके मन में बराबर बना हुआ है।

ठीक उसी प्रकार मुझे परमात्मा का स्मरण करने के लिए अलग से वक्त की जरूरत नहीं है।

मेरी आत्मा हमेशा उसी में लगी रहती है। कपड़ा बुनने के काम में शरीर लगा रहता है और आत्मा प्रभु के चरणों में लीन रहती है।

आत्मा हर समय प्रभु के चिंतन में डूबी रहती है। इसलिए ये हाथ भी आनंदमय होकर कपड़ा बुनते रहते हैं।

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         जय जय श्री राधे 

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भगवद्भक्त कूबा जी

अमृत ​​वचन- राजपूताना के एक गांव में कुम्हार जाति के कूबा जी नाम के भगवद्भक्त रहते थे। वे अपनी पत्नी पुरी के साथ महीने भर में मिट्टी के तीस बर्तन बनाते और उन्हीं को बेचकर जीवन निर्वाह करते थे। धन का लोभ उन्हें नहीं था और वे भगवान् के भजन में अधिक से अधिक समय लगाना चाहते थे। इस विचार से कूबा जी अधिक बर्तन नहीं बनाते थे।

घर आए हुए अतिथियों की सेवा और भगवान् का भजन, बस इन्हीं दो कामों में उनकी रुचि थी। उनका सुंदर नाम केवल राम था। आपने अपनी भक्ति के प्रभाव से अपने कुल का ही नहीं, संसार का भी उद्धार किया। आप साधु-संतों की बड़ी अच्छी सेवा करते थे।

एक बार कूबा जी के गांव में दो सौ साधु पधारे। किसी ने साधुओं का सत्कार नहीं किया और सबने कूबा जी का नाम बताया। आपके घर में सभी संत पधारे और आपने उनका सप्रेम स्वागत-सत्कार किया। परंतु उस दिन घर में अन्न-धन कुछ भी न था। बड़ी भारी आवश्यकता थी, अतः आप कर्ज लेने के लिए चले परंतु किसी महाजन ने कर्ज नहीं दिया।

अमृत ​​वचन
               अमृत ​​वचन

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एक महाजन ने कहा, “यदि मेरा कुआँ खोदने का काम कर दो तो मैं तुम्हारे लिए आवश्यक सारा सामान उधार दे सकता हूँ।”

इस बात को स्वीकार कर आपने प्रतिज्ञा की और आवश्यक अन्न-धन लाए। एकमात्र श्याम सुंदर जिन्हें प्रिय हैं, ऐसे संतों को आपने बड़े प्रेम से भोजन कराया। संतों की सेवा के लिए कुआँ खोदने का कार्य भी प्रसन्नता से मान्य कर लिया। अमृत ​​वचन

अब साधु-संतों की सेवा से अवकाश पाकर श्री केवल राम जी महाजन का कुआँ खोदने लगे। खोदते समय आप तोते की तरह भगवान् के नामों का उच्चारण कर रहे थे। कुआँ खुद गया यह जानकर महाजन और कूबा जी को बड़ी प्रसन्नता हुई। खोदते-खोदते रेतीली जमीन आ गई और चारों ओर से कई हजार मन मिट्टी खिसक कर गिर पड़ी। उसमें श्री केवल रामजी दब गए।

लोगों ने सोचा कि अब इतनी मिट्टी को कैसे हटाया जाए। केवल रामजी तो मर ही गए होंगे, अब मिट्टी को हटाने से भी क्या लाभ! इस प्रकार शोक करते हुए लोग अपने-अपने घरों को चले गए।

कुछ दिन बाद कुछ यात्री उधर से जा रहे थे। रात्रि में उन्होंने उस कुएं वाले स्थान पर ही डेरा डाला। उन्हें भूमि के भीतर से करताल, मृदंग आदि के साथ कीर्तन की ध्वनि सुनाई पड़ी। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। रात भर वे उस ध्वनि को सुनते रहे। सवेरा होने पर उन्होंने गांव वालों को रात की घटना बताई। अब वहाँ जो जाता, जमीन में कान लगाने पर उसी को वह शब्द सुनाई पड़ता।

वहाँ दूर-दूर से लोग आने लगे। समाचार पाकर स्वयं राजा अपने मंत्रियों के साथ आए। भजन की ध्वनि सुनकर और गांव वालों से पूरा इतिहास जानकर उन्होंने धीरे-धीरे मिट्टी हटवाना प्रारंभ किया। अमृत ​​वचन बहुत से लोग लग गए, कुछ घंटों में कुआँ साफ हो गया। लोगों ने देखा कि नीचे निर्मल जल की धारा बह रही है।

जब लोग आपके पास पहुंचे तो उन्होंने भगवान् का नाम “हरे राम, हरे राम राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे” उच्चारण करते सुना। एक ओर आसन पर शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी भगवान् विराजमान थे और उनके सम्मुख हाथ में करताल लिए कूबा जी कीर्तन कर रहे थे, नेत्रों से अश्रुधारा बहाते तन-मन की सुधि भूले नाच रहे थे।

राजा ने यह दिव्य दृश्य देखकर अपना जीवन कृतार्थ माना। अचानक वह भगवान् की मूर्ति अदृश्य हो गई। राजा ने कूबा जी को कुएं से बाहर निकलवाया। सब ने उन महाभागवत की चरण धूलि मस्तक पर चढ़ाई।

कूबा जी घर आए। दूर-दूर से अब लोग कूबा जी के दर्शन करने और उनके उपदेश से लाभ उठाने आने लगे। जहां आप बैठा करते थे, वहां भगवत्कृपा से एक गोल मिहराब सी जगह बन गई थी, जिसके कारण आपका शरीर सुरक्षित था।

लोगों ने देखा कि अधिक दिनों तक झुक कर बैठे रहने से आपकी पीठ में कूबड़ निकल आया है। आपके समीप एक जल से भरा हुआ स्वर्णपात्र रखा था। उसे देखकर लोगों ने श्री केवल राम जी को भगवान् का महान् कृपापात्र समझा। आपकी भक्ति और महिमा को जानकर लोगों ने बहुत सी संपत्ति आपको भेंट की तथा दीन-दुखियों को बांटी।

प्रभु प्रेम

अमृत ​​वचन- आज अधिकांश लोग यह दावा करते मिल जाते हैं कि मैं भगवान का बहुत बड़ा भक्त हूं या फलाना देव से मुझे वर्षों से अटूट प्रेम व लगाव है।

वह यह भी बोल जाते हैं कि मैं भगवान की इतनी भक्ति करता हूं किंतु न मेरी समस्याएं हल हो पा रही हैं ना ही मुझे कोई दैवी अनुभूति ही हो रही है।

प्रेम व भक्ति का दावा करना जितना सरल है वास्तविक प्रेम व भक्ति कर पाना उतना ही कठिन है।

पानी से प्रेम करने का दावा मछली भी करती है और मेढक भी लेकिन पानी से आत्मिक प्रेम मात्र मछली करती है मेढक सिर्फ प्रदर्शन करता है।

कहीं भगवान के प्रति हमारा तुम्हारा प्रेम भी मेढक जैसा तो नहीं

मछली पानी के बिना जीवित नहीं रह पाती किन्तु मेढक पानी के अभाव में महीनों व वर्षों भी जीवित रह सकता है।

जब तक प्रभु को प्राप्त करने का प्रेम तुम्हारे हृदय में इस हद तक ना पैदा हो जाए कि तुम्हारा जीना मुहाल हो जाए तब तक तुम्हारा प्रभु भक्ति और प्रेम का दावा खोखला है।

प्रेम ही प्रभु का विधान है वा प्रेम ही भक्ति है। तुम जीते हो ताकि तुम प्रेम करना सीख लो। तुम प्रेम करते हो ताकि तुम जीना सीख लो।

जब तक ऐसा अखण्ड प्रेम तुम्हारे अंदर पैदा नहीं होगा तुम प्रभु के भक्त या प्रेमी हो ही नहीं सकते।

प्रेम एक दीवानगी है , प्रेम एक सम्मोहन है , प्रेम वह अमृत है जिसे पीने के लिए प्रभु भी अपने भक्त के दीवाने हो उसके आगे पीछे घूमते हैं,

जिस दिन से तुम्हारे दिल में ऐसा प्रेम पैदा हो जाएगा उसी दिन से तुम्हारे जीवन में ना कोई समस्या बचेगी ना ही कोई शिकायत।

ना तुम्हे ये बताने की जरूरत रह जाएगी कि मैं भगवान का बहुत बड़ा भक्त हूं।

प्रेम भक्त और भगवान के बीच का अन्तर समाप्त कर दोनों को एकाकार कर देता है।

आप सभी भक्तों को…

       जय श्री सीताराम जी

प्रभु राम जी की कृपा

गुरु-शिष्य के प्रेरक प्रसंग:श्री अयोध्या जी में ‘कनक भवन’ एवं ‘हनुमानगढ़ी’ के बीच में एक आश्रम है जिसे ‘बड़ी जगह’ अथवा ‘दशरथ महल’ के नाम से जाना जाता है।

काफी पहले वहाँ एक संत रहते थे जिनका नाम था श्री रामप्रसाद जी। उस समय अयोध्या जी में इतनी भीड़-भाड़ नहीं होती थी। ज्यादा लोग नहीं आते थे। श्री रामप्रसाद जी ही उस समय बड़ी जगह के कर्ता-धर्ता थे।

वहाँ बड़ी जगह में मंदिर है जिसमें पत्नियों सहित चारों भाई (श्री राम, श्री लक्ष्मण, श्री भरत एवं श्री शत्रुघ्न जी) एवं हनुमान जी की सेवा होती है। चूंकि सब के सब फक्कड़ संत थे, तो नित्य मंदिर में जो भी थोड़ा बहुत चढ़ावा आता था, उसी से मंदिर एवं आश्रम का खर्च चला करता था।

प्रतिदिन मंदिर में आने वाला सारा चढ़ावा एक बनिए को (जिसका नाम था पलटू बनिया) भिजवाया जाता था। उसी धन से थोड़ा बहुत जो भी राशन आता था, उसी का भोग-प्रसाद बनकर भगवान को भोग लगता था और जो भी संत आश्रम में रहते थे, वे खाते थे।

एक बार प्रभु की ऐसी लीला हुई कि मंदिर में कुछ चढ़ावा आया ही नहीं। अब इन साधुओं के पास कुछ जोड़ा गांठा तो था नहीं, तो क्या किया जाए? कोई उपाय न देखकर श्री रामप्रसाद जी ने दो साधुओं को पलटू बनिया के पास भेजकर कहलवाया कि भइया, आज तो कुछ चढ़ावा आया नहीं है, अतः थोड़ा सा राशन उधार दे दो, कम से कम भगवान को भोग तो लग ही जाए।

पलटू बनिया ने जब यह सुना तो उसने यह कहकर मना कर दिया कि मेरा और महंत जी का लेना-देना तो नकद का है, मैं उधार में कुछ नहीं दे पाऊँगा।

श्री रामप्रसाद जी को जब यह पता चला तो “जैसी भगवान की इच्छा” कहकर उन्होंने भगवान को उस दिन जल का ही भोग लगा दिया। सारे साधु भी जल पीकर रह गए। प्रभु की ऐसी परीक्षा थी कि रात्रि में भी जल का ही भोग लगा और सारे साधु भी जल पीकर भूखे ही सोए।

वहाँ मंदिर में नियम था कि शयन कराते समय भगवान को एक बड़ा सुंदर पीताम्बर ओढ़ाया जाता था तथा शयन आरती के बाद श्री रामप्रसाद जी नित्य करीब एक घंटा बैठकर भगवान को भजन सुनाते थे।

पूरे दिन के भूखे रामप्रसाद जी बैठे भजन गाते रहे और नियम पूरा करके सोने चले गए। धीरे-धीरे रात बीतने लगी। करीब आधी रात को पलटू बनिया के घर का दरवाजा किसी ने खटखटाया।

वो बनिया घबरा गया कि इतनी रात को कौन आ गया। जब आवाज सुनी तो पता चला कुछ बच्चे दरवाजे पर शोर मचा रहे हैं, ‘अरे पलटू… पलटू सेठ… अरे दरवाजा खोल…’ उसने हड़बड़ाकर खीझते हुए दरवाजा खोला।

सोचा कि जरूर ये बच्चे शरारत कर रहे होंगे, अभी इनकी अच्छे से डांट लगाऊँगा। जब उसने दरवाजा खोला तो देखता है कि चार लड़के जिनकी अवस्था बारह वर्ष से भी कम की होगी, एक पीताम्बर ओढ़ कर खड़े हैं।

वे चारों लड़के एक ही पीताम्बर ओढ़े थे। उनकी छवि इतनी मोहक, इतनी लुभावनी थी कि ना चाहते हुए भी पलटू का सारा क्रोध प्रेम में परिवर्तित हो गया और वह आश्चर्य से पूछने लगा, ‘बच्चों! तुम हो कौन और इतनी रात को क्यों शोर मचा रहे हो?’

बिना कुछ कहे बच्चे घर में घुस आए और बोले, ‘हमें रामप्रसाद बाबा ने भेजा है। ये जो पीताम्बर हम ओढ़े हैं, इसका कोना खोलो, इसमें सोलह सौ रुपए हैं, निकालो और गिनो।’

ये वो समय था जब आना और पैसा चलता था। सोलह सौ उस समय बहुत बड़ी रकम हुआ करते थे। जल्दी-जल्दी पलटू ने उस पीताम्बर का कोना खोला तो उसमें सचमुच चांदी के सोलह सौ सिक्के निकले।

प्रश्न भरी दृष्टि से पलटू बनिया उन बच्चों को देखने लगा। तब बच्चों ने कहा, ‘इन पैसों का राशन कल सुबह आश्रम भिजवा देना।’

अब पलटू बनिया को थोड़ी शर्म आई, ‘हाय! आज मैंने राशन नहीं दिया, लगता है महंत जी नाराज हो गए हैं, इसीलिए रात में ही इतने सारे पैसे भिजवा दिए।’

पश्चाताप, संकोच और प्रेम के साथ उसने हाथ जोड़कर कहा, ‘बच्चों! मेरी पूरी दुकान भी उठाकर मैं महंत जी को दे दूँगा तो भी ये पैसे ज्यादा ही बैठेंगे। इतने मूल्य का सामान देते-देते तो मुझे पता नहीं कितना समय लग जाएगा।’

बच्चों ने कहा, ‘ठीक है, आप एक साथ मत दीजिए, थोड़ा-थोड़ा करके अब से नित्य ही सुबह-सुबह आश्रम भिजवा दिया कीजिएगा, आज के बाद कभी भी राशन के लिए मना मत कीजिएगा।’

पलटू बनिया तो मारे शर्म के जमीन में गड़ा जाए। वो फिर हाथ जोड़कर बोला, ‘जैसी महंत जी की आज्ञा।’

इतना कह-सुनकर वे बच्चे चले गए, लेकिन जाते-जाते पलटू बनिया का मन भी ले गए।

इधर सवेरे-सवेरे मंगला आरती के लिए जब पुजारी जी ने मंदिर के पट खोले तो देखा भगवान का पीताम्बर गायब है। उन्होंने ये बात रामप्रसाद जी को बताई और सबको लगा कि कोई रात में पीताम्बर चुरा के ले गया।

जब थोड़ा दिन चढ़ा तो गाड़ी में ढेर सारा सामान लदवाकर कृतज्ञता के साथ हाथ जोड़े हुए पलटू बनिया आया और सीधा रामप्रसाद जी के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा।

रामप्रसाद जी को तो कुछ पता ही नहीं था। वे पूछें, ‘क्या हुआ? अरे किस बात की माफी मांग रहा है?’

पर पलटू बनिया उठे ही ना और कहे, ‘महाराज, रात में पैसे भिजवाने की क्या आवश्यकता थी? मैं कान पकड़ता हूँ, आज के बाद कभी भी राशन के लिए मना नहीं करूँगा। और ये रहा आपका पीताम्बर, वो बच्चे मेरे यहाँ ही छोड़ गए थे। बड़े प्यारे बच्चे थे, इतनी रात को बेचारे पैसे लेकर आ भी गये। आप बुरा ना मानें तो मैं एक बार उन बालकों को फिर से देखना चाहता हूँ।’

जब रामप्रसाद जी ने वो पीताम्बर देखा तो पता चला ये तो हमारे मंदिर का ही है जो गायब हो गया था। अब वो पूछें कि ‘ये तुम्हारे पास कैसे आया?’ तब उस बनिया ने रात वाली पूरी घटना सुनाई।

अब तो रामप्रसाद जी भागे जल्दी से और सीधा मंदिर जाकर भगवान के पैरों में पड़कर रोने लगे कि, ‘हे भक्तवत्सल! मेरे कारण आपको आधी रात में इतना कष्ट उठाना पड़ा और कष्ट उठाया सो उठाया, मैंने जीवन भर आपकी सेवा की, मुझे तो दर्शन ना हुआ, और इस बनिए को आधी रात में दर्शन देने पहुँच गए।’

जब पलटू बनिया को पूरी बात पता चली तो उसका हृदय भी धक् से होके रह गया कि जिन्हें मैं साधारण बालक समझ बैठा वे तो त्रिभुवन के नाथ थे, अरे मैं तो चरण भी न छू पाया। अब तो वे दोनों ही लोग बैठकर रोएँ। इसके बाद कभी भी आश्रम में राशन की कमी नहीं हुई।

आज तक वहाँ संत सेवा होती आ रही है। इस घटना के बाद ही पलटू बनिया को वैराग्य हो गया और यह पलटू बनिया ही बाद में श्री पलटूदास जी के नाम से विख्यात हुए।

श्री रामप्रसाद जी की व्याकुलता उस दिन हर क्षण के साथ बढ़ती ही जाए और रात में शयन के समय जब वे भजन गाने बैठे तो मूर्छित होकर गिर गए। संसार के लिए तो वे मूर्छित थे किन्तु मूर्च्छावस्था में ही उन्हें पत्नियों सहित चारों भाइयों का दर्शन हुआ, और उसी दर्शन में श्री जानकी जी ने उनके आँसू पोंछे तथा अपनी ऊँगली से इनके माथे पर बिन्दी लगाई जिसे फिर सदैव इन्होंने अपने मस्तक पर धारण करके रखा। उसी के बाद से इनके आश्रम में बिन्दी वाले तिलक का प्रचलन हुआ।

वास्तव में प्रभु चाहें तो ये अभाव, ये कष्ट भक्तों के जीवन में कभी ना आएं, परन्तु प्रभु जानबूझकर इन्हें भेजते हैं ताकि इन लीलाओं के माध्यम से ही जो अविश्वासी जीव हैं, वे सतर्क हो जाएं, उनके हृदय में

विश्वास उत्पन्न हो सके।

जैसे प्रभु ने आकर उनके कष्ट का निवारण किया, वैसे ही हमारा भी कर दे!

श्री रामप्रसाद जी की इस कथा के माध्यम से यह भी सिखने को मिलता है कि सच्चे भक्त को कभी निराश नहीं होना चाहिए। भगवान अपने भक्तों की परीक्षा लेते हैं, परंतु अंत में उनकी सहायता भी करते हैं। पलटू बनिया का हृदय परिवर्तन भी इस बात का प्रमाण है कि प्रभु अपने भक्तों के प्रति कितने संवेदनशील और दयालु होते हैं।

पलटू बनिया, जो कभी केवल धन के पीछे भागता था, इस घटना के बाद श्री पलटूदास जी के नाम से प्रसिद्ध हुआ और अपनी पूरी ज़िन्दगी प्रभु सेवा और भक्ति में समर्पित कर दी। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रभु की कृपा से एक साधारण व्यक्ति भी महान भक्त बन सकता है।

इस प्रकार की घटनाएं हमें यह विश्वास दिलाती हैं कि कठिनाइयों में भी हमें धैर्य और श्रद्धा बनाए रखनी चाहिए। प्रभु राम की कृपा से ही सब कष्टों का निवारण होता है और हमें उनके प्रति अपनी भक्ति और प्रेम में कभी कमी नहीं आने देनी चाहिए।

**जय श्री राम**

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**जय जय श्री राधे!**
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