Shri Krishna aur Arjun yudha-अर्जुन श्रीकृष्ण के कितने बड़े भक्त थे ये बताने की आवश्यकता नहीं। किन्तु भागवत में हमें एक ऐसी कथा का वर्णन मिलता है जब अर्जुन को श्रीकृष्ण से युद्ध करना पड़ा था। ये कथा महाभारत युद्ध के बाद की है इसीलिए मूल महाभारत में इसका कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु लोक कथाओं में ये बहुत प्रचलित है।
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अर्जुन का भगवान कृष्ण से महाप्रलयंकारी युद्ध! | Shri Krishna aur Arjun yudha
एक बार महर्षि गालव सूर्य को अर्ध्य दे रहे थे। उसी समय चित्रसेन गन्धर्व आकाश मार्ग से जा रहे थे जिन्होंने नीचे थूक दिया।उन्हें जरा भी अंदेशा ना था कि नीचे कौन है। वह पीक सीधे महर्षि गालव की अंजुलि में गिरी जिससे उनकी साधना अपवित्र हो गयी।ये देख कर उन्हें बड़ा क्रोध आया और उन्होंने अपने तपोबल से जान लिया कि ये कार्य चित्रसेन का है।
वो उसे श्राप देना ही चाहते थे किन्तु तपोबल के क्षीण हो जाने के कारण उन्होंने ऐसा नहीं किया। किन्तु उनका क्रोध शांत नहीं हुआ और वे श्रीकृष्ण से मिलने द्वारिका पहुंचे। श्रीकृष्ण ने उनकी बड़ी आव-भगत की और ब्राह्मण पर हुए इस पाप कर्म को सुन कर उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली कि आठ प्रहर के अंदर वे चित्रसेन का वध कर देंगे।
प्रतिज्ञा और वो भी श्रीकृष्ण की! अब भला महर्षि गालव को क्या चिंता होती। वे निश्चिंत हो उस दिन द्वारिका में ही रुक गए। उसी समय देवर्षि नारद भी श्रीकृष्ण से मिलने पहुंचे और श्रीकृष्ण के मुख पर विषाद की छाया देख कर उन्होंने इसका कारण पूछा। श्रीकृष्ण ने उन्हें सारी बात बताई। देवर्षि को कौतुक सूझा। वे समझ गए कि प्रभु लीला दिखाना चाहते हैं किन्तु उन्होंने उस लीला को और रोचक बनाने का निश्चय किया और श्रीकृष्ण से विदा लेकर चित्रसेन के पास पहुंचे।
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उस समय चित्रसेन भिक्षुकों को दान दे रहे थे। देवर्षि ने हास्य में ही उनसे कहा कि तुम ये अति उत्तम कर्म कर रहे हो क्यूंकि मृत्यु से पूर्व दान दक्षिणा देना अति पुण्य का कार्य है। उनकी ये बात सुनकर चित्रसेन डर गए और उनसे इसका कारण पूछा। तब देवर्षि ने उन्हें बताया कि श्रीकृष्ण ने आठ प्रहर में तुम्हारे वध की प्रतिज्ञा कर ली है। अब तो त्रिलोक में तुम्हारी रक्षा कोई नहीं कर सकता।
चित्रसेन श्रीकृष्ण का प्रताप जनता था। वो समझ गया कि अब तो उसे कोई शरण नहीं देगा। यहाँ तक कि उनके मित्र देवराज इंद्र भी उनकी सहायता अब नहीं कर सकते। अपनी मृत्यु निश्चित जान कर उसने ब्रह्मा पुत्र नारद की ही शरण ली। उसने कहा “हे देवर्षि! जो कुछ भी हुआ अनजाने में हुआ फिर पता नहीं क्यों प्रभु ने मेरे वध की प्रतिज्ञा क्यों कर ली। अब आप ही कोई उपाय बताएं।”
ये सुनकर देवर्षि ने चित्रसेन से कहा कि “तुम अर्जुन से जाकर सहायता मांगो। वो तुम्हारा शिष्य है। अज्ञातवास के समय तुमने ही बृहन्नला रूपी अर्जुन को नृत्य और संगीत की शिक्षा दी थी। वो अवश्य अपने गुरु की रक्षा करेगा।”
तब चित्रसेन ने कहा – “हे देवर्षि! अर्जुन अवश्य ही मेरा शिष्य है किन्तु वो श्रीकृष्ण का अनन्य भक्त है। जब उसे पता चलेगा कि श्रीकृष्ण मेरे वध की प्रतिज्ञा कर चुके हैं तो कदाचित वो भी मेरी सहायता ना करे। ये सुनकर देवर्षि ने उन्हें सुभद्रा के पास जाकर उनसे अभय लेने को कहा। उनकी आज्ञा मान कर चित्रसेन यमुना के तट पहुंचा और संध्या वंदन कर रही सुभद्रा को अपना परिचय दिया।
जब सुभद्रा को पता चला कि वे उसके पति के गुरु हैं तो उन्होंने उनका बड़ा सत्कार किया।तब चित्रसेन ने चतुराई से उनसे कहा कि उनके प्राणों पर एक संकट आ पहुंचा है और वे चाहते हैं कि सुभद्रा अर्जुन से कह कर उनके प्राणों की रक्षा करे।
सुभद्रा अर्जुन के बल को जानती थी इसीलिए उसने बिना पूरी बात जाने ही चित्रसेन को उनकी रक्षा का वचन दे दिया। किन्तु जब बाद में उन्हें पता चला कि उनके भाई ने ही उनके वध की प्रतिज्ञा की है तो वे बड़े धर्म संकट में पड़ गयी। किन्तु चूँकि उन्होंने चित्रसेन को वचन दिया था इसीलिए वे उन्हें लेकर अर्जुन के पास आयी।
अर्जुन ने जब अपने गुरु को देखा तो उनकी बड़ी सेवा की। तब सुभद्रा ने अर्जुन से पूरी स्थिति कही और अपने वचन के बारे में भी बताया। अब तो अर्जुन भी धर्म संकट में पड़ गए किन्तु अपनी पत्नी के वचन की रक्षा के लिए उन्होंने भी चित्रसेन को अभय प्रदान किया।
उधर देवर्षि नारद को इस लीला को देख कर बड़ा आनंद हुआ। वे श्रीकृष्ण के पास गए तो श्रीकृष्ण ने उन्हें पूछा कि इस समय चित्रसेन कहाँ है? इस पर देवर्षि ने कहा कि “हे वासुदेव! चित्रसेन इस समय अर्जुन की शरण में है और आपकी बहन सुभद्रा ने उनकी रक्षा का वचन दिया है। अतः आप सोच समझ कर ही युद्ध का निर्णय करें।”
जब श्रीकृष्ण ने ये सुना तो वे भी धर्म संकट में पड़ गए। एक ओर उनका वचन और एक ओर उनकी प्रिय बहन का वचन। फिर भी अपनी प्रतिज्ञा अनुसार वे महर्षि गालव और देवर्षि सहित इंद्रप्रस्थ पहुंचे और उन्होंने देवर्षि से प्रार्थना की कि वे उनके दूत के रूप में अर्जुन के पास जाएँ और उसे समझाने का प्रयास करें।
.श्रीकृष्ण की इच्छा पर देवर्षि अर्जुन के पास पहुंचे और उन्हें समझाने का प्रयास किया। तब अर्जुन ने उन्हें कहा…
“हे देवर्षि! इस संसार में मुझे श्रीकृष्ण से अधिक प्रिय कोई नहीं। मेरा जो भी बल है वो भी उनके के कारण हैं, किन्तु उनके द्वारा ही दिए गए ज्ञान (गीता ज्ञान) के अनुसार मैं कर्म करने को विवश हूँ।
मैं किसी भी स्थिति में शरणागति को नहीं त्याग सकता। वासुदेव स्वयं ज्ञानी हैं, वे जैसा चाहते हैं वैसा ही होगा।” अंततः श्रीकृष्ण और अर्जुन में अपनी-अपनी प्रतिज्ञाओं के कारण भयानक युद्ध छिड़ गया। श्रीकृष्ण से भला कौन जीत सकता था किन्तु अर्जुन भी उन्ही का अंश थे। दोनों का युद्ध बहुत देर तक चलता रहा।
साधारण अस्त्र-शस्त्र की तो क्या बात है, दोनों ने एक दूसरे के दिव्यास्त्र को भी काट दिया। अंत में श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र को मुक्त किया। उसके प्रतिरोध में अर्जुन ने ब्रह्मास्त्र का संधान कर दिया। तीनों लोक ये देख कर त्राहि-त्राहि कर उठे। युद्ध का ऐसा भयानक स्वरुप देख कर स्वयं परमपिता ब्रह्मा को मध्यस्थता के लिए आना पड़ा।
परमपिता को युद्ध क्षेत्र में आया देख कर अर्जुन और श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रणाम किया। तब ब्रह्मदेव ने अर्जुन से ब्रह्मास्त्र वापस लेने को कहा और श्रीकृष्ण से उस युद्ध को समाप्त करने की प्रार्थना की। उन्होंने कहा – “हे कृष्ण! आपकी लीला अब सृष्टि के विनाश का कारण बनने वाली है अतः अब आप कृपा कर इस युद्ध को समाप्त करें।
आप और अर्जुन तो स्वयं नर-नारायण के अवतार हैं फिर विरोध कैसा? अर्जुन मनुष्य होने के कारण अपनी प्रतिज्ञा में जकड़ा हुआ है किन्तु आपको कौन बांध सकता है? आप तो प्रभु हैं, अतः अपनी प्रतिज्ञा से मुक्त होने के लिए पूर्ण स्वतंत्र हैं। अतः अब लीला छोड़िये और इस युद्ध का निवारण कीजिये।”
ब्रह्मा जी की इच्छा सुनकर श्रीकृष्ण अंततः उस युद्ध से विरत हो गए। स्वयं अपनी प्रतिज्ञा तोड़ कर उन्होंने अपने भक्त के प्रतिज्ञा की रक्षा की। उन्होंने अर्जुन को ह्रदय से लगा लिया और उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। सुभद्रा ने भी अपने भ्राता को कोटि-कोटि धन्यवाद कहा। सभी प्रसन्न थे।
किन्तु महर्षि गालव बड़े रुष्ट हुए। उन्होंने कहा कि – “हे प्रभु! आपने तो अच्छा छल किया। किन्तु अब चाहे मेरा तपोबल नष्ट ही हो जाये, चित्रसेन को मैं स्वयं दंड दूंगा। मैं अभी श्राप देकर अर्जुन सहित चित्रसेन को भस्म कर देता हूँ।” ये कह कर उन्होंने अपनी अंजुलि में जल लिया।
तब अपने पति पर संकट आया देख कर सुभद्रा ने कहा – “हे महर्षि! यदि मैं पतिव्रता हूँ और श्रीकृष्ण पर मेरी पूर्ण भक्ति है तो आपका जल भूमि पर ना गिरे।” सुभद्रा के पतिव्रत के प्रभाव से महर्षि गालव के अंजुलि में रखा जल वही स्तंभित हो गया।
ये देख कर गालव सुभद्रा के पतिव्रत को समझ गए और उनका क्रोध शांत हो गया। चित्रसेन ने भी उनसे क्षमा मांगी और कहा कि उनसे जो अपराध हुआ है वो अनजाने में हुआ है। तब महर्षि गालव सभी को आशीर्वाद देकर वापस अपने आश्रम लौट गए और चित्रसेन के प्राणों की रक्षा हुई।
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