Daanveer Karna | दानवीर कर्ण | अनमोल कहानियाँ | ज्ञानवर्धक रोचक कहानियाँ

*पढ़ने से पहले…अपनी आँखें बंद करें…उस पल को याद करे जब आपने किसी को उदार हृदय से उपहार दिया था। किसी को खुश करने के लिए बिना किसी अपेक्षा के उसकी पसंद की कोई वस्तु। श्री कृष्ण और अर्जुन की बहुत ही सुंदर कहानी।

Daanveer Karna | दानवीर कर्ण | अनमोल कहानियाँ

Daanveer Karna-एक बार की बात है, श्री कृष्ण और अर्जुन कहीं जा रहे थे। रास्ते में अर्जुन ने श्री कृष्ण जी से पूछा, “हे प्रभु! एक जिज्ञासा है मेरे मन में, यदि आज्ञा हो तो पूछें?” श्री कृष्ण जी ने कहा, “पूछो अर्जुन।”

तब अर्जुन ने कहा- “मुझे आज तक यह बात समझ नहीं आई कि दान तो मैं भी बहुत करता हूँ, परन्तु सभी लोग कर्ण को ही सबसे बड़ा दानी क्यों कहते हैं?”

यह प्रश्न सुन कर श्री कृष्ण जी मुस्कुराये और बोले, “आज मैं तुम्हारी यह जिज्ञासा अवश्य शान्त करुँगा।”

श्री कृष्ण जी ने पास की ही दो स्थित पहाड़ियों को सोने का बना दिया। इस के पश्चात् वह अर्जुन से बोले कि, “हे अर्जुन! इन दोनों सोने की पहाड़ियों को तुम आस-पास के गाँव वालों में बाँट दो।”

अर्जुन प्रभु से आज्ञा ले कर तुरन्त ही यह काम करने के लिए चल दिया। उस ने सभी गाँव वालों को बुलाया और कहा- “आप लोग पंक्ति बना लें, अब मैं आपको सोना बाँटूंगा।” और अर्जुन ने सोना बाँटना आरम्भ कर दिया।

गाँव वालों ने अर्जुन की बहुत प्रशंसा की। अर्जुन सोने को पहाड़ी में से सोना तोड़ते गए और गाँव वालों को देते गए। लगातार दो दिन और दो रातों तक अर्जुन सोना बाँटते रहे।

उन में अब तक अहंकार आ चुका था। गाँव के लोग वापस आ कर दोबारा से पंक्ति में लगने लगे थे। इतने समय पश्चात अर्जुन बहुत थक चुके थे पर जिस सोने की पहाड़ियों से अर्जुन सोना तोड़ रहे थे, उन दोनों पहाड़ियों के आकार में कुछ भी कमी नहीं आई थी।

उन्होंने श्री कृष्ण जी से कहा, “अब मुझसे यह काम और न हो सकेगा। मुझे थोड़ा विश्राम चाहिए।” प्रभु ने कहा “ठीक है। तुम अब विश्राम करो।” और उन्होंने कर्ण को बुला लिया।

उन्होंने कर्ण से कहा, “तुम इन पहाड़ियों का सोना इन गाँव वालों में बाँट दो।” कर्ण तुरन्त सोना बाँटने चल दिये। उन्होंने गाँव वालों को बुलाया और उनसे कहा, “यह सोना आप लोगों का है, जिसको जितना सोना चाहिए वह यहाँ से ले जाये।” ऐसा कह कर कर्ण वहाँ से चले गए।

अर्जुन बोले कि, “ऐसा विचार मेरे मन में क्यों नहीं आया?” इस पर श्री कृष्ण जी ने उत्तर दिया कि, “तुम्हें सोने से मोह हो गया था। तुम स्वयं यह निर्णय कर रहे थे, कि किस गाँव वाले को कितनी आवश्यकता है? उतना ही सोना तुम पहाड़ी में से खोद कर उन्हें दे रहे थे।

तुम में दाता होने का भाव आ गया था। दूसरी ओर कर्ण ने ऐसा नहीं किया। वह सारा सोना गाँव वालों को देकर वहाँ से चले गए। वह नहीं चाहते थे कि उनके सामने कोई उन की जय जयकार करे या प्रशंसा करे। उनके पीठ पीछे भी लोग क्या कहते हैं, उससे उनको कोई अन्तर नहीं पड़ता।”

अर्जुन को अपने प्रश्न का बहुत ही सुंदर जवाब मिला।

दान या मदद के बदले धन्यावाद या प्रशंसा की अपेक्षा करना, उसे मात्र एक सौदा/व्यापार बना देगा। यदि हम कोई सहायता या दान करते हैं, हमें उसके बदले किसी प्रतिफल की आशा नहीं रखनी चाहिए।

*”एक दयालु हृदय दूसरों के बारे में पहले सोचता है। दूसरों की सहायता करते वक़्त, चाहे वो अजनबी ही क्यूँ न हों, वह खुद को होने वाली असुविधा या त्याग के बारे में नहीं सोचता है क्योंकि, दूसरों की सहायता करना अपने असली स्वभाव के प्रति सच्चा होना मात्र है।”*

 

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