Bheeshm ke swarnim teer
भीष्म के स्वर्णिम तीर भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान था। उन्हें कोई भी उनकी इच्छा के विरुद्ध नहीं मार सकता था। परंतु एक सच्चाई ऐसी भी है। जिसके बारे में किसी को कुछ ज्ञात नहीं ।महाभारत के समय एक ऐसा क्षण भी आया था। जब भीष्म पितामह को अपनी राजभक्ति की परीक्षा देनी पड़ी और उन्होंने पांच ऐसे सोने के तीर अभिमंत्रित किए, जिससे किसी को भी पराजित किया जा सकता था।
आखिर वह कौन सी दुविधा थी? वह कौन सी परीक्षा थी? दुर्योधन ने भीष्म पितामह पर ऐसा कौन सा आरोप लगाया और क्यों भीष्म पितामह ने महाभारत के दौरान उन पांचो तीरों का इस्तेमाल नहीं किया? आखिर इसके पीछे क्या कारण था? जिसके कारण उन्हें मजबूरन पांच ऐसे सोने के तीर अभिमंत्रित करने पड़े।
बहुत समय पहले की बात है। महाभारत युद्ध के समय भीष्म पितामह कई दिनों तक युद्ध करते रहे और अपनी राजभक्ति की परीक्षा देते रहे। परंतु एक समय ऐसा भी आया, जब दुर्योधन को पितामह की राजभक्ति पर शक होने लगा। कौरवों की सेना पराजित हो रही थी। पांडव अपनी छोटी सी सेना के बावजूद कौरवों की विशाल सेना पर भारी पड़ रहे थे। जिससे दुर्योधन को यह शक था कि भीष्म पितामह अपनी पूरी ताकत और शक्ति से युद्ध नहीं लड़ रहे हैं।
वह पांडवों के प्रति अपने प्रेम के कारण पूरी ताकत से प्रहार नहीं कर रहे। जिस कारण पांडव बच जाते हैं और कौरवों की सेना को पराजित कर देते हैं। अपने मन में ऐसे कई प्रश्न लेकर दुर्योधन भारी मन के साथ रात्रि में पितामह के शिविर में प्रवेश करता है। युद्ध को दो-तीन दिन ही बीते थे और पितामह से दुर्योधन बहुत नाराज था। दुर्योधन ने पितामह को चरण स्पर्श करके प्रणाम किया। पितामह भीष्म ने दुर्योधन के आने का कारण पूछा तो ,दुर्योधन ने बताया, पितामह बहुत दिनों से मैं आपसे मन की एक बात करना चाहता हूं।
मुझे लगता है ,आप पांडव प्रेम के कारण उन पर आत्मघाती प्रहार नहीं कर रहे हैं और दूसरी तरफ कौरवों की सेना पराजित होती जा रही है। दुर्योधन ने कहा कि पितामह मैं आपका राजा हूं और आप मेरे सेनापति है। परंतु आप फिर भी मेरे आदेश का पूरी तरह से पालन नहीं कर रहे हैं। जिसके कारण हम पराजित होते जा रहे हैं। पिताजी ने पूरे युद्ध का कार्यभार मुझे संभाला है और आपको मेरी आज्ञा माननी ही पड़ेगी,आपको गुरु वंश की ओर से युद्ध करना ही पड़ेगा। पांडवों की ओर से नहीं, आपको हमारा साथ देना चाहिए। कौरवों का, ना कि पांडवों का।
परंतु बीते कुछ दिनों में युद्ध के दौरान आपको देखकर यह साफ कहा जा सकता है कि आप पांडवों की ओर से युद्ध लड़ रहे हैं। आप जानबूझकर कोई छति नहीं पहुंचते हैं। वह आपके प्रहार से बहुत आसानी से बच जाते हैं। जब आप पर प्रहार करते हैं तो मानो कोई पिता ,अपने पुत्र पर हंसी खेल में प्रहार कर रहा है। आप जैसा शूरवीर योद्धा और महावीर जो हजारों योद्धाओं को एक साथ हरा सकता है। उसके प्रहार से यह पांडव कैसे बच सकते हैं। भीष्म पितामह मुस्कुराते हैं और दुर्योधन को उसकी गलती का एहसास करते हैं।
वह कहते हैं- दुर्योधन तुम नहीं जानते कि मैंने आजीवन हस्तिनापुर को सुरक्षित रखने का प्रतिज्ञा की है। और मैं तब तक प्राणों का त्याग नहीं करूंगा। जब तक चारों ओर से हस्तिनापुर को सुरक्षित नहीं देख लेता। परंतु फिर भी तुम मेरी निष्ठा पर संदेह करते हो, यह बात उचित नहीं है। युद्ध में हार जीत लगी ही रहती है। पांडवों का पक्ष भी अधिक भारी है। अर्जुन के धनुष की डंकर तुमने सुनी हीं है।अर्जुन जब तीर चलाता है तो वह अचूक होता है। तीनों लोक में हाहाकार मच जाती है। ऐसे लगता है मानो साक्षात ईश्वर उसका साथ दे रहे हैं।
मैं अपनी पूरी क्षमता के साथ युद्ध लड़ रहा हूं। तुम ज्यादा चिंता मत करो, और युद्ध के अंतिम परिणाम का इंतजार करो ,अगर भगवान ने चाहा तो, युद्ध में धर्म की जीत होगी। परंतु तुम्हें विचार करना चाहिए कि धर्म क्या है, और धर्म क्या है। इतना कहकर पितामह चुप हो गए और दुर्योधन पितामहा पर आरोप लगाता जा रहा था। बहुत देर तक वार्तालाप चलती रही और कोई परिणाम नहीं निकल सका ।अपनी निष्ठा का सबूत देने के लिए पितामह ने आवेश में आकर अगले दिन पांडवों को पराजित करने का संकल्प ले लिया।
उन्होंने तुरंत पांच ऐसे सोने के तीर तैयार किए, जिससे पांडवों को पराजित किया जा सकता था। उन्होंने एक-एक करके पांचो सोने के तीरों को मंत्रों से अभिमंत्रित किया। जिससे उनमें ऐसी शक्ति विद्यमान हो गई। जिससे किसी को भी पराजित किया जा सकता था। दुर्योधन बहुत प्रसन्न हुआ और उसे विश्वास हो गया कि अब पितामह पूरी निष्ठा के साथ इस युद्ध को लड़ेंगे और हमारी जीत अवश्य होगी। परंतु फिर भी उसके मन में पितामह के लिए शक था।
वह जानता था कि भीष्म पितामह पांडवों से कितना प्रेम करते हैं और होना हो, वह पांडवों पर प्रहार नहीं करेंगे, हो सकता है उनके मन में फिर से पांडवों के प्रति प्रेम जागृत हो जाए और वह इन तीरों का इस्तेमाल न करें। ऐसी शंकाओं से निजात पाने के लिए दुर्योधन को एक तरकीब सूची। उसने पितामह से अनुरोध किया कि आप आप इन पांचो तीरों को मुझे दे दीजिए। मुझे आप पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं है। मैं यह तीर आपको केवल तभी लौटाऊंगा, जब आप कल युद्ध के लिए तैयार होंगे।
जब तक यह तीर मेरे पास सुरक्षित रहेंगे। पितामह ने दुर्योधन की बात मान ली और उसे तीर ले जाने की इजाजत दे दी। दुर्योधन उन पांचो तीरों को लेकर अपने शिविर में वापस लौट आया और अगले दिन का इंतजार करने लगा।
परंतु जैसा कि सभी जानते हैं।श्री कृष्ण की नजरों से कुछ भी छुप नहीं सकता वह यह बात जानते थे कि दुर्योधन कभी ना कभी पितामह भीष्म की निष्ठा पर शक करेगा और उन्हें पांडवों पर प्रहार करने के लिए मजबूर करेगा। इसलिए उन्होंने दुर्योधन पर कड़ी नजर रखी। अपने गुप्तचरों का एक समूह दुर्योधन के पीछे ही लगा रखा था। श्री कृष्ण को जैसे ही पता चला कि दुर्योधन ने पांडवों की पराजय के लिए पांच सोने के तीर अभिमंत्रित करवाए हैं, तो वह उन तीरों को पाने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थे।
क्योंकि वह यह नहीं चाहते थे कि पांडवों का कुछ भी बुरा हो। इसलिए वह तुरंत अर्जुन के पास पहुंच गए। अर्जुन माधव को अचानक आते देख, कुछ विचलित से हो गए। श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा- हे अर्जुन यह समय सोने का नहीं है। दुर्योधन ने पितामह से ऐसे तीर तैयार करवाए हैं, जो अभेद है। जिनका वार कभी भी खाली नहीं जाता, इसलिए तुम उन तीरों को प्राप्त करने की कोई युक्ति सोचो, वरना पांडवों की पराजय निश्चित है। अर्जुन कहते हैं- हे माधव आपके होते हुए पांडवों की पराजय कैसे हो सकती है।
आप तो सर्वशक्तिमान है। हम सब के रक्षक हैं। बिना आपके परामर्श के हम यह युद्ध नहीं जीत सकते। इसलिए आप ही कोई युक्ति समझाइए और इस मुसीबत से पार होने का मार्ग दिखाइए। श्री कृष्णा कक्ष में इधर से उधर टहल रहे थे और इस मुसीबत से निजात पाने का मार्ग ढूंढ रहे थे। अर्जुन उन्हें देखे जा रहे थे, कि ना जाने कृष्ण के मन में क्या चल रहा था। वह इतना सोच ही रहे थे, कि अचानक श्री कृष्ण को एक युक्ति सूझी।
उन्होंने अर्जुन से कहा कि तुम जाकर दुर्योधन से वह पांचो तीर मांग लो और वह तुम्हें दे देगा ।अर्जुन ने कहा- कैसा मजाक करते हो माधव, हम जाकर सोने के तीर मांगेंगे और दुर्योधन वह तीर हमें चुपचाप देगा ऐसा कैसे हो सकता है? श्री कृष्ण ने कहा ऐसा हो सकता है। अर्जुन याद करो जब तुम्हारे वनवास के समय जब दुर्योधन शिकार के लिए तुम्हारे नजदीक शिविर डालकर बैठा था और तुमने उसकी जान बचाई थी
बात उसे समय की है जब दुर्योधन की कूटनीति के कारण, पांडव वनवास भोग रहे थे ।उसी समय उन्हें चिढ़ाने के लिए मौज मस्ती करने और शिकार करने, दुर्योधन जंगल पहुंच गया और जंगल में ही कुछ दूरी पर शिविर लगाकर, अपनी एक सेना की टुकड़ी के साथ ठहर गया, और मदिरा पान और युवतियों के नृत्य में खो गया। वह इतना मदमस्त हो गया कि उसे कोई सुध ही नहीं थी। टहलते टहलते शिविर से थोड़ा दूर निकल गया।
वहां उसे पानी ले जाती हुई, एक गंधर्व कन्या दिखी। जो नदी से मटके में पानी भरकर ले जा रही थी। वह कन्या अत्यंत सुंदर थी। ऐसी रूप सी नारी को देखकर दुर्योधन का मन विचलित हो गया और वह उसके समीप जाकर वार्तालाप करने लगा। बातचीत करते-करते उसने उस स्त्री का हाथ पकड़ लिया और उसे जबर्दस्ती कंधे पर उठाकर अपने शिविर में ले आया।उसका यह कृत्य जब उस युवती के रिश्तेदारों को पता चला तो लोगों ने दुर्योधन के शिविर पर आक्रमण कर दिया। उन्होंने दुर्योधन के शिविर को चारों तरफ से घेर लिया जाने का कोई रास्ता नहीं था।
दुर्योधन के सिपाही और परिचित लोग अपनी जान बचाकर इधर-उधर भाग गए। उन्होंने दुर्योधन को उसके ही शिविर में बंदी बना दिया और एक खंभे से बांध दिया। युवती का भाई अत्यंत क्रुद्ध में था। वह दुर्योधन के प्राण लेना चाहता था। इतने में ही एक दुर्योधन का सिपाही यह समाचार लेकर पांडवों की कुटिया में आया और महाराज युधिष्ठिर से जाकर अनुरोध किया। महाराज-महाराज आपके भाई दुर्योधन पर गंधर्वों ने हमला कर दिया है। कृपा करके आप उसकी सहायता करने चलिए। उन्हें बंदी बना लिया गया है।
उनके प्राण किसी भी क्षण जा सकते हैं। वह जैसे भी हैं ,आपके भाई है। आपको उनकी मदद करनी चाहिए। यह बात सुनकर अर्जुन और भीम बहुत खुश हुए और उन्होंने दुर्योधन की सहायता करने से मना कर दिया। परंतु युधिष्ठिर जो धर्म के ज्ञाता थे और किसी भी समय धर्म का साथ नहीं छोड़ते थे। उन्होंने अर्जुन को आज्ञा दी कि तुम्हें जाकर दुर्योधन को बचाना है क्योंकि वह हमारा भाई है। अगर अधर्मी है तो क्या हुआ परंतु गुरु वश में जन्म लेने के कारण वह हमारा भाई है।
इसलिए उसकी सहायता करना और उसकी प्राणों की रक्षा करना, हमारा परम कर्तव्य है।
इसलिए तुम जाकर उसे बंधन मुक्त कर दो। ना चाहते हुए भी, भीम और अर्जुन ने वहां जाने का फैसला किया। भीम और अर्जुन को देखकर सब लोग दंग रह गए। गंधर्व लोग आश्चर्यचकित थे, कि जिन पांडवों का सारा राज पाठ दुर्योधन ने लूट लिया था ।इस कपटी दुर्योधन की सहायता करने के लिए पांडव आज अपनी जान पर खेल रहे हैं। भीम और अर्जुन ने गंधर्वों से आग्रह किया कि वह दुर्योधन को छोड़ दें क्योंकि वह उनका भाई है और उसकी रक्षा करना उनका कर्तव्य है।
मुखिया ने कहा तुम अभी भी अपने भाई को बचाना चाहते हो, यह जानते हुए कि उसने तुम्हारे साथ क्या किया। यह बड़े आश्चर्य की बात है। यह हमारे राज्य की एक स्त्री को उठा लाया है। इस अधर्मी को दंड मिलना ही चाहिए। तब भीम ने मुखिया को प्रणाम किया और कहा कि आप तो बुजुर्ग हैं और सारी बातें जानते हैं। आप खुद ही बताइए कि इसे दंड देने का अधिकार, आपको ज्यादा है या मुझे, कृपया मेरी प्रतिज्ञा के बारे में सोचिए। जो मैंने दुर्योधन के विषय में कर रखी है।
मैंने सभी कौरवों को युद्ध में पराजित करने की शपथ खाई है। इसलिए इसे दंड देने का अधिकार, मुझे आपसे ज्यादा है।
गंधर्व के मुखिया ने थोड़ी देर विचार किया और युवती के भाई को शांत करके दुर्योधन को छोड़ देने के लिए कहा। अंत में दुर्योधन को छोड़ दिया गया। परंतु दुर्योधन अपनी इस पराजय से बड़ा ही लज्जित था। पांडवों द्वारा बचाए जाने के कारण, वह लज्जा से डूबा जा रहा था। उसे इस बात का भी अधिक दुख था कि उसका प्रिय मित्र कर्ण न जाने कहां चला गया। अगर कर्ण होता तो ,उसे बचा लेता।
दुर्योधन ने अर्जुन को इस मदद का बदला चुकाने के लिए, एक वरदान दिया कि जैसे तुमने मेरी मदद की है, ऐसे ही मैं तुम्हें एक वचन देता हूं कि आवश्यकता के समय, तुम मुझसे कुछ भी मांग सकते हो ,और मैं तुम्हें किसी भी कीमत पर वह वस्तु दूंगा। भीम और अर्जुन अपना काम करके जैसे ही शिविर से बाहर निकलते हैं, कर्ण अपना धनुष बाण लेकर दुर्योधन को बचाने आ जाता है, तो भीम और अर्जुन को दुर्योधन के शिविर से बाहर निकलते देख वह हैरान हो जाता है ,और उसे सारा मामला समझ आ जाता है।
कर्ण को खुद पर लज्जा आती है कि वह खुद अपने मित्र को बचा नहीं पाया और उसे पांडवों से मदद लेनी पड़ी।
बस इसी अतीत को याद करके, अर्जुन बहुत खुश हो जाते हैं और उसे यकीन हो जाता है कि उस मदद के बदले दुर्योधन जरूर उसे वह पांच सोने के तीर दे देगा। अर्जुन सीधा दुर्योधन के शिविर में पहुंच गया और जाकर उसने दुर्योधन को वही घटना याद दिलाई। जब उसने अर्जुन को कोई भी वस्तु देने का वरदान दिया था। दुर्योधन को बड़ा ही दुख हुआ कि उसे वह वरदान नहीं देना चाहिए था। जो की पूरे महाभारत के युद्ध को पलट सकता था।
बहुत सोच विचार करने के बाद दुर्योधन ने बड़े ही भारी मन से, वह सोने के पांच तीर जो भीष्म पितामह ने अपनी शक्ति से अभिमंत्रित किए थे अर्जुन को दे दिए। अर्जुन उन तीरों को लेकर बड़े प्रसन्न थे और श्री कृष्ण की बुद्धि का चमत्कार देख रहे थे। वह इन तीरों को लेकर चुपचाप श्री कृष्ण की ओर चल पड़े और अपनी विजय का इंतजार करने लगे।
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