भजन में मन क्यों नहीं लगता-शादी के बाद भजन में कमी
राधे राधे 🙏🙏
भजन में मन क्यों नहीं लगता
महाराज जी नौकरी और परिवार मिलने के बाद भजन में कमी क्यों आने लगती है?
यह सही नहीं है जैसे-जैसे हमारी कामना पूरी हो जाती है वैसे वैसे हम भोगों में और ज्यादा लिप्त होते जाते हैं। भजन तो समय के साथ बढ़ाना चाहिए लेकिन ऐसा हो नहीं पता, जिनके कारण वह कामनाएं पूरी हुई अर्थात भगवान, हम उन्हें ही भूल जाते हैं। हम भजन को छोड़कर सांसारिक क्रियाकलापों में और अपनी कामनाओं को पूरा करने में अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं।
सर्वप्रथम तो हम पत्नी पुत्र परिवार इन सभी चीजों की आकांक्षा रखते हैं, और जब भगवान हमारी इन कामनाओं को पूर्ण करते हैं तो हम भगवान को ही भूल जाते हैं। लेकिन वास्तव में हमें करना यह चाहिए कि समय के साथ में भजन को और बढ़ाना चाहिए, क्योंकि यह सांसारिक वस्तुएं स्थाई नहीं है।
पत्नी इस दुनिया से जा सकती है, पुत्र भी चला जा सकता है, नौकरी कभी भी छूट सकती है हम स्वयं ही मृत्यु लोक में है। मृत्यु लोक में कोई भी चीज स्थाई नहीं है।
अंत में ना पत्नी साथ जाएगी, ना पुत्र और ना ही हमारा बैंक बैलेंस, ना यह शरीर रहेगा, ना हमारी नौकरी, साथ जाएगा तो सिर्फ हमारा जपा हुआ, भगवान का नाम और वही भजन जो हमने सच्चे मन से किया होगा।
इसलिए हमें भजन को छोड़ना नहीं है बल्कि उसे और बढ़ाना है यह तो बड़े सौभाग्य की बात है कि हमारा मन भजन में लग रहा है। यदि थोड़ा मन भी भजन में लग रहा है तो उसे बढ़ाना है, उसे कम नहीं करना है।
यह सोच तो बहुत ही गलत है कि भजन ना हो तो कोई बात नहीं। नहीं भजन हमारे जीवन के लिए बहुत जरूरी है। भगवत प्राप्ति के लिए बहुत जरूरी है। क्योंकि वही अंत समय में हमारे साथ जाएगा। जितना हो सके सच्चे मन से भजन करते रहो। यही जीवन का सार है और यही हमें भगवत प्राप्ति का मार्ग दिखाएगा।

जब हम अलग-अलग मंदिरों में जाते हैं तो भगवान का स्वरूप अलग-अलग होता है, जिससे ध्यान और भजन करते समय मन में भ्रम (confusion) होता है। ऐसे में क्या समाधान है?
हां एक साधक के साथ ऐसा होता है। हमारा मन भ्रमित ना हो, हमारा ध्यान भजन में लगे, उसके लिए हमें आचार्य परंपरा से जुड़ना होगा। यदि हम आचार्य परंपरा से जोड़ते हैं तो हमारा ध्यान और भजन की दिशा स्पष्ट हो जाती है। उदाहरण के लिए जैसे हम हरिवंश महाप्रभु जी के शिष्य है तो हम जहां भी जाए, मंदिर कोई भी हो, हम ध्यान और भजन राधा वल्लभ जी का ही करते हैं, क्योंकि वह हमारे इष्टदेव है इस प्रकार यदि कोई स्वामी हरिदास जी की परंपरा से जुड़ा है तो वह बांके बिहारी जी का ध्यान करता है और उनका भजन करता है।
इसके लिए जरूरी है कि हम आचार्य परंपरा से जुड़े। यदि आप किसी आचार्य परंपरा से नहीं जुड़े हैं, तो यह आपको स्वयं निर्णय लेना चाहिए कि हमारे इष्ट देव कौन है ,जैसे आपने बांके बिहारी जी को अपना इष्ट देव मान लिया तो फिर दर्शन तो आप सभी मंदिरों में कर सकते हैं लेकिन ध्यान भजन और आंतरिक निष्ठा सिर्फ बिहारी जी में ही रखें।
ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में यह एक परंपरा है कि भक्त किसी एक रूप में अपनी निष्ठा स्थापित करता है और फिर उसी के माध्यम से उसे मार्ग में बढ़ता है ऐसा करने से मन में भ्रम नहीं रहता और भजन में भी स्थिरता बनी रहती है।
राधे-राधे🙏🙏
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हमारे शरीर और मानसिक आरोग्य का आधार हमारी जीवन शक्ति है। वह प्राण शक्ति भी कहलाती है।