Shri Krishna aur Karna samvad-हिंदू धर्म में ऐसे बहुत से धार्मिक ग्रंथ हैं, जिनसे हम बहुत सी शिक्षाएं ग्रहण कर सकते हैं, उन्हीं ग्रथों में से एक है महाभारत। यह एक ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जिसमें जिसमें छल, ईर्ष्या, विश्वासघात और बदले की भावना का बाहुल्य है, लेकिन इसी में प्रेम-प्यार, अकेलापन और बलिदान भी है। वैसे तो महाभारत का हर एक पात्र मुख्य रहा है। लेकिन आज हम बात करेंगे कर्ण और कृष्ण के बीच महत्वपूर्ण संवेदनशील संवाद। तो आइए जानते हैं
कहानी: श्रीकृष्ण और कर्ण संवाद | Shri Krishna aur Karna samvad
महाभारत में कर्ण ने श्री कृष्ण से पूछा “मेरी माँ ने मुझे जन्मते ही त्याग दिया, क्या ये मेरा अपराध था कि मेरा जन्म एक अवैध बच्चे के रूप में हुआ?
दोर्णाचार्य ने मुझे शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि वो मुझे क्षत्रिय नही मानते थे, क्या ये मेरा कसूर था?
परशुराम जी ने मुझे शिक्षा दी साथ ये शाप भी दिया कि मैं अपनी विद्या भूल जाऊंगा क्योंकि वो मुझे क्षत्रिय समझते थे।
भूलवश एक गौ मेरे तीर के रास्ते मे आकर मर गयी और मुझे गौ वध का शाप मिला?
द्रौपदी के स्वयंवर में मुझे अपमानित किया गया, क्योंकि मुझे किसी राजघराने का कुलीन व्यक्ति नही समझा गया।
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यहां तक कि मेरी माता कुंती ने भी मुझे अपना पुत्र होने का सच अपने दूसरे पुत्रों की रक्षा के लिए स्वीकारा।
मुझे जो कुछ मिला दुर्योधन की दया स्वरूप मिला!
तो क्या ये गलत है कि मैं दुर्योधन के प्रति अपनी वफादारी रखता हूँ..??
श्री कृष्ण मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले”कर्ण, मेरा जन्म जेल में हुआ था। मेरे पैदा होने से पहले मेरी मृत्यु मेरा इंतज़ार कर रही थी। जिस रात मेरा जन्म हुआ उसी रात मुझे मेरे माता-पिता से अलग होना पड़ा। तुम्हारा बचपन रथों की धमक, घोड़ों की हिनहिनाहट और तीर कमानों के साये में गुज़रा।
मैने गायों को चराया और गोबर को उठाया। जब मैं चल भी नही पाता था तो मेरे ऊपर प्राणघातक हमले हुए। कोई सेना नही, कोई शिक्षा नही, कोई गुरुकुल नही, कोई महल नही, मेरे मामा ने मुझे अपना सबसे बड़ा शत्रु समझा।
जब तुम सब अपनी वीरता के लिए अपने गुरु व समाज से प्रशंसा पाते थे, उस समय मेरे पास शिक्षा भी नही थी। बड़े होने पर मुझे ऋषि सांदीपनि के आश्रम में जाने का अवसर मिला।
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तुम्हे अपनी पसंद की लड़की से विवाह का अवसर मिला मुझे तो वो भी नही मिली जो मेरी आत्मा में बसती थी। मुझे बहुत से विवाह राजनैतिक कारणों से या उन स्त्रियों से करने पड़े जिन्हें मैंने राक्षसों से छुड़ाया था।
जरासंध के प्रकोप के कारण मुझे अपने परिवार को यमुना से ले जाकर सुदूर प्रान्त मे समुद्र के किनारे बसाना पड़ा। दुनिया ने मुझे कायर कहा।
यदि दुर्योधन युद्ध जीत जाता तो विजय का श्रेय तुम्हे भी मिलता, लेकिन धर्मराज के युद्ध जीतने का श्रेय अर्जुन को मिला! मुझे कौरवों ने अपनी हार का उत्तरदायी समझा।
हे कर्ण! किसी का भी जीवन चुनोतियों से रहित नही है। सबके जीवन मे सब कुछ ठीक नही होता। कुछ कमियां अगर दुर्योधन में थी तो कुछ युधिष्टर में भी थीं। सत्य क्या है और उचित क्या है? ये हम अपनी आत्मा की आवाज़ से स्वयं निर्धारित करते हैं।
इस बात से कोई फर्क नही पड़ता कितनी बार हमारे साथ अन्याय होता है।
इस बात से कोई फर्क नही पड़ता कितनी बार हमारा अपमान होता है।
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इस बात से कोई फर्क नही पड़ता कितनी बार हमारे अधिकारों का हनन होता है।
फ़र्क़ सिर्फ इस बात से पड़ता है कि हम उन सबका सामना किस प्रकार करते हैं…
रोना धोना बंद करो कर्ण जिंदगी न्याय नहीं करती इसका मतलब यह नहीं होता कि तुम्हें अधर्म के पथ पर चलने की अनुमति है।
🙏 *जय श्री कृष्णा* 🙏
कर्ण और अर्जुन में सबसे बड़ा योद्धा कौन था?
परन्तु सचाई यह है कि जब हम अर्जुन की तुलना एकलव्य और कर्ण से करते हैं, तो उनकी उम्र का ध्यान नहीं रखते। कर्ण अर्जुन से कम से कम 10 वर्ष बड़ा था और एकलव्य कर्ण से लगभग 5 वर्ष बड़ा था।
कर्ण को कुंती ने त्याग दिया, यह दुर्भाग्यपूर्ण था। लेकिन कर्ण को निषंतान सूत अधिरथ ने अपनाया, जो बहुत धनी और प्रतिष्ठित व्यक्ति थे और राजा धृतराष्ट्र के मित्र भी। सूत कोई निम्न जाति नहीं थी, यह ब्राह्मण और क्षत्रिय के मिलन से उत्पन्न एक वर्ग था। कर्ण बाल्यकाल से ही दुर्योधन का मित्र था, जबकि देवी कुंती पांडवों के साथ हस्तिनापुर बाद में आईं। कर्ण, दुर्योधन से उम्र में काफी बड़ा था और अपने बल और प्रतिभा से दुर्योधन को प्रभावित कर चुका था, लेकिन अर्जुन और भीम की उपस्थिति से उसका प्रभाव कम हो गया। इस कारण से, वह ईर्ष्या और द्वेष से ग्रस्त होकर दुष्ट दुर्योधन का घनिष्ठ मित्र बन गया।
एकलव्य कोई साधारण जंगलवासी नहीं था, बल्कि वह हस्तिनापुर के शत्रु सम्राट जरासंध के सेनापति निषादराज का पुत्र था और एक योद्धा राजकुमार था। उसके पास अपनी सेना थी और वह पहले से ही जरासंध के सेना विद्यालय से शिक्षा प्राप्त कर चुका था। वह आचार्य द्रोण के पास केवल शिक्षा लेने नहीं आया था, बल्कि शिष्य के रूप में एक गुप्तचर था। वह संयोगवश आचार्य द्रोण के समक्ष प्रस्तुत हुआ और द्रोण ने उसे केवल एक छोटा सा दंड देकर छोड़ दिया। अगर एकलव्य, भीष्म या धृतराष्ट्र द्वारा पकड़ा जाता तो उसे मृत्युदंड मिल सकता था।
रंगभूमि में कर्ण का तिरस्कार क्यों हुआ?
यदि आप बिना निमंत्रण के किसी के निजी उत्सव में प्रवेश करते हैं और अपने श्रेष्ठता का घमंड दिखाते हैं, तो अपमान तो होगा ही। द्रोण के गुरुकुल में कई मित्र राज्यों के राजकुमार भी शिष्य थे, लेकिन उन्हें भी रंगभूमि में आमंत्रित नहीं किया गया था। रंगभूमि का उत्सव हस्तिनापुर का निजी आयोजन था, जिसमें केवल कुरु राजकुमारों को अपनी विद्या का प्रदर्शन करने का निमंत्रण था। कर्ण बिना निमंत्रण के रंगभूमि में प्रवेश कर अपनी विद्या का प्रदर्शन करने लगा और स्वयं को अर्जुन से श्रेष्ठ घोषित कर दिया। उसने अपने से लगभग 10 वर्ष छोटे अर्जुन को प्राणांतक द्वंद्व युद्ध की मूर्खतापूर्ण चुनौती दी।
सोचिए, यदि आपके घर के बच्चे आंगन में खेल रहे हों और अचानक बाहर से एक युवक आकर घोषणा करे कि वह अधिक शक्तिशाली है और बच्चों को हरा देगा, तो आप क्या करेंगे?
गुरुकुल में अर्जुन एकलव्य के सामने बालक था। संभव है उस समय युवा पुरुष एकलव्य की क्षमता बालक अर्जुन से अधिक हो, आखिरकार दोनों में 15 वर्ष का अंतर था। और रंगभूमि के समय भी संभव है युवा कर्ण की क्षमता नवयुवक अर्जुन के समान हो, क्योंकि उन दोनों में भी लगभग 10 वर्ष का अंतर था।
अगर केवल गुरु की श्रेष्ठता के आधार पर ही शिष्य को श्रेष्ठ माना जाए, तो आप सोच सकते हैं कि महाभारत के कुरुक्षेत्र युद्ध के समय इन तीनों योद्धाओं की क्या स्थिति रही होगी।
कर्ण का अंतिम संस्कार भगवान श्रीकृष्ण ने क्यों किया था ?
जब कर्ण मृत्युशैया पर थे, तब श्रीकृष्ण उनके दानवीरता की परीक्षा लेने के लिए आए। कर्ण ने कहा कि उसके पास देने के लिए कुछ भी नहीं बचा है। इस पर श्रीकृष्ण ने उनसे उनका स्वर्ण दांत मांग लिया।
कर्ण ने पास पड़े पत्थर से अपना स्वर्ण दांत तोड़कर श्रीकृष्ण को दे दिया। श्रीकृष्ण ने कहा कि यह सोना जूठा है। इस पर कर्ण ने अपने धनुष से धरती पर बाण चलाया, जिससे गंगा की तेज जलधारा फूट पड़ी। कर्ण ने उस जल से दांत धोकर श्रीकृष्ण को दिया और कहा कि अब यह शुद्ध हो गया है। श्रीकृष्ण ने कहा कि तुम्हारी यह बाण गंगा सदैव तुम्हारी दानवीरता का गुणगान करेगी। श्रीकृष्ण ने कर्ण को आशीर्वाद दिया कि जब तक सूर्य, चंद्र, तारे और पृथ्वी रहेंगे, तुम्हारी दानवीरता की प्रशंसा तीनों लोकों में होगी। संसार में तुम्हारे समान महान दानवीर न तो कभी हुआ है और न कभी होगा।
कर्ण ने एक बार फिर अपनी दानवीरता का प्रमाण दिया, जिससे श्रीकृष्ण बहुत प्रभावित हुए। श्रीकृष्ण ने कर्ण से कहा कि वह उनसे कोई भी वरदान मांग सकते हैं। कर्ण ने कहा कि एक निर्धन सूत पुत्र होने के कारण उसके साथ बहुत अन्याय हुए हैं। अगली बार जब श्रीकृष्ण धरती पर आएं तो वे पिछड़े वर्ग के लोगों के जीवन में सुधार लाने का प्रयास करें।
इसके साथ ही कर्ण ने दो और वरदान मांगे। दूसरे वरदान के रूप में कर्ण ने यह चाहा कि अगले जन्म में श्रीकृष्ण उन्हीं के राज्य में जन्म लें और तीसरे वरदान में उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा कि उनका अंतिम संस्कार ऐसे स्थान पर हो जहां कोई पाप न हुआ हो। यह सुनकर श्रीकृष्ण असमंजस में पड़ गए, क्योंकि पूरी पृथ्वी पर ऐसा कोई स्थान नहीं था जहां पाप न हुआ हो। ऐसी कोई जगह न होने के कारण श्रीकृष्ण ने कर्ण का अंतिम संस्कार अपने ही हाथों से किया। इस प्रकार दानवीर कर्ण मृत्यु के पश्चात साक्षात वैकुण्ठ धाम को प्राप्त हुए।
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