समर्पण क्या है : कहानी
पिछले साल सितम्बर महीने की बात है। मुंबई में उस वक़्त तूफानी बारिश की वजह से बाढ़ आयी हुई थी।
मैं उस वक़्त अंधेरी स्टेशन पर था। रात की 2 से 3 के बीच का समय हो रहा था एवं भारी बारिश की वजह से स्टेशन पूरा सुनसान पड़ा हुआ था।
बारिश इतनी तेज हो रही थी कि ऐसा लग रहा था कि प्लेटफार्म के पत्रों पर ऊपर से कोई गोले बरसा रहा हो।
मैंने देखा की जिस प्लेटफार्म पर मैं हु वह पूरा खाली हो चूका है, इसलिए मैंने वहाँ से दुसरे प्लेटफार्म पर जाने का निर्णय लिया।
मैं ओवरहेड फुटब्रिज से दुसरे प्लेटफार्म पर जा ही रहा था की अचानक रास्ते में मुझे यह दॄश्य दिखा,
कोई और होता तो शायद उस खाली और सुनसान स्टेशन पर उसे कोई भूत समझ कर डर जाता।
लेकिन मैं वही रुका। मैंने ध्यान से निरक्षण किया तो तूफानी बारिश में नारंगी पोषक पहने एक व्यक्ति प्लेटफार्म की छत को साफ़ कर रहा था।
शायद वह रेलवे का कोई कर्मचारी था।
उस वक़्त रात की 2 बज रही थी, पूरा स्टेशन खाली था, तूफानी बारिश हो रही थी, फिर भी वह व्यक्ति अपने कर्त्तव्य से पीछे नहीं हटा।
उसका समर्पण देख कर उस व्यक्ति के लिए सम्मान बढ़ गया। फिर मुझे अचानक याद आया की कैसे मैं अपने पुराने ऑफिस के AC में आरामदायक कुर्सी पर बैठ कर काम किया करता था।
मैंने सोचा,
“अगर वह व्यक्ति वैसी परिस्थिति में अपना सबकुछ दे सकता है तो मैं क्यों नही?”
यही है समर्पण।
भले ही कितनी भी बारिश हो, धुप हो, ठण्ड हो, कितनी भी विषम परिशीति हो, आप सब से लड़ कर आपके कर्त्तव्य से भागते नहीं।
समर्पण वह है जिसे देख कर दूसरे अपना काम सही से करने के लिए उत्साहित हो।
समर्पण समाज मे सम्मान देता है,और यही समर्पण आपको भेड़ चाल से अलग भी करता है।
हम जहाँ है, वहा से कई विषम परिशतितियो में काम और संघर्ष करके लोग अपने समर्पण से आगे बढ़ रहे है, तो हमारे पास इस समर्पण को ना पाने का कोई बहाना नहीं होने चाहिए।
खुद को भगवान को समर्पण कैसे करें
समर्पण की परिभाषा क्या है?
यह कह देना जितना आसान है उतना ही मुश्किल है। मनुष्य में परमात्मा के प्रति भी समर्पण का भाव बहुत दुर्लभ होता है, गुरु के प्रति समर्पण भाव भी दुर्लभ होता है, पत्नी का पति के प्रति, पति का पत्नी के प्रति , पुत्र का माता – पिता के प्रति, भी समर्पण हो पाना बहुत दुर्लभ होता है।
सारी उम्र हम अपने अहंकार को नहीं छोड़ पाते। हम दूसरों को बिना लोभ कुछ अर्पण भी नहीं कर पाते। भगवान् को भी कुछ पाने की लालसा से ही प्रसाद चढाते हैं, लालसा पूर्ण नहीं होती तो भगवान् बदल लेते हैं। जबकि भगवान् तो एक ही है|
हम तो भगवान् से भी छुपाते फिरते हैं। गुरु से छुपाव न रख पाना हर किसी के लिए संभव नहीं हो पाता है। क्योंकि, समर्पण का अर्थ है मेरे “मैं” की मृत्यु और तेरे “तू” का जन्म। अर्थात मेरा व्यक्तित्व अब मेरा नहीं रहा वह मेरे गुरु का या मेरे परमात्मा का हो गया।
सच्चा समर्पण क्या है?
सरल शब्दों में समर्पण का अर्थ है अपने आपको मन व बुद्धि से पूर्णरूपेण किसी ऐसे ईष्ट को नि:स्वार्थपूर्वक सौंप देना, जिस पर पूर्ण श्रद्धा व विश्वास हो अथवा बिना किसी तर्क व संदेह किए बराबर किसी भी उपयोग हेतु ज्यों का त्यों स्वयं को किसी के हवाले कर देना। समर्पण में संदेह व तर्क की कोई गुंजाइश नहीं होती। जिसको समर्पण किया जाता है यदि उस पर संदेह व स्वार्थ है तो वहां समर्पण नहीं होता, बल्कि वह केवल नाम मात्र दिखावा है जो सच्चे समर्पण से कोसों दूर होता है।
समर्पण में छल छिद्र व कपट का कोई स्थान नहीं होता। रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने जैसे संकेत भी दिया है कि भगवान को छलिया, छिद्रान्वेषी बिलकुल भी पसंद नहीं हैं क्योंकि ये विकार समर्पण में बाधक हैं। समर्पण ठीक वैसे ही है जैसे एक कन्या विवाह के बाद अपने पति के प्रति समर्पित हो जाती है। माता-पिता का मोह छोड़कर वह अपना सब कुछ पति को ही मानती है। पति पर उसका पूर्ण विश्वास होता है। पति पर पूर्ण विश्वास ही उसके लिए जीवन का एक अर्थ है।
समर्पण में श्रद्धा का महत्व ज्यादा होता है। जिस पर श्रद्धा होती है, उसी पर समर्पण होता है। जिस पर श्रद्धा नहीं होती, उस पर समर्पण भी नहीं होता। जब श्रद्धा किसी व्यक्ति पर होती है और उसके प्रति समर्पण होता है तो समर्पण करने वाले को विशेष सुख मिलता है। जब श्रद्धा भगवान के प्रति होती है और व्यक्ति भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण कर देता है तो उसे विशेष आनंद मिलता है। इसीलिए योगी आदमी भगवान से योग लगाते हैं और अपने आप को पूर्ण समर्पित कर देते हैं तो वे सुख, शांति और परमात्मा का आनंद लेते हैं।
समर्पण क्यों करना चाहिए? क्योंकि जब तक समर्पण नहीं होता, तब तक सच्चा सुख नहीं मिलता। सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए समर्पण किया जाता है। समर्पण यदि कपटपूर्ण है तो सुख भी दिखावा मात्र ही होगा। समर्पण से ही परमात्मा सहाय बनते हैं। मीरा ने समर्पण यह कहकर कि ‘मेरो तो गिरधर गोपाल बस दूसरो न कोई’ किया तो मीरा को पिलाया जाने वाला जहर परमात्मा ने अमृत में बदल दिया। द्रौपदी ने हार थक कर जब अंत में केवल और केवल श्रीकृष्ण को समर्पण किया तो भगवान श्रीकृष्ण ने उनका चीर हरण नहीं होने दिया और द्रौपदी की लाज की रक्षा की। द्रौपदी का कुछ काम नहीं आया। काम आया केवल भगवान के प्रति समर्पण। राजा जनक ने अष्टावक्र ऋषि के प्रति समर्पण किया तो राजा जनक को तत्क्षण ज्ञान हो गया। रामकृष्ण परमहंस के प्रति बालक नरेंद्र का, जो कि बाद में स्वामी विवेकानंद के नाम से जाने गए, समर्पण हुआ तो काली मां उनके हृदय में प्रकट हो गई। महात्मा बुद्ध को कोई भी शास्त्र बुद्ध न बना पाया। अंत में बालक सिद्धार्थ परम सत्ता के प्रति एक वट वृक्ष के नीचे बैठे पूर्णरूपेण समर्पित हुए तो वे तत्क्षण बुद्ध हो गए और यही बालक सिद्धार्थ कालांतर में महात्मा बुद्ध कहलाए
🙏🙏
समर्पण करने के उपाय, समर्पण के क्या लाभ है?
समर्पण अंतिम परिणीति या उपलब्धि है अध्यात्म मार्ग में, फिर चाहे वह प्रेम मार्ग हो या ज्ञान मार्ग या कर्मयोग, बिना समर्पण ईश्वर को प्राप्ति संभव ही नहीं है। समर्पण निचोड़ है भक्ति और प्रेम का, ज्ञान की भी अंतिम सीढ़ी समर्पण ही है। कर्म योग में भी जब तक आप कर्ता भाव से जुड़े हैं आपका अहंकार खत्म नहीं होता। इसलिए गीता में भगवान श्री कृष्ण से निष्काम कर्मयोग की शिक्षा दी है। सब कर्म तो करो पर अंत में परमात्मा को समर्पित कर दो तो मैं तुम्हे उसके अच्छे बुरे कर्मफल से मुक्त कर दूंगा।
एक भक्त या प्रेमी परमात्मा के प्रेम में शुरू से ही समर्पित हो जाता है, समर्पण उसकी आत्मिक यात्रा की पहली सीढ़ी है। तभी वह प्रेम कर पाता है परमात्मा से, समर्पण और प्रेम दोनो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्रेम तो समर्पण का ही दूसरा नाम है। इससे बड़ी कोई साधना नही, कोई मार्ग नही प्रभु को पाने का। प्रेम में सिर्फ परमात्मा होता है प्रेमी विलीन हो जाता है।
समर्पण से सहज ही परमात्मा को पाया जा सकता है, इसमें परमात्मा स्वयं अपने प्रेमी भक्त या साधक की जिम्मेदारी लेते हैं और सहज ही उसका उद्धार कर देते हैं। प्रेमी भी प्रेम में परमात्मा के प्रति ऐसे समर्पित हो जाता है, जैसे छोटा बच्चा मां की गोद में स्वयं को सौंप देता है, और निश्चित रहता है। उसे फिर अपने खाने–पीने, सुरक्षा की कोई चिंता नहीं होती है। इसी प्रकार जब हम परमात्मा के प्रति समर्पित हो जाते है तो परमात्मा हर हॉल में हमें स्वीकार करते हैं, प्रेम करते है और भवसागर से पार लगा देते है।
समर्पण हमारे भीतर अहंकार को समाप्त कर देता है यही सबसे बड़ा लाभ है। अहंकार सबसे बड़ा शत्रु है जीव का, इसलिए कितना भी हम ज्ञान प्राप्त कर लें, यदि उसका लेशमात्र भी अहंकार मन में हुआ तो फिर जीव के पतन में समय नहीं लगता। ज्ञान मार्ग में भी सब कुछ जानने के बाद भी यही अंतिम कार्य बचता है कि जो भी जाना है उसे भी परमात्मा को समर्पित कर दें, क्योंकि यह ज्ञान भी जीव को अपनी चेष्टा से प्राप्त नहीं हुआ है बल्कि परमात्मा या गुरु की दया से प्राप्त हुआ है।
समर्पण के लिए कई उपाय हैं जैसे: परमात्मा से सच्चा प्रेम सहज ही समर्पण करवा देता है। जैसे मीराबाई श्रीकृष्ण के प्रेम में मिट जाती है और कहती है कि मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो ना कोई……।
इसी प्रकार ज्ञान होने से जीव को अपनी अक्षमता का ज्ञान होता है कि मैं कुछ नही जानता, मैं अज्ञानी हूं, जो जाना वो बहुत कम है, फिर अहंकार किस बात का।
इसी प्रकार , सेवा, भगवान नाम सुमिरन, गुरु के दिए नाम का विधिवत जाप, दान–पुण्य, सत्कर्मों से भी जीव के पुराने संचित कर्म कटते हैं और जीव का अहंकार समाप्त होता चला जाता है।
इसके अलावा प्रभु से अपने अब तक के समस्त गुनाहों की माफी मांगने से, और प्रायश्चित करने से, अपने उद्धार के लिए प्रार्थना करने से भी अहंकार नष्ट होता है। इस प्रकार इन सभी उपायों द्वारा हम अपने अहंकार को नष्ट करके अपने आध्यात्मिक उन्नति के शिखर पर जा सकते हैं। और गुरु कृपा सबसे सहज तरीका है, वो पल भर में समस्त पापों और विकारों से हमें मुक्त कर देते हैं।
अगर आपको उत्तर पसंदसमर्पण अंतिम परिणीति या उपलब्धि है अध्यात्म मार्ग में, फिर चाहे वह प्रेम मार्ग हो या ज्ञान मार्ग या कर्मयोग, बिना समर्पण ईश्वर को प्राप्ति संभव ही नहीं है। समर्पण निचोड़ है भक्ति और प्रेम का, ज्ञान की भी अंतिम सीढ़ी समर्पण ही है। कर्म योग में भी जब तक आप कर्ता भाव से जुड़े हैं आपका अहंकार खत्म नहीं होता। इसलिए गीता में भगवान श्री कृष्ण से निष्काम कर्मयोग की शिक्षा दी है। सब कर्म तो करो पर अंत में परमात्मा को समर्पित कर दो तो मैं तुम्हे उसके अच्छे बुरे कर्मफल से मुक्त कर दूंगा।
एक भक्त या प्रेमी परमात्मा के प्रेम में शुरू से ही समर्पित हो जाता है, समर्पण उसकी आत्मिक यात्रा की पहली सीढ़ी है। तभी वह प्रेम कर पाता है परमात्मा से, समर्पण और प्रेम दोनो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्रेम तो समर्पण का ही दूसरा नाम है। इससे बड़ी कोई साधना नही, कोई मार्ग नही प्रभु को पाने का। प्रेम में सिर्फ परमात्मा होता है प्रेमी विलीन हो जाता है।
समर्पण से सहज ही परमात्मा को पाया जा सकता है, इसमें परमात्मा स्वयं अपने प्रेमी भक्त या साधक की जिम्मेदारी लेते हैं और सहज ही उसका उद्धार कर देते हैं। प्रेमी भी प्रेम में परमात्मा के प्रति ऐसे समर्पित हो जाता है, जैसे छोटा बच्चा मां की गोद में स्वयं को सौंप देता है, और निश्चित रहता है। उसे फिर अपने खाने–पीने, सुरक्षा की कोई चिंता नहीं होती है। इसी प्रकार जब हम परमात्मा के प्रति समर्पित हो जाते है तो परमात्मा हर हॉल में हमें स्वीकार करते हैं, प्रेम करते है और भवसागर से पार लगा देते है।
समर्पण हमारे भीतर अहंकार को समाप्त कर देता है यही सबसे बड़ा लाभ है। अहंकार सबसे बड़ा शत्रु है जीव का, इसलिए कितना भी हम ज्ञान प्राप्त कर लें, यदि उसका लेशमात्र भी अहंकार मन में हुआ तो फिर जीव के पतन में समय नहीं लगता। ज्ञान मार्ग में भी सब कुछ जानने के बाद भी यही अंतिम कार्य बचता है कि जो भी जाना है उसे भी परमात्मा को समर्पित कर दें, क्योंकि यह ज्ञान भी जीव को अपनी चेष्टा से प्राप्त नहीं हुआ है बल्कि परमात्मा या गुरु की दया से प्राप्त हुआ है।
समर्पण के लिए कई उपाय हैं जैसे: परमात्मा से सच्चा प्रेम सहज ही समर्पण करवा देता है। जैसे मीराबाई श्रीकृष्ण के प्रेम में मिट जाती है और कहती है कि मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो ना कोई……।
इसी प्रकार ज्ञान होने से जीव को अपनी अक्षमता का ज्ञान होता है कि मैं कुछ नही जानता, मैं अज्ञानी हूं, जो जाना वो बहुत कम है, फिर अहंकार किस बात का।
इसी प्रकार , सेवा, भगवान नाम सुमिरन, गुरु के दिए नाम का विधिवत जाप, दान–पुण्य, सत्कर्मों से भी जीव के पुराने संचित कर्म कटते हैं और जीव का अहंकार समाप्त होता चला जाता है।
इसके अलावा प्रभु से अपने अब तक के समस्त गुनाहों की माफी मांगने से, और प्रायश्चित करने से, अपने उद्धार के लिए प्रार्थना करने से भी अहंकार नष्ट होता है। इस प्रकार इन सभी उपायों द्वारा हम अपने अहंकार को नष्ट करके अपने आध्यात्मिक उन्नति के शिखर पर जा सकते हैं। और गुरु कृपा सबसे सहज तरीका है, वो पल भर में समस्त पापों और विकारों से हमें मुक्त कर देते हैं।
सच्चा समर्पण क्या है? क्या आपके पास इसका कोई उदाहरण है?
ये है सच्चा समर्पण।।
जब आप किसी में इतने लीन हो जाते हैं कि चेतना रहे या न रहे फर्क नहीं पड़ता।
ये संत महात्मा ईश्वर भक्ति में इतने लीन थे कि मृत्यु भी इन्हें इनके धर्म से डिगा नहीं पाई। मृत्यु पर्यन्त ये अपने कर्म में लगे रहे।इनका कर्म इनके व्यक्तित्व में समाहित हो गया था, इतना कि जब मृत्यु आई,वह अपना काम कर गई ,ये अपना।🙏
दूसरा—एक स्त्री, जब अपनी घर गृहस्थी के प्रति समर्पित होती है तो वह अपने अस्तित्व को भूल जाती है।उसे याद रहता है तो बस अपने पति, अपने बच्चों अपने परिवार का कैसे दायित्व निभाना है। सुबह से रात तक का सफर उसे कैसे तय करना है, और फिर रात के बाद सुबह से उसे क्या करना है इसी उधेड़बुन में वह अपने जीवन के अनमोल पलों को व्यतीत करती जाती है। यदि एक दिन उसे अस्वस्थ महसूस होता है तो वह परेशान हो जाती है कि गृहकार्य कैसे पूरे होंगे।कौन उसके बच्चों को खाना देगा।कौन सास ससुर पति को समय पर उनकी जरूरत की चीजें देगा,इसके कारण वह या तो जल्दी से जल्दी अपना उपचार करके स्वस्थ होना चाहती है या जब तक हो सकता है जी तोड़ मेहनत करती जाती है।इसके लिए उसे किसी के आगे दिखावा करने की आवश्यकता नहीं है,उसके अन्दर समर्पण की जो भावना है ,अपने परिवार के प्रति,वही उससे यह सब करवाती है।
समर्पण क्या है ? क्या पूर्ण समर्पण की स्थिति में लोग उस व्यक्ति को विक्षिप्त मान लेते हैं ?
ज्ञानियों ने, संतों ने, मर्मज्ञों ने, बुद्धों ने अपने अनुभव से ये जाना कि अध्यात्म के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा हमारा अहंकार होता है, मतलब मैं कर्ता हूँ, और फिर उन्होंने साथ ही साथ ये भी जाना कि समर्पण ही इस बाधा को दूर कर सकता है। समर्पण से अहंकार खत्म हुआ और बेफिक्री पैदा हुई। और आनंद और परमात्मा के, प्रकृति के, ब्रह्मांड के अंसुलझे रहस्य से पर्दा उठता गया। समर्पण अनमोल है। इससे अधिक अच्छा शब्द अध्यात्म में नहीं दिखता।
कबीर, मीरा, रामकृष्ण, आदि ऐसे अनेक लोगों ने इसी के माध्यम से परमात्मा को जाना। मृत्यु के समय ऐसे भी हमे समर्पण करना ही होता है, हमारा वश चलता नहीं, तो क्यों न हम अभी से ही समर्पित रहें, अहोभाव से जीवन जियें, और अपना जीवन सार्थक करें। और रही दूसरे लोगों की बात तो इतना ही याद रखें, कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है, कहना छोड़ो इन बेकार की बातों में अपना जीवन क्यों बर्बाद करना।