सत्संग ज्ञान की बातें- मनुष्य धन कमाने के लिए खूब संघर्ष करता है, लोगों को लूटता है, तमाम झूठ बोलता है, चोरी, रिश्वतखोरी आदि करता है। उसे यह नहीं पता होता है कि इन विकारों को करने से व्यक्ति महापाप का भागी बनता है। सत्संग में व्यक्ति को अवगत कराया जाता है कि चोरी, रिश्वतखोरी, नशा आदि करने से व्यक्ति नरक का भोगी और महापाप का भागी बनता है। इसलिए सत्संग सुनना बहुत जरूरी होता है। जिस प्रकार मनुष्य को जीवित रहने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार आत्मा को सत्संग की जरूरत होती है।
सत्संग क्या है ? | सत्संग का क्या अर्थ है
सत्संग का एक विशेष अर्थ भी है। सत्संग अर्थात् सत का संग। सत्य क्या है? संत कबीर के शब्दों में — “सत् सोई जो बिनसै नाहीं।” जिसका कभी विनाश नहीं होता, ऐसे त्रिकाल अबाधित तत्व को सत्य कहते हैं। वह अविनाशी तत्व क्या है? उत्तर होगा – परमात्मा। वस्तुतः परमात्मा का संग उत्तम कोटि का सत्संग है।
किन्तु यह सत्संग होना आसान नहीं है। इसके पहले हमें साधु-संतों का संग करना पड़ता है। वे हमारी वृत्ति को परमात्मा से जोड़ते हैं और परमात्मा को पाने का यत्न बतलाते हैं। इसलिए व्यवहारिक रूप में सत्संग का अर्थ है, साधु-संतों, महापुरुषों का संग।
यदि हम सत्संग शब्द के भाव को और भी सरल रूप में समझना चाहें तो कहना पड़ेगा कि ‘ऐसा संग जिससे हमारे मन के विचार पवित्र रहें, वह सत्संग है।’
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”
मनुष्य जीवन को दिशा देने में विचार ही प्रधान है। मन के विचार एक दिन वाणी के द्वारा निःसृत होते हैं। वाणी एक दिन कर्म में परिणत हो जाती है। कर्म से आदतें बनती हैं। हमारी आदतें हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं और हमारा व्यक्तित्व ही हमारे भविष्य का जन्मदाता है। अच्छी संगति से हमारे विचार पवित्र होंगे। विचार पवित्र होने से वाणी पवित्र होगी।
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वाणी पवित्र होने से हमारे कर्म पवित्र होंगे। कर्म पवित्र होने से आदतें पवित्र होंगी। आदतें पवित्र होने से हमारा व्यक्तित्व पवित्र और उत्तम होगा और उत्तम व्यक्तित्व से ही हमारे उज्ज्वल भविष्य का निर्माण होगा। यही सत्संग का उद्देश्य है। इसके विपरीत यदि मन के विचार अपवित्र हों, दूषित हों तो वाणी, कर्म, आदतें, व्यक्तित्व; सभी प्रदूषित हो जाएँगे और भविष्य अंधकारमय हो जाएगा।
बात रही सत्संगी होने की तो जिन्होंने जीवन में सत्संग को अपना लिया है या जो सत्संग करते हैं वे सत्संगी कहलाते हैं।
कहानी : सत्संग सुनने का फल
सत्संग सुनने का फल-एक बार देवर्षि नारद भगवान विष्णु के पास गए और प्रणाम करते हुए बोले “भगवान मुझे सत्संग की महिमा सुनाइये।”
भगवान मुस्कराते हुए बोले, नारद! तुम यहां से आगे जाओ, वहां इमली के पेड़ पर एक रंगीन प्राणी मिलेगा वह सत्संग की महिमा जानता है, वही तुम्हें समझाएगा भी।
नारद जी खुशी-खुशी इमली के पेड़ के पास गए और गिरगिट से बातें करने लगे उन्होंने गिरगिट से सत्संग की महिमा के बारे में पूछा।
सवाल सुनते ही वह गिरगिट पेड़ से नीचे गिर गया और छटपटाते हुए प्राण छोड़ दिए नारदजी आश्चर्यचकित होकर लौट आए और भगवान को सारा वृत्तांत सुनाया।
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भगवान ने मुस्कराते हुए कहा, इस बार तुम नगर के उस धनवान के घर जाओ और वहां जो तोता पिंजरे में दिखेगा, उसी से सत्संग की महिमा पूछ लेना।
नारदजी क्षण भर में वहां पहुंच गए और तोते से सत्संग का महत्व पूछा थोड़ी देर बाद ही तोते की आंखें बंद हो गईं और उसके भी प्राणपखेरू उड़ गए।
इस बार तो नारद जी भी घबरा गए और दौड़े-दौड़े भगवान कृष्ण के पास पहुंचे।
नारद जी कहा, भगवान यह क्या लीला है क्या सत्संग का नाम सुनकर मरना ही सत्संग की महिमा है?
भगवान हंसते हुए बोले, यह बात भी तुमको जल्द ही समझ आ जाएगी इस बार तुम नगर के राजा के महल में जाओ और उसके नवजात पुत्र से अपना प्रश्न पूछो।
नारदजी तो थरथर कांपने लगे और बोले, “अभी तक तो पक्षी ही अपने प्राण छोड़ रहे थे। इस बार अगर वह नवजात राजपुत्र मर गया तो राजा मुझे जिंदा नहीं छोड़ेगा।
भगवान ने नारदजी को अभयदान दिया नारदजी दिल मुट्ठी में रखकर राजमहल में आए।
वहां उनका बड़ा सत्कार किया गया अब तक राजा को कोई संतान नहीं थी अतः पुत्र के जन्म पर बड़े आनन्दोल्लास से उत्सव मनाया जा रहा था।
नारदजी ने डरते-डरते राजा से पुत्र के बारे में पूछा नारदजी को राजपुत्र के पास ले जाया गया।
पसीने से तर होते हुए, मन-ही-मन श्रीहरि का नाम लेते हुए नारदजी ने राजपुत्र से सत्संग की महिमा के बारे में प्रश्न किया तो वह नवजात शिशु हंस पड़ा और बोला
“महाराज! चंदन को अपनी सुगंध और अमृत को अपने माधुर्य का पता नहीं होता। ऐसे ही आप अपनी महिमा नहीं जानते, इसलिए मुझसे पूछ रहे हैं।
वास्तव में आप ही के क्षणमात्र के संग से मैं गिरगिट की योनि से मुक्त हो गया और आप ही के दर्शनमात्र से तोते की क्षुद्र योनि से मुक्त होकर इस मनुष्य जन्म को पा सका।
आपके सान्निध्यमात्र से मेरी कितनी सारी योनियां कट गईं और मैं सीधे मानव-तन में ही नहीं पहुंचा अपीतू राजपुत्र भी बना। यह सत्संग का ही अदभुत प्रभाव है।
बालक बोला- हे ऋषिवर नवीत,अब मुझे आशीर्वाद दें कि मैं मनुष्य जन्म के परम लक्ष्य को पा लूं।
नारदजी ने खुशी-खुशी आशीर्वाद दिया और भगवान श्री हरि के पास जाकर सब कुछ बता दिया।
भगवान ने कहा,सचमुच,सत्संग की बड़ी महिमा है।संत का सही गौरव या तो संत जानते हैं या उनके सच्चे प्रेमी भक्त!
इस लिए जब कभी मौका मिले।सत्संग का लाभ जरूर ले लेना चाहिए।क्या पता किस संत या भक्त के मुख से निकली बात जीवन सफल कर दें!
कहानी: सत्संग की महिमा
एक समय की बात है, एक बहुत बड़ा और कुख्यात चोर था। जब उसकी मृत्यु का समय करीब आया, तो उसने अपने बेटे को बुलाकर उसे दो महत्वपूर्ण नसीहतें दीं। पहली, कि अगर तुझे चोरी करनी है तो कभी किसी महात्मा के सत्संग, गुरुद्वारा, धर्मशाला या किसी भी धार्मिक स्थल पर मत जाना। उनसे हमेशा दूर रहना। दूसरी, अगर पकड़े जाओ तो किसी भी कीमत पर यह मत मानना कि तुमने चोरी की है, चाहे तुम्हें कितनी भी मार पड़े।
बेटे ने अपने पिता की नसीहत को सिरोधार्य किया और वचन दिया, “जी, पिताजी, मैं ऐसा ही करूंगा।” पिता के मरने के बाद, बेटा हर रात चोरी करने लगा। वह बहुत चालाकी से चोरी करता और हमेशा अपने पिता की दी हुई सलाह को ध्यान में रखता।
एक रात, उसने एक घर में ताले तोड़े। घरवाले जाग गए और शोर मचाने लगे। आगे पहरेदार खड़े थे, उन्होंने कहा, “आने दो, बचकर कहां जाएगा। हम यहीं पकड़ लेंगे उसे।” चोर चारों ओर से घिर गया।
भागते-भागते उसे एक धर्मशाला नजर आई। उसे अपने पिता की सलाह याद आई कि धर्मशाला में नहीं जाना है। लेकिन अब करे तो क्या करे? आखिर उसने सोचा कि मौके का फायदा उठाना चाहिए और धर्मशाला में चला गया।
धर्मशाला में सत्संग चल रहा था। उसने अपने कानों में उंगलियाँ डाल लीं ताकि सत्संग के वचन न सुन सके। लेकिन प्रेमियों, हमारे मन की स्थिति अड़ियल घोड़े की तरह होती है, इसे जिधर मोड़ो, उधर ही जाने लगता है। कान बंद कर लेने पर भी चोर के कानों में यह वचन पड़ गए कि “देवी-देवताओं की परछाई नहीं होती।”
चोर के मन में विचार आया, “परछाई हो या न हो, मुझे क्या फर्क पड़ता है।” उसने अपने पिता को मन ही मन सफाई देते हुए कहा, “मैंने जानबूझकर नहीं सुना, यह वचन अन्जाने में सुन लिया। मैंने तो कान बंद कर रखा था।”
उधर घरवाले और पहरेदार चोर के पीछे लगे हुए थे। किसी ने बताया कि चोर धर्मशाला में है। धर्मशाला की जब जांच हुई तो वह चोर पकड़ा गया।
पुलिस ने उसकी बहुत पिटाई की, लेकिन वह नहीं माना कि उसने चोरी की है। उस समय कानून था कि जब तक मुजरिम अपराध न कबूल करे, उसे सजा नहीं दी जा सकती थी।
आखिरकार, उसे राजा के सामने पेश किया गया। वहां भी उसकी खूब पिटाई हुई, लेकिन चोर मानने को तैयार नहीं था। उसने अपने पिता से वचन लिया था कि चाहे कितनी भी मार पड़े, चोरी कबूल नहीं करनी है।
राजा को पता था कि चोर देवी की पूजा करते हैं और देवी की आराधना करते हैं। इसलिए पुलिस ने एक ठगनी को बुलाया। ठगनी ने देवी का भेष बनाया, दो नकली बाहें लगाईं, चारों हाथों में चार मशालें जलाईं और नकली शेर की सवारी की।
ठगनी पुलिस के साथ मिली हुई थी, इसलिए जब वह आई तो उसकी हिदायत के मुताबिक जेल के दरवाजे कड़ाक कड़ाक कर खुल गए। पहले से सब योजना बना रखी थी कि देवी जब आए तो जेल के सारे दरवाजे अपने आप खुलते जाएं।
चोर उस समय देवी की याद में बैठा हुआ था। अचानक दरवाजा खुल गया और अंधेरे कमरे में एकदम रोशनी हो गई। ठगनी, जो देवी का रूप बनाई हुई थी, देवी के रूप में ही एक खास अंदाज में बोली, “देखो भक्त, तूने मुझे याद किया और मैं आ गई। तूने अच्छा किया जो तूने चोरी नहीं बताई। अगर तूने चोरी की है तो मुझे सच-सच बता दे। मुझसे मत छुपाना। मैं तुझे तुरंत आजाद करा दूंगी।”
चोर देवी का भक्त था। अपने इष्ट को सामने खड़ा देखकर बहुत खुश हुआ। मन में सोचा कि मैं इसे सच-सच बता दूं। अभी वह बताने के लिए तैयार ही हुआ था कि उसकी नजर देवी की परछाई पर पड़ी। उसे फौरन सत्संग का वचन याद आ गया कि “देवी की परछाई नहीं होती।” उसने देखा कि इसकी तो परछाई है, समझ गया कि यह देवी नहीं, हमारे साथ छल हुआ है। यह सोचकर वह रुक गया और बोला, “माँ, मैंने चोरी नहीं की है। अगर मैंने चोरी की होती तो क्या आपको पता नहीं होता? आप तो सर्वव्यापी हैं, सब जानती हैं। अगर मैंने चोरी की होती तो आपको पता होता ही। मैंने कोई चोरी नहीं की है।”
ठगनी और पहरेदारों को विश्वास हो गया कि यह चोर नहीं है। अगले दिन उन्होंने राजा से कहा कि यह चोर नहीं है। राजा ने उसे आजाद कर दिया।
आजाद होने के बाद चोर ने सोचा कि जब सत्संग का एक वचन सुनकर मैं जेल से छूट गया, तो अगर सारी उम्र सत्संग सुनूं तो न जाने क्या-क्या लाभ मिले मुझे। यह ख्याल आते ही वह रोज सत्संग में जाने लगा और किसी पूर्ण महात्मा की शरण ले ली। उसने चोरी का रास्ता हमेशा के लिए छोड़ दिया और वह चोर एक महात्मा बन गया।
धर्म प्रेमियों, इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि सत्संग की महिमा अपरंपार है। सत्संग के बराबर न गंगा है, न यमुना, और न ही कोई अन्य तीर्थ है। कलयुग में सत्संग ही सबसे बड़ा तीर्थ है। इसलिए हमारी आपसे विनती है कि हमेशा सत्संग में जाएं और सत्संग के वचनों का अनुसरण करें।
जय श्री कृष्णा जाने दान का सही अर्थ। कृष्णा और अर्जुन की बहुत ही सुन्दर कहानी। एक बार अवश्य पढ़े।