श्रीमद्भगवद्गीता श्री कृष्ण अनमोल वचन
श्रीमद्भगवद्गीता श्री कृष्ण अनमोल वचन
1-ऐसा कोई नहीं, जिसने भी इस संसार में अच्छा कर्म किया हो और उसका बुरा अंत हुआ है, चाहे इस काल(दुनिया) में हो या आने वाले काल में।
विवरण: कहा जाया है “कर्म ही धर्म है” इसलिए हमें कर्म करते जाना चाहिए फल अपने आप हमें मिलेगा। इस दुनिया में जितने भी लोग सफल हुए हैं सब लोग अपने कर्म के लिए ही हुए हैं। उन्होंने बिना कुछ सोचे समझे लोगों की नकारात्मक बातों को अपने से दूर रख कर अपने कार्यों को पूर्ण किया और आखरी में उन्हें सफलता प्राप्त हुई।
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हे अर्जुन !, मैं भूत, वर्तमान और भविष्य के सभी प्राणियों को जानता हूँ, किन्तु वास्तविकता में कोई मुझे नहीं जानता.
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2-जो भी मनुष्य अपने जीवन अध्यात्मिक ज्ञान के चरणों के लिए दृढ़ संकल्पों में स्थिर है, वह सामान रूप से संकटों के आक्रमण को सहन कर सकते हैं, और निश्चित रूप से यह व्यक्ति खुशियाँ और मुक्ति पाने का पात्र है।
विवरण: अगर आप अपने लक्ष्य को पाने के लिए दृढ़ सकल्प ले लेते हैं और दिन-रात कड़ी मेहनत करते हैं तो आपके रास्ते में जितने भी संकट/मुश्किलें आयें, आप उनको पार कर जायेंगे।
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3-जो खुशियाँ बहुत लम्बे समय के परिश्रम और सिखने से मिलती है, जो दुख से अंत दिलाता है, जो पहले विष के सामान होता है, परन्तु बाद में अमृत के जैसा होता है – इस तरह की खुशियाँ मन की शांति से जागृत होतीं हैं।
विवरण: जब कोई व्यक्ति अपने लक्ष्य पर सफलता प्राप्त कर लेता है, तो उसके जीवन के सभी दुख अपने आप ख़त्म हो जाते हैं, जीवन में नया उमंग और खुशियाँ भर जाती हैं।
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4-भगवान या परमात्मा की शांति उनके साथ होती है जिसके मन और आत्मा में एकता/सामंजस्य हो, जो इच्छा और क्रोध से मुक्त हो, जो अपने स्वयं/खुद के आत्मा को सही मायने में जानते हों।
विवरण: सही मायने में जो मनुष्य क्रोध से मुक्त होता है, और जिसके मन में एक जूट होने की इच्छा होती है, वह सच्चा होता है, भगवान हमेंशा उसके साथ होते हैं।
5-नरक तीन चीजों से नफरत करता है: वासना, क्रोध और लोभ।
विवरण: परमात्मा कहते हैं ! जो भी मनुष्य अपने जीवन में नफरत की भावना, लोभ मोह माया, वासना रखते है उनके लिए नरक ही सही जगह होता है।
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6-किसी दुसरे के जीवन के साथ पूर्ण रूप से जीने से बेहतर है की हम अपने स्वयं के भाग्य के अनुसार अपूर्ण जियें।
विवरण: हमें अपने जीवन में मेहनत करना चाहिए दूसरों के जीवन की उन्नति और सफलता को भूला कर अपने जीवन से नकारात्मक विचारों को दूर कर अपने भाग्य को उज्जवल बनाना चाहिए।
7-एक उपहार तभी पवित्र है जब वह हृदय से किसी सही व्यक्ति को सही समय और सही जगह पर दिया जाये, और जब उपहार देने वाला व्यक्ति दिल में उस उपहार के बदले कुछ पाने की उम्मीद ना रखता हो।
विवरण: हमें इस जीवन में जो भी करना चाहिए सोच समझ कर करना चाहिए, और सही समय पर करना चाहिए। हमें समय और दुसरे लोगों दोनों को सम्मान देना चाहिए और दिल खोल कर उनका मदद करना चाहिए।
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8-अपने कर्म पर अपना दिल लगायें, ना की उसके फल पर।
विवरण: इसके विषय में हमने पहले भी बताया जीवन में कर्म करके फल की आशा से जीवन में असफलता प्राप्त होती है ना की सफलता।
9-सभी काम धयान से करो, करुणा द्वारा निर्देशित किये हुए।
विवरण: दिल में दया की भावना रखना चाहिए, इससे मनुष्य का दरजा बढ़ता है।
10-हर व्यक्ति का विश्वास उसकी प्रकृति के अनुसार होता है.
विवरण: जीवन से स्वार्थ को भूल कर त्याग भावना को लाना चाहिए।
11-अपने कर्त्तव्य का पालन करना जो की प्रकृति द्वारा निर्धारित किया हुआ हो, वह कोई पाप नहीं है।
विवरण: अपनी सही जिम्मदारियों को करने में कोई झिजक नहीं होना चाहिए।
12-आपको कर्म करने का अधिकार है, परन्तु फल पाने का नहीं। आपको इनाम या फल पाने के लिए किसी भी क्रिया में भाग नहीं लेना चाहिए, और ना ही आपको निष्क्रियता के लिए लम्बे समय तक करना चाहिए। इस दुनिया में कार्य करें, अर्जुन, एक ऐसे आदमी जिन्होंने अपने आपको स्वयं सफल बनाया, बिना किसी स्वार्थ के और चाहे सफलता हो या हार हमेशा एक जैसे।
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विवरण: अगर हम फल की आशा में कार्य करेंगे तो ना हमारे कार्य सफल हो पाएंगे और ना ही हम अपने लक्ष्य तक पहुँच पाएंगे।
13-सन्निहित आत्मा के अनंत का अस्तित्व है, अविनाशी और अनंत है, केवल भौतिक शरीर तथ्यात्मक रूप से खराब है, इसलिए हे अर्जुन लड़ते रहो।
विवरण: हमारे अंतर मन की शक्ति और सोच ही असली है, बहार का शरीर मात्र एक काल्पनिक रूप है जो हमाको इस दुनिया में एक ढांचा देता है।
14-गर्मी और सर्दी, खुशी और दर्द की भावनाएं, उनकी वस्तुओं के साथ होश से संपर्क के कारण होता है। वे आते हैं और चले जाते हैं, लम्बे समय तक बरक़रार नहीं रहते हैं। आपको उन्हें स्वीकार करना चाहिए।
विवरण: पिथ्वी में जिस प्रकार मौसम में परिवर्तन आता है उसी प्रकार जीवन में भी सुख-दुख आता जाता रहता है।
15-मैं आत्मा हूँ, जो सभी प्राणियों के हृदय/दिल से बंधा हुआ हूँ। मैं साथ ही शुरुवात हूँ, मध्य हूँ और समाप्त भी हूँ सभी प्राणियों का।
विवरण: भगवन कहते हैं वो सबके दिल में हैं, और हर समय सभी लोगों के साथ हूँ।
16-सभी वेदों में से मैं साम वेद हूँ, सभी देवों में से मैं इंद्र हूँ, सभी समझ और भावनाओं में से मैं मन हूँ, सभी जीवित प्राणियों में मैं चेतना हूँ।
विवरण: श्री कृष्णा प्रभु जी कहते हैं वे मनुष्य हो या देव गण सभी जगह मौजूद हैं।
17-हम जो देखते/निहारते हैं वो हम है, और हम जो हैं हम उसी वस्तु को निहारते हैं। इसलिए जीवन में हमेशा अच्छी और सकारात्मक चीजों को देखें और सोचें।
विवरण: हमें हमेशा सकारात्मक चीजों को देखना चाहिए और सकारात्मक सोच रखना चाहिए क्योंकि यह हमारे अस्तित्व को लोगों के सामने व्यक्त करता है।
18-वह मैं हूँ, जो सभी प्राणियों के दिल/ह्रदय में उनके नियंत्रण के रूप में बैठा हूँ; और वह मैं हूँ, स्मृति का स्रोत, ज्ञान और युक्तिबाद संबंधी. दोबारा, मैं ही अकेला वेदों को जानने का रास्ता हूँ, मैं ही हूँ जो वेदों का मूल रूप हूँ और वेदों का ज्ञाता हूँ।
19- स्वर्ग प्राप्त करने और वहां कई वर्षों तक वास करने के पश्चात एक असफल योगी का पुन: एक पवित्र और समृद्ध कुटुंब में जन्म होता है.
20-वह जो इस ज्ञान में विश्वास नहीं रखते, मुझे प्राप्त किये बिना जन्म और मृत्यु के चक्र का अनुगमन करते हैं.
21-बुद्धिमान व्यक्ति को समाज कल्याण के लिए बिना आसक्ति के काम करना चाहिए.
22-जो व्यक्ति आध्यात्मिक जागरूकता के शिखर तक पहुँच चुके हैं , उनका मार्ग है निःस्वार्थ कर्म . जो भगवान् के साथ संयोजित हो चुके हैं उनका मार्ग है स्थिरता और शांति.
23-आपका अपने कर्म पर नियंत्रण है, परन्तु किसी परिणाम पर दावा करने का नियंत्रण नहीं। असफलता के डर से, किसी कार्य के फल से भावनात्मक रूप से जुड़े रहना, सफलता के लिए सबसे बड़ी बाधा है, क्योंकि यह लगातार कार्यकुशलता को परेशान कर के धैर्य को लूटता है।
24-केवल मन ही किसी का मित्र और शत्रु होता है.
25-मैं सभी प्राणियों के ह्रदय में विद्यमान हूँ.
26-वह जो मृत्यु के समय मुझे स्मरण करते हुए अपना शरीर त्यागता है, वह मेरे धाम को प्राप्त होता है. इसमें कोई शंशय नहीं है.
27-हजारों लोगों में से, कोई एक ही पूर्ण रूप से कोशिश/प्रयास कर सकता है, और वो जो पूर्णता पाने में सफल हो जाता है, मुश्किल से ही उनमे से कोई एक सच्चे मन से मुझे जनता हैं।
28-स्वार्थ से भरा हुआ कार्य इस दुनिया को कैद में रख देगा। अपने जीवन से स्वार्थ को दूर रखें, बिना किसी व्यक्तिगत लाभ के।
29-यद्द्यापी मैं इस तंत्र का रचयिता हूँ, लेकिन सभी को यह ज्ञात होना चाहिए कि मैं कुछ नहीं करता और मैं अनंत हूँ.
30-वह जो सभी इच्छाएं त्याग देता है और “मैं ” और “मेरा ” की लालसा और भावना से मुक्त हो जाता है उसे शांती प्राप्त होती है.
31-मेरे लिए ना कोई घृणित है ना प्रिय.किन्तु जो व्यक्ति भक्ति के साथ मेरी पूजा करते हैं , वो मेरे साथ हैं और मैं भी उनके साथ हूँ.
32-मैं ऊष्मा देता हूँ, मैं वर्षा करता हूँ और रोकता भी हूँ, मैं अमरत्व भी हूँ और मृत्यु भी.
33-बुरे कर्म करने वाले, सबसे नीच व्यक्ति जो राक्षसी प्रवित्तियों से जुड़े हुए हैं, और जिनकी बुद्धि माया ने हर ली है वो मेरी पूजा या मुझे पाने का प्रयास नहीं करते.
34-जो कार्य में निष्क्रियता और निष्क्रियता में कार्य देखता है वह एक बुद्धिमान व्यक्ति है.
35-मैं धरती की मधुर सुगंध हूँ. मैं अग्नि की ऊष्मा हूँ, सभी जीवित प्राणियों का जीवन और सन्यासियों का आत्मसंयम हूँ.
36-भले ही सबसे बड़ा पापी दिल से मेरी पूजा/तपस्या करे, वह अपने सही इच्छा की वजह से सही होता है। वह जल्द ही शुद्ध हो जाते हैं और चिरस्तायी/अनंत शांति प्राप्त करते हैं। इन शब्दों में मेरी प्रतिज्ञा है, जो मुझे प्रेम/प्यार करते हैं, वह कभी नष्ट नहीं होते।
37-मैं समय हूँ, सबका नाशक, मैं आया हूँ दुनिया को उपभोग करने के किये।
38-तुम उसके लिए शोक करते हो जो शोक करने के योग्य नहीं हैं, और फिर भी ज्ञान की बाते करते हो.बुद्धिमान व्यक्ति ना जीवित और ना ही मृत व्यक्ति के लिए शोक करते हैं.
39-कभी ऐसा समय नहीं था जब मैं, तुम,या ये राजा-महाराजा अस्तित्व में नहीं थे, ना ही भविष्य में कभी ऐसा होगा कि हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाये.
40-कर्म मुझे बांधता नहीं, क्योंकि मुझे कर्म के प्रतिफल की कोई इच्छा नहीं.
41-हे अर्जुन ! हम दोनों ने कई जन्म लिए हैं. मुझे याद हैं, लेकिन तुम्हे नहीं.
42-वह जो वास्तविकता में मेरे उत्कृष्ट जन्म और गतिविधियों को समझता है, वह शरीर त्यागने के बाद पुनः जन्म नहीं लेता और मेरे धाम को प्राप्त होता है.
43-अपने परम भक्तों, जो हमेशा मेरा स्मरण या एक-चित्त मन से मेरा पूजन करते हैं, मैं व्यक्तिगत रूप से उनके कल्याण का उत्तरदायित्व लेता हूँ.
44-क्योंकि भौतिकवादी श्री कृष्ण के अध्यात्मिक बातों को समझ नहीं सकते हैं, उन्हें यह सलाह दी जाती है कि वे शारीरिक बातों पर अपना ध्यान केन्द्रित करें और देखने की कोशिश करें की कैसे श्री कृष्ण अपने शारीरिक अभ्यावेदन से प्रकट होते हैं।
45-वासना, क्रोध और लालच नरक के तीन दरवाजे हैं।
46-कर्म योग वास्तव में एक परम रहस्य है.
47-कर्म उसे नहीं बांधता जिसने काम का त्याग कर दिया है.
48-क्रोध से पूरा भ्रम पैदा होता है, और भ्रम से चेतना में घबराहट। अगर चेतना ही घबराया हुआ है, तो बुद्धि तो घटेगी ही, और जब बुद्धि में कमी आएगी तो एक के बाद एक गहरे खाई में जीवन डूबती नज़र आएगी। जीवन मैं कभी भी घुस्सा/क्रोध ना करें यह आपके जीवन के ध्वंस कर देगा।
49-सभी अच्छे काम छोड़ कर बस भगवान में पूर्ण रूप से समर्पित हो जाओ. मैं तुम्हे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा. शोक मत करो.
50-क्रोध से पूरा भ्रम पैदा होता है, और भ्रम से चेतना में घबराहट। अगर चेतना ही घबराया हुआ है, तो बुद्धि तो घटेगी ही, और जब बुद्धि में कमी आएगी तो एक के बाद एक गहरे खाई में जीवन डूबती नज़र आएगी।
51-किसी और का काम पूर्णता से करने से कहीं अच्छा है कि अपना काम करें, भले ही उसे अपूर्णता से करना पड़े.
52-मैं उन्हें ज्ञान देता हूँ जो सदा मुझसे जुड़े रहते हैं और जो मुझसे प्रेम करते हैं.
53-वह जो अपने भीतर अपने स्वयं से खुश रहता है, जिसके मनुष्य जीवन एक आत्मज्ञान है, और जो अपने खुद से संतुष्ट हैं, पूरी तरीके से तृप्त है – उसके लिए जीवन में कोई कर्म नहीं हैं।
54-अपनी इच्छा शक्ति के माध्यम से अपने आपको नयी आकृति प्रदान करें। कभी भी स्वयं को अपन आत्म इच्छा से अपमानित न करें। इच्छा एक मात्र मित्र/दोस्त होता है स्वयं का, और इच्छा ही एक मात्र शत्रु है स्वयं का।
55-मैं सभी प्राणियों को सामान रूप से देखता हूँ; ना कोई मुझे कम प्रिय है ना अधिक. लेकिन जो मेरी प्रेमपूर्वक आराधना करते हैं वो मेरे भीतर रहते हैं और मैं उनके जीवन में आता हूँ.
56-प्रबुद्ध व्यक्ति सिवाय ईश्वर के किसी और पर निर्भर नहीं करता.
57-हे अर्जुन, केवल भाग्यशाली योद्धा ही ऐसा युद्ध लड़ने का अवसर पाते हैं जो स्वर्ग के द्वार के सामान है.
58-भगवान प्रत्येक वस्तु में है और सबके ऊपर भी.
59-बुद्धिमान व्यक्ति कामुक सुख में आनंद नहीं लेता.
60-व्यक्ति जो चाहे बन सकता है यदि वह विश्वास के साथ इच्छित वस्तु पर लगातार चिंतन करे.
61-उससे मत डरो जो वास्तविक नहीं है, ना कभी था ना कभी होगा.जो वास्तविक है, वो हमेशा था और उसे कभी नष्ट नहीं किया जा सकता.
62-मनुष्य को अपने धर्म के अनुसार कर्म करना चाहिए।जैसे – विद्यार्थी का धर्म विद्या प्राप्त करना, सैनिक का धर्म देश की रक्षा करना आदि। जिस मानव का जो कर्तव्य है उसे वह कर्तव्य पूर्ण करना चाहिए।
63-एक ज्ञानवान व्यक्ति कभी भी कामुक सुख में आनंद नहीं लेता।
64-अगर ज्ञान के बाद घमंड का जन्म होता हैं, तो वह ज्ञान जहर हैं। अगर ज्ञान के बाद नम्रता का जन्म होता हैं तो वह ज्ञान अमृत हैं।
65-अच्छाई और बुराई इंसान के कर्मों में होती है ,कोई बांस का तीर बनाकर किसी को घायल करता हैं तो कोई बांसुरी बजाकर बांस को सुख से भरता हैं ।
भगवत गीता के अनमोल वचन कौन से हैं, जो हमारी सोच और मन को बदल देते हैं?
मनुष्य का मन इन्द्रियों के चक्रव्यूह के कारण भ्रमित रहता है। जो वासना, लालच, आलस्य जैसी बुरी आदतों से ग्रसित हो जाता है। इसलिए मनुष्य का अपने मन एवं आत्मा पर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए।
जिसने मन को जीत लिया है, उसने पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है, क्योंकि उसने शान्ति प्राप्त कर ली है। ऐसे मनुष्य के लिए सुख-दुख, सर्दी-गर्मी और मान-अपमान एक से है।
न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के मालिक हो। यह शरीर 5 तत्वों से बना है – आग, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश। एक दिन यह शरीर इन्ही 5 तत्वों में विलीन हो जाएगा।
नरक के तीन द्वार होते है, वासना, क्रोध और लालच।
परमात्मा को प्राप्ति के इच्छुक ब्रम्हचर्य का पालन करते है।
एक ज्ञानवान व्यक्ति कभी भी कामुक सुख में आनंद नहीं लेता।
कोई भी इंसान जन्म से नहीं बल्कि अपने कर्मो से महान बनता है।
Shrimad Bhagwat Geeta | श्रीमद्भगवद्गीता का महत्व | आध्यात्मिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण
Shrimad Bhagwat Geeta -श्रीमद् भगवद् गीता, जिसे हम केवल ‘गीता’ के नाम से भी जानते हैं, हिन्दू धर्म का एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह महाभारत के भीष्म पर्व का हिस्सा है और भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेशों का संग्रह है। गीता में जीवन, धर्म, कर्म, योग, और मोक्ष के गूढ़ रहस्यों को सरल और प्रभावी ढंग से समझाया गया है। इसके श्लोकों में न केवल आध्यात्मिक ज्ञान, बल्कि व्यावहारिक जीवन जीने की कला भी निहित है।
यह ग्रंथ सदियों से मनुष्य को जीवन की जटिलताओं से निपटने और आत्मज्ञान प्राप्त करने का मार्गदर्शन प्रदान करता आ रहा है। गीता के अध्ययन से मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य और कर्तव्यों को समझने में सक्षम होता है, और इसी कारण यह विश्वभर में अत्यंत पूजनीय और आदरणीय है।
श्रीमद् भागवत गीता में क्या लिखा है? | Shrimad Bhagwat Geeta
गीता या फिर किसी भी पाठ से ज्ञान को प्राप्त करने के चार स्तर होते हैं-
- श्रवण या पठन ज्ञान
- मनन ज्ञान
- निदिध्यासन ज्ञान
- अनुभव ज्ञान
इन चारों स्तर से गुजरने के बाद ही किसी भी ज्ञान की पूर्णता होती है और इससे समुचित लाभ होता है. इसका अर्थ यह है कि आप पहले पढ़ते या सुनते हैं. इसके बाद पढ़े-सुने ज्ञान के बारे में चिंतन व मनन करते हैं. यदि वह आपको ठीक और उपयोगी लगती है तब उसका अभ्यास कर उसे अपने जीवन में उतारते हैं और आखिर में उस ज्ञान का प्रतिफल आपको मिलता है.
श्रीमद् भागवत गीता कैसे पढ़ना चाहिए?
पाठ करते समय पूरी एकाग्रता रखना आवश्यक होता है इसलिए बीच-बीच में बोलना नहीं चाहिए और न ही इधर-उधर की बातों पर ध्यान देना चाहिए। प्रतिदिन भगवद्गीता को एक निश्चित समय और निश्चित अवधि में पढ़ना चाहिए।
भगवद्गीता मनुष्य को सही राह दिखाती है और अच्छे कर्म करने के लिए प्रेरित करती है इसलिए जब गीता के वचनों को अपने जीवन में भी पालन करने की कोशिश करें।
जो व्यक्ति प्रतिदिन गीता पढ़ने के साथ ही उसे अपने जीवन में भी पालन करता है, भगवान श्रीकृष्ण सदैव उसके साथ रहते हैं।
भगवत गीता किसने लिखी और कब?
श्रीमद् भगवत गीता के सर्वोत्तम जीवन सबक क्या हैं?
आजकल बहुत ही कम लोग श्रीमद्भागवतगीता कंठस्थ करते है। अगर आपके मन में अनेकों सांसरिक से संबंधित प्रश्न है जिसका उत्तर कही भी नहीं मिलता,यहां तक कि गूगल पर भी नहीं, तो अनुभव सांझा करते हुए व्यक्तिगत रूप से श्रीमद्भागवतगीता के पाठों को कंठस्थ करनें का सुझाव दूंगी।
चाहे कर्म की बात हो या युद्ध की,चाहे रिश्तों की बात हो या अलगाव की,चाहे अकेले आप की बात हो या बिन मोह-माया की,सभी प्रश्नों का उत्तर होता है इस संसारिक सार से अद्भुत उपदेशों के सार में।
यूं तो जीवन सबसे बड़ा और बेहद ही खुबसूरत पल है पर असल में सच एक है वो है एक शरीर का छोड़कर दूसरे शरीर में जाना, ठीक वैसे ही जैसे हम एक वस्त्र को पहनकर दूसरे दिन स्वयं को खुबसूरत और तरोताज़ा महसूस करनें के लिए पहनते है।
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ये सबक थोड़ा कड़वा है, बिल्कुल ही,पर चाहे आप मानें या ना मानें जीवन का आखिरी और परम सत्य यही है।
वासांसि जीर्णानी यथा विहाय।
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।
भावार्थ:
शरीर नश्वर हैं,पर जो सच है वो है आत्मा क्योंकि वो ही अमर है। यह तथ्य जानने पर भी व्यक्ति अपने इस नश्वर शरीर पर घमंड करता है जो कि करना बेकार है।
शरीर पर घमंड करनें से अच्छा है उस सत्य को स्वीकारें जो सत्य है और असल जिदंगी का सार्थक सत्य है!!
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श्रीमद्भगवद्गीता में 18 अध्याय कौन से हैं:
- अर्जुन विषाद योग
- सांख्ययोग
- कर्मयोग
- ज्ञान-कर्म-संन्यास योग
- कर्म-संन्यास योग
- आत्म संयम योग
- ज्ञान-विज्ञानं योग
- अक्षर-ब्रह्म योग
- राज विद्या गुह्ययोग
- विभूति योग
- विश्वरूप दर्शन योग
- भक्ति योग
- विभाग योग
- गुण-त्र य विभाग योग
- पुरुषोतम योग
- दैवासुरसंपद्विभागयोग
- श्र्द्धात्रयविभाग योग
- मोक्षसंन्यासयोग
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गीता में अर्जुन को कितने नामों से बुलाया गया है?
2.कपिध्वज
3.गुदकेश
4.पृथापुत्र
5.अर्जुन
6.गुदकेश
7.परंतप
8.पुरुषश्रेष्ठ
9.भारतवंशी अर्जुन
10.भारत
11.पार्थ
12.धनंजय
13.कौन्तेय
14.महाबाहो
15.कुरु श्रेष्ठ
16.परंतप
17.कुरुनन्दन
18.कुंती पुत्र
19.पाण्डु पुत्र
20.सव्यसाचिन
21.कुरु प्रवीर
भगवत गीता पढ़ने के फायदे
Bhagavad Gita: ऐसा कहा जाता है कि घर में भगवद गीता जरूर रखनी चाहिए और रोजाना इसका पाठ भी करना चाहिए। भगवद गीता का पाठ करने से जीवन की कई समस्याओं का हल मिलता है। भगवद गीता का पाठ करने से व्यक्ति में न सिर्फ सोचने समझने की क्षमता बढ़ती है बल्कि उसे कई प्रकार के गुप्त लाभ भी होते हैं।
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- गीता का पाठ करने से ज्ञान के साथ साथ मन की शांति की भी प्राप्ति होती है।
- गीता का पाठ रोजाना करने से जीवन की परेशानियों के हल मिल जाते हैं।
- गीता के पाठ को नियमित रूप से करने से कष्टों से मुक्ति मिल जाती है।
- गीता का पाठ करने से गृह शांति के साथ साथ ग्रहों की भी शांति (ग्रहों की शांति के उपाय) होती है।
- गीता का पाठ करने से कुंडली में मौजूद किसी भी प्रकार का दोष दूर होता है।
- गीता का पाठ करते समय हाथ में सूत्र यानी कि धागा बांधने से नकारात्मक शक्तियां दूर रहती हैं।
- गीता का पाठ करने से व्यक्ति ऊपरी बाधाओं की चपेट में आने से बचा रहता है।
- गीता का पाठ नियमित रूप से करने से मृत्यु के बाद पिशाच योनी से मुक्ति मिल जाती है।
- गीता का पाठ करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
- गीता का पाठ बीमारियों से भी छुटकारा दिला सकता है।
- अगर गीता पाठ के साथ साथ घर में यज्ञ करवाया जाए तो इससे वास्तु दोष का निवारण भी हो जाता है।
गीता के अनुसार सबसे बड़ा पुण्य क्या है | What is the greatest virtue according to Geeta
गीता के 16वें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने आदर्श दिव्य गुण वाले सुसंस्कृत पुरुष के बारे में बताया है। उसका अंतःकरण शुद्ध होता है, ज्ञानी व योगी होता है, दान करता है, इन्द्रियों को संयम में रखता है, स्वयं का अध्ययन करता है। तपस्या, सरलता, अहिंसा, सत्यता, क्रोध से मुक्त, सभी के प्रति उसके मन में दया एवं करुणा भाव होते हैं, लोभ से मुक्त, वाणी में मधुरता और विनयशीलता होती है। तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता को धारण करके इस प्रकार इन्द्रियों को संयम में रखकर, लोक कल्याण की भावना से युक्त, फल की इच्छा से मुक्त, प्रभु की याद में और प्रभु को समर्पित कर किए हुए कर्म को पुण्य कहा जाएगा।
जिस प्रकार सामान्य मनुष्य के मन में अच्छा कर्म करने के बाद खुशी की भावना उत्पन्न होना स्वाभाविक है, उसी प्रकार निरन्तर अभ्यास और वैराग्य से पवित्र किए गए मन में खुशी की भावना उत्पन्न न होना भी स्वाभाविक होता है। अर्थात निष्काम भावना से कर्म करना तभी संभव है जब मन अत्यन्त पवित्र हो चुका हो।
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मनुष्य अपनी आत्मा की सुने बिना कोई अधर्म करता है, किसी को हानि पहुंचाता है, ऐसा कर्म करता है तो वह निश्चित ही पाप कर्म है। कोई व्यक्ति भगवा वस्त्र धारण कर ले तो जरूरी नहीं कि वह जो कर्म करेगा वह पुण्य कर्म ही होगा।
हमारे धर्म-पंथ की मान्यताओं के अनुसार जीव के द्वारा मनुष्य योनि (जीव की कर्म-योनि) में की गई क्रियाएँ उभय-रूप होती हैं, अर्थात् उनसे दो प्रकार के फल मिलते हैं — पुण्य फल और पाप फल।
पुण्य फल सुखदायक होते हैं और पाप फल दुःखदायक होते हैं। दोनों प्रकार के कर्म-फलों को अलग-अलग भोगना पड़ता है। वे एक-दूसरे को निरस्त नहीं करते।
कर्म-फलों को भोगने के लिए जीव को नरक योनियां, देवता (स्वर्ग)-योनियां और मनुष्य योनियां मिलती हैं। मनुष्य योनि में नए कर्म-फल न जुड़ें उसके लिए गीता में जो उपाय बताया गया है वह यह है कि मनुष्य योनि में आया हुआ जीव जो भी कर्म करे, वह निष्काम भाव से करे, क्योंकि निष्काम भाव से किए गए कर्मों के कोई पाप या पुण्य फल नहीं होते।
यह जानते हुए कि पाप करना गलत है, फिर भी व्यक्ति पाप क्यों करता है? दोस्तों, इस धरती पर शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने अपने जीवन में कभी कोई पाप न किया हो। उसने जाने-अनजाने में कोई न कोई ऐसा काम जरूर किया होगा जो पाप की श्रेणी में आता हो।
पुरानी कथाओं के अनुसार, एक बार कुंती पुत्र अर्जुन ने भगवान वासुदेव से पूछा कि मनुष्य ना चाहते हुए भी पाप क्यों करता है और उसका फल भोगने के लिए नरक में क्यों जाता है। अर्जुन की ये बातें सुनकर भगवान श्री कृष्ण मुस्कुराते हुए उत्तर देते हैं कि इसके पीछे मनुष्य की कामना है। जो मनुष्य से भिन्न प्रकार के पाप करने के लिए प्रेरित करती है और कामना से उत्पन्न होने वाले क्रोध और लोभ मनुष्य को पाप कर्म के दुष्चक्र में फंसा देते हैं और उसकी दुर्गति हो जाती है।
मनुष्य के मन, इंद्रियों, बुद्धि, अहम् और विषयों में कामना का वास होता है। कामना ही इंसान का बैरी है और यहीं उसके पतन का असली कारण भी है। परंतु इंसान को अपने ज्ञान रूपी चक्र में इसको भेदना चाहिए। मनुष्य के यही कार्य उसके बंधन का कारण बनते हैं। लेकिन यदि यही कार्य दूसरों के हित के लिए किए जाते हैं तो वह मुक्ति का कारण बन जाते हैं।
गीता के अनुसार, दूसरों के लिए कर्म करना ही यज्ञ है। इसके साथ ही गीता में कई प्रकार के यज्ञ भी बताए गए हैं। जैसे दूसरों के हित में समय, संपत्ति और साधन लगाना द्रव यज्ञ है, वही ईश्वर के प्रताप के उद्देश्य से योग करना योग यज्ञ है, इंद्रियों का संयम करने के लिए संयम यज्ञ है, भगवान की शरण में जाने के लिए भक्ति यज्ञ है, अपने आप को जानने के लिए यज्ञ करना, महायज्ञ कहा जाता है जो सारे यज्ञों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। वह है ज्ञान यज्ञ।
सत्संग भी इसका एक सीधा रास्ता माना जाता है जिसके माध्यम से विवेक प्राप्त होता है। यह विवेक ही यज्ञ की सामग्री है। श्रद्धा, उत्कर्ष, अभिलाषा और इंद्रिय संयम यज्ञ का यंत्र है। इसलिए हमें कोशिश करनी चाहिए कि ज्ञान यज्ञ में अपनी सभी कामनाओं की आहुति देकर हम जीवन को मुक्ति की ओर प्रस्थान करें।
हमारे शास्त्रों में इस बात का उल्लेख अच्छी तरह से किया गया है कि किस प्रकार के पाप कर्म करने से हमें किस योनि में जन्म मिलता है। जैसे कि अगर कोई व्यक्ति अपने से बड़े का आदर नहीं करता, हमेशा उनका अपमान करता है, कभी भी उनकी किसी कार्य में मदद नहीं करता है तो अगले सौ वर्षों तक क्रंच पक्षी की योनि में बिताने पड़ते हैं, तब जाकर उनको मनुष्य योनि में जन्म मिलता है। गरुड़ पुराण के अनुसार वे स्त्री और पुरुष जो अपने जीवन में कुकर्म करते हैं, वह नरक की यातनाएं भोगते हैं।
श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता में कहा है कि हे पार्थ, जैसे सूर्य उदय होते ही रात का अंधकार नष्ट हो जाता है वैसे ही ज्ञान का प्रकाश, ज्ञान के अंधकार को नष्ट कर देता है। फिर मनुष्य परमात्मा की ओर जाने वाले मार्ग से कभी भटकता नहीं, कभी विचलित नहीं होता। ज्ञान का साक्षात्कार होने के कारण मनुष्य जान जाता है कि एक ही कर्म पुण्य कैसे बनता है और वही कर्म पाप कैसे बन जाता है।
कहानी:गीता के अनुसार पुण्य क्या है?
एक दिन चेन्नई में समुद्र के किनारे धोती व शाल पहने हुए एक सज्जन भगवद गीता पढ़ रहे थे, तभी वहां एक लड़का आया और बोला, आज साइंस का जमाना है, फिर भी आप लोग ऐसी किताबे पढ़ते हो, देखिए जमाना चांद पर पहुंच गया है और आप लोग वही गीता और रामायण पर ही अटके हुए हो? उन सज्जन ने उस लड़के से पूछा, आप गीता के विषय में क्या जानते हो? वह लड़का जोश में आकर बोला अरे छोड़ो! मैं विक्रम साराभाई रीसर्च संस्थान का छात्र हूँ, आई एम ए साइंटिस यह गीता बेकार है हमारे लिये।
वह सज्जन हसने लगे, तभी दो बड़ी बड़ी गाड़िया वहां आयीं। एक गाड़ी से कुछ ब्लैक कमांडो निकले और एक गाड़ी से एक सैनिक, ने पीछे का दरवाजा खोला तो वो सज्जन पुरुष चुपचाप गाड़ी में जाकर बैठ गये। लड़का यह सब देखकर हक्का बक्का था, उसने दौड़कर उनसे पूंछा, सर आप कौन हो? वह सज्जन बोले, मैं विक्रम साराभाई हूँ। सुनकर लड़के को 440 वोल्टस का झटका लगा।
इसी भगवद गीता को पढ़कर डॉ. अब्दुल कलाम ने आजीवन मांस न खाने की प्रतिज्ञा कर ली थी।
दोस्तों, गीता आपने आपमें महाविज्ञान है। गीता में मनुष्य के जीवन के समस्त समस्याओं का उत्तर है।
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