श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार पुण्य और पाप क्या है | What is the greatest virtue and sin according to Geeta in hindi

श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार पुण्य और पाप क्या है -यह जानते हुए कि पाप करना गलत है, फिर भी व्यक्ति पाप क्यों करता है? दोस्तों, इस धरती पर शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने अपने जीवन में कभी कोई पाप न किया हो। उसने जाने-अनजाने में कोई न कोई ऐसा काम जरूर किया होगा जो पाप की श्रेणी में आता हो।

बूंद बूंद से सरिता और सरोवर बनते हैं, ऐसे ही छोटे-छोटे पुण्य महापुण्य बनते हैं। छोटे-छोटे सद्गुण समय पाकर मनुष्य में ऐसी महानता लाते हैं कि व्यक्ति बंधन और मुक्ति के निज स्वरूप को निहार कर शिव स्वरूप हो जाता है। किसी भी काम का फल शाश्वत नहीं है। पुण्य का फल शाश्वत नहीं और पाप का फल भी शाश्वत नहीं। केवल ज्ञान का फल और परमात्मा के साक्षात्कार का फल ही शाश्वत है, दूसरा कुछ भी शाश्वत नहीं है।

पुण्य का फल सुख भोगकर नष्ट हो जाता है, पाप का फल दुख भोगने से नष्ट हो जाता है। इसलिए शास्त्रों में कहा गया है कि पुण्य का फल ईश्वर को समर्पित करने से हृदय शुद्ध होता है। शुद्ध हृदय में शुद्ध स्वरूप को पाने की जिज्ञासा जागती है। तब वेदांत के वचन समझ में आते हैं।

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किसी व्यक्ति ने कुछ कार्य किया, उसको ज्यों का त्यों जानना सामाजिक सत्य है, परम सत्य नहीं। परम सत्य किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के बारे में नहीं होता। उस सत्य में तो अनंत-अनंत व्यक्ति और ब्रह्मांड पैदा होकर लीन हो जाते हैं। जिस सत्य में एक तिनका भर भी हेर-फेर, कटौती-बढ़ोतरी नहीं होती, वही परम सत्य है। उस परम सत्य को पाने के लिए ही मनुष्य जन्म मिला है। इस प्रकार का दिव्य ज्ञान पाने का जब तक लक्ष्य नहीं बनता है, तब तक किसी न किसी अवस्था में हमारा मन रुक जाता है।

 

गीता में पुण्य की परिभाषा क्या है और कौन से अध्याय में कहीं गयी है यह स्पष्टतः कह पाना मुश्किल है। परंतु ब्रह्मविद्या में, जो एक प्रकार से गीता का सरल रूप है, पुण्य को उसके मिलने वाले कर्मफल के माध्यम से बताया गया है। जिस कर्म का फल कोई छोटा या बड़ा सांसारिक सुख होता है, उसे पुण्य कहते हैं। और इसी प्रकार जिस कर्म का फल कोई छोटा या बड़ा सांसारिक दुःख होता है, वह पाप कहलाता है।

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श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार पुण्य और पाप क्या है

 

श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार पुण्य और पाप | greatest virtue according to Bhagwat Geeta in hindi

मनुष्य अपनी आत्मा की सुने बिना कोई अधर्म करता है, किसी को हानि पहुंचाता है, ऐसा कर्म करता है तो वह निश्चित ही पाप कर्म है। कोई व्यक्ति भगवा वस्त्र धारण कर ले तो जरूरी नहीं कि वह जो कर्म करेगा वह पुण्य कर्म ही होगा।

हमारे धर्म-पंथ की मान्यताओं के अनुसार जीव के द्वारा मनुष्य योनि (जीव की कर्म-योनि) में की गई क्रियाएँ उभय-रूप होती हैं, अर्थात् उनसे दो प्रकार के फल मिलते हैं — पुण्य फल और पाप फल।

पुण्य फल सुखदायक होते हैं और पाप फल दुःखदायक होते हैं। दोनों प्रकार के कर्म-फलों को अलग-अलग भोगना पड़ता है। वे एक-दूसरे को निरस्त नहीं करते।

कर्म-फलों को भोगने के लिए जीव को नरक योनियां, देवता (स्वर्ग)-योनियां और मनुष्य योनियां मिलती हैं। मनुष्य योनि में नए कर्म-फल न जुड़ें उसके लिए गीता में जो उपाय बताया गया है वह यह है कि मनुष्य योनि में आया हुआ जीव जो भी कर्म करे, वह निष्काम भाव से करे, क्योंकि निष्काम भाव से किए गए कर्मों के कोई पाप या पुण्य फल नहीं होते।

 

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श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार पुण्य और पाप क्या है

पुरानी कथाओं के अनुसार, एक बार कुंती पुत्र अर्जुन ने भगवान वासुदेव से पूछा कि मनुष्य ना चाहते हुए भी पाप क्यों करता है और उसका फल भोगने के लिए नरक में क्यों जाता है। अर्जुन की ये बातें सुनकर भगवान श्री कृष्ण मुस्कुराते हुए उत्तर देते हैं कि इसके पीछे मनुष्य की कामना है। जो मनुष्य से भिन्न प्रकार के पाप करने के लिए प्रेरित करती है और कामना से उत्पन्न होने वाले क्रोध और लोभ मनुष्य को पाप कर्म के दुष्चक्र में फंसा देते हैं और उसकी दुर्गति हो जाती है।

मनुष्य के मन, इंद्रियों, बुद्धि, अहम् और विषयों में कामना का वास होता है। कामना ही इंसान का बैरी है और यहीं उसके पतन का असली कारण भी है। परंतु इंसान को अपने ज्ञान रूपी चक्र में इसको भेदना चाहिए। मनुष्य के यही कार्य उसके बंधन का कारण बनते हैं। लेकिन यदि यही कार्य दूसरों के हित के लिए किए जाते हैं तो वह मुक्ति का कारण बन जाते हैं।

गीता के अनुसार, दूसरों के लिए कर्म करना ही यज्ञ है। इसके साथ ही गीता में कई प्रकार के यज्ञ भी बताए गए हैं। जैसे दूसरों के हित में समय, संपत्ति और साधन लगाना द्रव यज्ञ है, वही ईश्वर के प्रताप के उद्देश्य से योग करना योग यज्ञ है, इंद्रियों का संयम करने के लिए संयम यज्ञ है, भगवान की शरण में जाने के लिए भक्ति यज्ञ है, अपने आप को जानने के लिए यज्ञ करना, महायज्ञ कहा जाता है जो सारे यज्ञों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। वह है ज्ञान यज्ञ।

श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार पुण्य और पाप क्या है
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार पुण्य और पाप क्या है

सत्संग भी इसका एक सीधा रास्ता माना जाता है जिसके माध्यम से विवेक प्राप्त होता है। यह विवेक ही यज्ञ की सामग्री है। श्रद्धा, उत्कर्ष, अभिलाषा और इंद्रिय संयम यज्ञ का यंत्र है। इसलिए हमें कोशिश करनी चाहिए कि ज्ञान यज्ञ में अपनी सभी कामनाओं की आहुति देकर हम जीवन को मुक्ति की ओर प्रस्थान करें।

गीता के 16वें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने आदर्श दिव्य गुण वाले सुसंस्कृत पुरुष के बारे में बताया है। उसका अंतःकरण शुद्ध होता है, ज्ञानी व योगी होता है, दान करता है, इन्द्रियों को संयम में रखता है, स्वयं का अध्ययन करता है। तपस्या, सरलता, अहिंसा, सत्यता, क्रोध से मुक्त, सभी के प्रति उसके मन में दया एवं करुणा भाव होते हैं, लोभ से मुक्त, वाणी में मधुरता और विनयशीलता होती है। तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता को धारण करके इस प्रकार इन्द्रियों को संयम में रखकर, लोक कल्याण की भावना से युक्त, फल की इच्छा से मुक्त, प्रभु की याद में और प्रभु को समर्पित कर किए हुए कर्म को पुण्य कहा जाएगा।

जिस प्रकार सामान्य मनुष्य के मन में अच्छा कर्म करने के बाद खुशी की भावना उत्पन्न होना स्वाभाविक है, उसी प्रकार निरन्तर अभ्यास और वैराग्य से पवित्र किए गए मन में खुशी की भावना उत्पन्न न होना भी स्वाभाविक होता है। अर्थात निष्काम भावना से कर्म करना तभी संभव है जब मन अत्यन्त पवित्र हो चुका हो।

हमारे शास्त्रों में इस बात का उल्लेख अच्छी तरह से किया गया है कि किस प्रकार के पाप कर्म करने से हमें किस योनि में जन्म मिलता है। जैसे कि अगर कोई व्यक्ति अपने से बड़े का आदर नहीं करता, हमेशा उनका अपमान करता है, कभी भी उनकी किसी कार्य में मदद नहीं करता है तो अगले सौ वर्षों तक क्रंच पक्षी की योनि में बिताने पड़ते हैं, तब जाकर उनको मनुष्य योनि में जन्म मिलता है। गरुड़ पुराण के अनुसार वे स्त्री और पुरुष जो अपने जीवन में कुकर्म करते हैं, वह नरक की यातनाएं भोगते हैं।

श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता में कहा है कि हे पार्थ, जैसे सूर्य उदय होते ही रात का अंधकार नष्ट हो जाता है वैसे ही ज्ञान का प्रकाश, ज्ञान के अंधकार को नष्ट कर देता है। फिर मनुष्य परमात्मा की ओर जाने वाले मार्ग से कभी भटकता नहीं, कभी विचलित नहीं होता। ज्ञान का साक्षात्कार होने के कारण मनुष्य जान जाता है कि एक ही कर्म पुण्य कैसे बनता है और वही कर्म पाप कैसे बन जाता है।

कहानी:भगवद गीता का महत्व | importance of Bhagavad Gita

एक दिन चेन्नई में समुद्र के किनारे धोती व शाल पहने हुए एक सज्जन भगवद गीता पढ़ रहे थे, तभी वहां एक लड़का आया और बोला, आज साइंस का जमाना है, फिर भी आप लोग ऐसी किताबे पढ़ते हो, देखिए जमाना चांद पर पहुंच गया है और आप लोग वही गीता और रामायण पर ही अटके हुए हो? उन सज्जन ने उस लड़के से पूछा, आप गीता के विषय में क्या जानते हो? वह लड़का जोश में आकर बोला अरे छोड़ो! मैं विक्रम साराभाई रीसर्च संस्थान का छात्र हूँ, आई एम ए साइंटिस यह गीता बेकार है हमारे लिये।

वह सज्जन हसने लगे, तभी दो बड़ी बड़ी गाड़िया वहां आयीं। एक गाड़ी से कुछ ब्लैक कमांडो निकले और एक गाड़ी से एक सैनिक, ने पीछे का दरवाजा खोला तो वो सज्जन पुरुष चुपचाप गाड़ी में जाकर बैठ गये। लड़का यह सब देखकर हक्का बक्का था, उसने दौड़कर उनसे पूंछा, सर आप कौन हो? वह सज्जन बोले, मैं विक्रम साराभाई हूँ। सुनकर लड़के को 440 वोल्टस का झटका लगा।

इसी भगवद गीता को पढ़कर डॉ. अब्दुल कलाम ने आजीवन मांस न खाने की प्रतिज्ञा कर ली थी।

भगवद गीता का ज्ञान

दोस्तों, गीता आपने आपमें महाविज्ञान है। गीता में मनुष्य के जीवन के समस्त समस्याओं का उत्तर है।

श्रीमद्भगवद गीता हिंदू धर्म का एक पवित्र ग्रंथ है। इसमें 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं, जो सभी महत्वपूर्ण हैं। महाभारत के युद्ध के दौरान भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिए थे, वही गीता है। गीता में आत्मा, परमात्मा, भक्ति, कर्म, जीवन आदि का विस्तृत वर्णन है।

गीता हमें यह सिखाती है कि व्यक्ति को केवल अपने काम और कर्म पर ध्यान देना चाहिए। कर्म करते समय यह याद रखना चाहिए कि जो भी कर्म हम कर रहे हैं, उसका फल भी हमें निश्चित रूप से मिलेगा।

गीता हमें बताती है कि जीवन क्या है और इसे कैसे जीना चाहिए। आत्मा और परमात्मा का मिलन कैसे होता है, अच्छे और बुरे की समझ क्यों जरूरी है – इन सभी सवालों के जवाब गीता में मिलते हैं।

गीता का पूर्ण ज्ञान कैसे प्राप्त करें

गीता या किसी भी ग्रंथ से ज्ञान प्राप्त करने के चार स्तर होते हैं:

  1. श्रवण या पठन ज्ञान: पहले हम ग्रंथ को पढ़ते या सुनते हैं।
  2. मनन ज्ञान: फिर हम पढ़े-सुने ज्ञान के बारे में विचार करते हैं।
  3. निदिध्यासन ज्ञान: इसके बाद उस ज्ञान का अभ्यास करते हैं और उसे अपने जीवन में उतारते हैं।
  4. अनुभव ज्ञान: अंत में उस ज्ञान का प्रतिफल मिलता है।

इन चारों स्तरों से गुजरने के बाद ही किसी भी ज्ञान की पूर्णता होती है और इसका पूरा लाभ मिलता है।

गीता कितनी बार पढ़नी चाहिए और इसके लाभ

  • पहली बार: जब हम पहली बार गीता पढ़ते हैं, तो हमें केवल इसकी मूल कहानी समझ में आती है।
  • दूसरी बार: दूसरी बार पढ़ने पर हमें कुछ सवाल उठते हैं कि ऐसा क्यों हुआ।
  • तीसरी बार: तीसरी बार पढ़ने पर हम इसके अर्थ को समझने लगते हैं।
  • चौथी बार: चौथी बार पढ़ने पर हम हर एक पात्र की भावनाओं को समझ पाते हैं।
  • पांचवीं बार: पांचवीं बार पढ़ने पर पूरा कुरुक्षेत्र हमारे मन में जीवंत हो उठता है।
  • छठी बार: छठी बार पढ़ने पर हम भगवान को अपने सामने अनुभव करने लगते हैं।
  • आठवीं बार: आठवीं बार पढ़ने पर हमें यह अनुभव होता है कि भगवान हमारे भीतर ही हैं और हम उनके भीतर।

श्रीमद्भगवद गीता पढ़ने के नियम

  1. सुबह का समय गीता पढ़ने के लिए सबसे अच्छा माना जाता है क्योंकि इस समय मन, मस्तिष्क और वातावरण में शांति और सकारात्मकता होती है।
  2. गीता का पाठ हमेशा स्नान के बाद और शांत चित्त से करना चाहिए।
  3. पाठ के दौरान बीच-बीच में अन्य बातें नहीं करनी चाहिए और न ही किसी काम के लिए उठना चाहिए।
  4. साफ-सुथरे स्थान पर जमीन पर आसन बिछाकर ही गीता का पाठ करना चाहिए।
  5. प्रत्येक अध्याय को शुरू करने से पहले और बाद में भगवान श्रीकृष्ण और गीता के चरणों को स्पर्श करना चाहिए।

श्रीमद्भगवद गीता का पाठ करने से हमें जीवन में दिशा मिलती है और हम सही मार्ग पर चलते हैं। इसके उपदेशों को अपने जीवन में उतारने से निश्चित ही हमें अच्छे परिणाम मिलते हैं।

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