शाश्वत सुख का क्या अर्थ है- आपने सुख के बारे में तो बहुत कुछ जानते है। लेकिन शाश्वत सुख क्या है? शाश्वत सुख किसे कहते है। इसके बारे में आज बात करेंगे। शाश्वत का अर्थ है जो सदा रहे। जो कभी ना खत्म हो या वो चीज़ जो कभी मिट सके ना कोई मिटा ना सके। एक निरंतर, चिरस्थायी, अनंत, स्थिर, शाश्वत अविचलित प्रकृति जिसकी सृष्टि अवश्य ही पूरे ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने वाले ने ही की हो।
गीता या सनातन हिन्दू काव्यों का ज्ञान, सत्य का शाश्वत दर्शन है।
भगवान शिव की शक्ति, भक्तों की भक्ति शाश्वत है।
सूर्य का पूर्व से उदय होना तथा पश्चिम में अस्त होना एक अनुपम शाश्वत सत्य है।
भगवान श्रीराम के लिए हनुमान की भक्ति शाश्वत है।
श्रीकृष्ण राधा का अमर प्रेम शाश्वत है।
श्री कृष्ण सुदामा की मित्रता शाश्वत है।
तो ऐसा सुख कौन नही पाना चाहेगा। अवश्य आप भी पाना चाहेंगे । तो शाश्वत सुख क्या है इसके बारे में कुछ बाते करेंगे।
शाश्वत सुख का क्या अर्थ है
चलिए समझते है।किसी व्यक्ति ने,बड़ी उग्र तपस्या की और ब्रह्म देव प्रसन्न हुए। और कहा कि हम तुम पर बहुत प्रसन्न हुए है, और तुम्हे वरदान देते हैं कि तुम साल के 11 महीने राज वैभव जैसा सुख भोगोगे लेकिन वर्ष के आखरी में तुम्हे बहुत पीड़ा भुगतनी पड़ेगी। तो कोई स्वीकार करेगा? नही ना?
अच्छा, कोई बात नही तुम्हारी आयु 100 साल की है उसमे तुम 98 साल बड़े मजे में बिताओगे, लेकिन आखिर के दो साल तुम्हे बिस्तर पर लेटे गुजारना होगा। कोई स्वीकार करेगा? नही करेगा। ब्रह्म देव बोले, अच्छा, ऐसा करे कि तुम जीवन के अंतिम सांस तक खूब मजे से जीना परंतु, मरने के बाद तुम्हें नर्क में जाना पड़ेगा।
तो यह भी कैसे स्वीकार होगा? क्योंकि हमे मरने के बाद भी तकलीफ नहीं चाहिए। तो हमे जीते जी अंतिम स्वास तक तो सुख मिलना चाहिए और मृत्यु के बाद भी सुख की गारंटी, तो उसे कहते हैं शाश्वत सुख । क्या हमारे लिए यह सत्य है? यहां तो अगर एक हफ्ता भी सुख से निकल जाए तो समझो कि भाग्य खुल गया लगता है । वहा शाश्वत सुख की कल्पना भी कैसे कर सकता है कोई? तो क्या हर कोई शाश्वत सुख प्राप्त कर सकता है? हां बिलकुल, अब शब्द तो यूंही नही बना होगा। इस के पीछे एक बड़ा विज्ञान है।एक विधि विधान है। सीखने की कला है।
VIDEO: शाश्वत सुख का क्या अर्थ है| In Hindi | Path Towards Eternal Happiness in hindi
जब हम शाश्वत सुख प्राप्त करने का प्रयास करते हैं तो हमे सुख और दुख को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए। यह दोनो मिटने वाली चीज है। उसका टिकना शायद थोड़ा कम या ज्यादा होता है। लेकिन दोनो सागर की मौज की तरह है, उठती, टिकती है और विलीन हो जाति है। तो जीवन में जैसे-जैसे दुख की लहरे उठती हैं कम भी हो जाती है, वैसे वैसे सुख की मात्रा बढ़ती जाती है।
दूसरी बड़ी सत्य बात यह है कि दुख की लहर सिर्फ और सिर्फ हमारे इंकार से ही उठती हैं। इसका प्रमाण यह है कि जब कोई घटना घटती है, और हमे दुख होता है। बाद में वही घटना के दुख का प्रमाण, पहले जितना नही रहता। एक दिन, दो दिन, चार दिन, पांचवे दिन तो शायद याद भी नहीं होता कि ऐसा हुआ था। तो पहले दिन हमे इतने दुख की अनुभूति क्यों हुई।
इसका उत्तर है कि जब भी कोई घटना घटती है,और हमारे मन मुताबिक नही होती है तो हमारे अंदर से इंकार उठता है, नही! ये नही हो सकता! लेकिन दूसरे दिन अब तो हो ही गया है, जो नुकसान होना था हो ही गया है। अब क्या हो सकता है? तो आहिस्ता आहिस्ता हमारे भीतर स्वीकार उठने लगता हैं, और जितनी मात्रा में स्वीकार उठता जायेगा, उतनी मात्रा में दुख मिटता जायेगा। तीन चार दिन में तो सम्पूर्ण स्वीकार हो जाएगा तो हम इस घटना के पूरे दुख से मुक्त हो जायेंगे।
मनुष्य जीवन के साथ जन्म-मरण, सुख-दुख और रोग-भोग आदि की आदि भी विद्यमान होते हैं मनुष्य को सोचने के लिए विवश कर देते हैं कि इंद्रियों को रोग भोगकर जीवन के दिन पूरे कर लेना मात्रा मनुष्य जीवन का उद्देश्य नहीं है। यह अमूल्य मानव जीवन पाकर भी यदि आत्म कल्याण ना किया जा सके, तो न जाने कब तक फिर अनेक भयानक योनियों में भटकना पड़ सकता है। जिसके अंदर आत्मज्ञान प्राप्त करने की इच्छा जागृत हो जाए, उसे अपने आप को कृपा पात्र ही समझना चाहिए।
सबसे पहले हमें इस सत्य को स्वीकार ना होगा कि हम शरीर नहीं आत्मा है। परमात्मा के सनातन अंश है। उनसे मिलने का हमारा नित्य सिद्ध आधार है। इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा का बीज विद्यमान है। अपने मूल स्वरूप को पहचाना , अपने अंदर के सुधा बीजों को अंकुरित होने देने से रोकना ही हमारे दुखों का कारण है। जब मनुष्य अपने को आत्मा के रूप में नहीं स्वीकारता अपने जीवन को आत्म स्पर्श से वंचित रखता है, तभी तक वह दुखी रहता है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि आज मनुष्य का जीवन सिर्फ शरीर एवं संसार तक ही सीमित होकर रह गया है। आध्यात्मिक जीवन की ओर से वह पूरी तरह उदासीन हो गया है। अर्थ व अधिकार यह दो ही मानव जीवन के लक्ष्य रह गए हैं। इन दोनों की प्राप्ति के लिए व्यक्ति उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय का कुछ भी ध्यान नहीं रखता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि मनुष्य कर्म करना बंद कर दे। इसका मतलब यह है कि उनकी दिशा बदल दे। उसका हर कार्य उन्नति की भावना लिए हुए हो। भगवान को समर्पित हो। जब हर कार्य भगवान को समर्पित किया जाएगा, तो स्वता ही अनुचित कार्य मनुष्य से नहीं होंगे।
तीसरी आवश्यक बात यह है शुद्ध सात्विक आहार विहार। सात्विक व्यक्तियों वाला व्यक्ति ही आत्म उद्धार करने में सफल हो सकता है। आहार-विहार श्यन-जागरण एवं चेष्टा के संबंध में गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं यह योग, ना तो बहुत खाने वाला सिद्ध कर सकता है, और ना ही बिल्कुल ना खाने वाला ही सिद्ध कर सकता है। इस दुख का नाश केवल यथा योग्य आहार करने वाला और यथायोग्य कर्म करने वाला ही सिद्ध कर सकता है।
शाश्वत सुख का क्या अर्थ है
आत्मिक प्रगति की चाह रखने वाले व्यक्तियों को महात्माओं संग भी करना चाहिए। महात्माओं के अनुभव उनके वचन उनका ज्ञान आत्मा को प्रकाशित करने का समर्थ रखता है।
अगर हम वास्तव में सुख शांति से भरा पूरा जीवन जीना चाहते हैं तो हमें अपनी आत्मिक ज्ञान को उभारना होगा। अपनी सारी बुराइयों से संघर्ष करना होगा। आत्मज्ञान की संपदा प्राप्त किए बिना, सुख शांति की चाह एक कल्पना मात्र है।