मौन की शक्ति | The Power Of Silence in hindi| मन का निरीक्षण

मौन की शक्ति-हमारे ऋषि-मुनियों का कहना है कि आप चाहे तो हवा में तैर सकते हैं, पानी पर चल सकते हैं, पूरी दुनिया जीत सकते हैं, लेकिन अपने मन की चाल समझना इन सबके मुकाबले सबसे कठिन काम होता है। आपने कभी गौर किया होगा कि जब आप किसी काम को करने का दृढ़ निश्चय करते हैं, तब भी आपका मन अक्सर उस काम के विपरीत दिशा में चलता है। उदाहरण के लिए, यदि आप सिगरेट पीना छोड़ना चाहते हैं और खुद से दृढ़ निश्चय भी कर लेते हैं, लेकिन कुछ ही समय बाद आपका मन आपको खींचकर वापस सिगरेट के पास लाकर खड़ा कर देता है।

एक रोचक कहानी:-

चिंतन की शक्ति
चिंतन की शक्ति

 

मन की यह उलझन और उसकी चालाकी इंसान को अपने ही संकल्पों के खिलाफ खड़ा कर देती है, और यही सबसे बड़ी चुनौती होती है। और यह बात सिर्फ सिगरेट पर लागू नहीं होती। हमारे जीवन में, हम सबके जीवन में, कई ऐसे काम और आदतें होती हैं जिन्हें हम छोड़ना चाहते हैं, लेकिन अक्सर उन आदतों को छोड़ नहीं पाते। लेकिन अगर हम प्रयास करके अपने मन के दृष्टा बन जाएं, उसके साक्षी बन जाएं, तो हम अपने मन की चाल को पकड़ सकते हैं। और यदि एक बार हमें अपने मन की चाल पकड़ में आ जाए, तो फिर हम कोई भी आदत छोड़ सकते हैं, या फिर इसके उलट कोई भी नई आदत अपना सकते हैं,

जैसे ब्रह्म मुहूर्त में उठने की आदत या कोई भी ऐसा काम जिसे करने में हमें आलस आता है। हमारी आदतों के पीछे मूलभूत बिंदु हमारा मन ही होता है, और हम उसे ही नजरअंदाज करते रहते हैं, जिसके परिणामस्वरूप बाद में पछताने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं बचता।

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आज की जो कहानी मैं आपको सुनाने जा रहा हूं, उसमें आपको कुछ ऐसे तरीके पता चलेंगे जिससे आप अपने मन की चाल को भली-भांति पकड़ सकते हैं, उसे जान सकते हैं, उसका निरीक्षण कर सकते हैं, और इसके बाद अपनी आदतों में बदलाव कर सकते हैं।

कहानी : मन की गहराइयाँ | मौन की शक्ति

एक बार एक वाचाल शिष्य एक गुरु के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने के लिए आया हुआ था। वह अक्सर अपने गुरु की बातें कम सुनता था, लेकिन अपनी बात बताने में बहुत उत्सुक रहता था। एक दिन गुरु ध्यान पर चर्चा कर रहे थे—ध्यान किस प्रकार किया जाता है और उसका क्या महत्व होता है। आश्रम के सभी शिष्य मौन होकर अपने गुरु की बातों को सुन रहे थे। गुरु समझा रहे थे कि आप किसी भी प्रकार का ध्यान करें, लेकिन ध्यान की गहराइयों में जाने के लिए आपको अपने मन में प्रेम जागृत करना होगा।

ध्यान करते समय आपको निरंतर अपने मन का निरीक्षण करना होगा कि आपके मन में किस प्रकार के विचार आते हैं।

गुरु अपनी बात पूरी कर पाते, इससे पहले ही वह वाचाल शिष्य बीच में बोल पड़ा। उसने कहा, “गुरुजी, मैं बहुत दिनों से अपने मन का निरीक्षण कर रहा हूं। मैं हर आने-जाने वाले विचार को बड़ी गहराई से देखता हूं, समझता हूं, लेकिन इसके बावजूद मेरे मन की आदतों में कुछ बदलाव नहीं आ रहा है। मैं अक्सर सुबह देर से उठता हूं और रोज रात को मैं महसूस करता हूँ कि मैं सुबह जल्दी उठूंगा, ध्यान करूंगा, अपने मन का निरीक्षण करूंगा, लेकिन ऐसा कर नहीं पाता।

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मैंने अपने साथी शिष्यों से भी इस बारे में चर्चा की, लेकिन उनके पास भी इसका कोई उत्तर नहीं था। इस आश्रम में कोई एक-दूसरे से बात नहीं करना चाहता, सब लोग चुपचाप रहते हैं, कोई चर्चा नहीं होती। ऐसे में हम अपने मन को कैसे समझ पाएंगे? उसका निरीक्षण कैसे कर पाएंगे? जब तक हम अपने मन के विचारों और आदतों का एक-दूसरे के सामने जिक्र नहीं करेंगे, उन पर चर्चा नहीं करेंगे, तब तक हम चुप रहकर अपने मन को कैसे समझ पाएंगे? कृपया करके इन सभी शिष्यों को समझाइए कि कम से कम एक-दूसरे से अपने मन की बातें साझा तो करें, उनके मन में क्या विचार चलते हैं,

ध्यान में उनके अंदर क्या बदलाव आता है, वह क्या महसूस करते हैं। ध्यान के बारे में आश्रम में चर्चा तो होनी चाहिए।

गुरु ने वाचाल शिष्य से पूछा, “तुम दूसरों के मन की बातें क्यों जानना चाहते हो? उससे तुम्हारा क्या लाभ होगा? क्या तुम्हें आत्म निरीक्षण करने के लिए दूसरों के मन के विचार जानना जरूरी है? उनके मन में क्या चल रहा है, इससे तुम्हारा क्या फायदा होगा? क्या तुम मुझे इस सवाल का उत्तर दे सकते हो?” वाचाल शिष्य ने गुरु से इस प्रकार की प्रतिक्रिया की अपेक्षा नहीं की थी। उसने सोचा कि गुरुजी सही कह रहे हैं, इससे मेरा क्या फायदा होगा? अगर मैं दूसरों के मन की बातें जान भी लूंगा या फिर अपने मन की बातें दूसरों के सामने रख दूंगा, तो उससे मेरा क्या लाभ होगा? क्या मैं अपने मन को समझ पाऊंगा?

कुछ ऐसे सवाल जो आपके मन में भी आते होंगे:-

आध्यात्मिक प्रश्नावली
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अपने ही द्वारा किए गए प्रश्न में उलझा हुआ शिष्य, इस पर कोई ठोस उत्तर नहीं दे पाया। लेकिन फिर भी, उसने अन्य शिष्यों के सामने अपनी बात को ऊँचा दिखाने के लिए गुरुजी से कहा, “गुरुजी, अगर हमें यह पता चल जाए कि दूसरे के मन में क्या विचार चलते हैं और वे ध्यान में जाकर किस प्रकार उनका निरीक्षण करते हैं, तो इससे हमें भी ध्यान लगाने में आसानी होगी। हम भी अपने ध्यान में इस प्रकार अपने विचारों का निरीक्षण कर पाएंगे और अपने मन को समझ पाएंगे। क्या आपको नहीं लगता कि गहरा ध्यान लगाने के लिए किन बातों का ध्यान रखा जाए,

किस प्रकार अपने मन का निरीक्षण किया जाए, इस बारे में चर्चा करने से अन्य शिष्यों का भी भला हो सकता है?

गुरुजी ने उससे पूछा, “मान लो, कोई व्यक्ति गहरा ध्यान लगा सकता है और वह तुम्हें अपनी मनोदशा बता भी दे, कि किस प्रकार वह अपने मन का निरीक्षण करता है और अपने विचारों का निरीक्षण करता है। क्या तुम्हें लगता है कि यह जानकर तुम भी गहरे ध्यान में उतर पाओगे? अगर तुम ऐसा सोचते हो, तो मैं तुम्हें एक बात बता दूं, कि तुम अपने ही मन के बनाए हुए जाल में खुद फँस जाओगे। यदि तुम जान भी लेते हो कि गहरे ध्यान में किस प्रकार प्रवेश किया जाता है, फिर भी, बिना आत्म-निरीक्षण के, तुम्हारे लिए वह अनुभव प्राप्त करना संभव नहीं होगा।”

तो तुम्हारा मन इस विधि का अनुसरण करने की कोशिश करेगा, और तुम वर्तमान में उपस्थित होकर अपनी मनोदशा नहीं समझ पाओगे। बल्कि, तुम्हारा मन उन विचारों में उलझा रहेगा। तुमने अपने मन को एक काम दे दिया है, और तुम्हारा मन उस काम को करता रहेगा। जब तुम भी उस काम में सम्मिलित हो जाओगे, तो तुम अपने मन का निरीक्षण किस प्रकार कर पाओगे? क्योंकि तुम खुद अपने मन के साथ एक हो गए। गुरुजी ने बताया कि तुम अपने मन को तभी समझ सकते हो, जब तुम अपने मन से अलग हटकर उसे देख सको। किसी भी विषय या चीज़ को समझने के लिए तुम्हें उससे अलग होकर उसे देखना होगा।

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Shrimad Bhagwat Geeta
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अगर तुम उसके साथ एक हो गए, तो तुम उसे कभी नहीं समझ पाओगे; तुम उसके साथ सम्मिलित हो जाओगे। जैसे कि तुम अपने विचारों को समझने की कोशिश करते हो, लेकिन विचारों को समझते-समझते तुम अपने ही विचारों में खो जाते हो। क्या तुमने कभी इसका अनुभव किया है?

शिष्य ने हाँ में सिर हिलाते हुए कहा, “गुरुजी, जब भी मैं अपने विचारों का निरीक्षण करने लगता हूँ, तो ऐसा ही होता है। मैं अपने ही विचारों में खो जाता हूँ। कुछ समय बाद मुझे ध्यान आता है कि मैं अपने विचारों का निरीक्षण कर रहा था। फिर से मैं अपने विचारों का दृष्टा बनने की कोशिश करता हूँ, लेकिन कुछ समय बाद मैं फिर से अपने विचारों के साथ एक हो जाता हूँ।”

गुरुजी ने सभी शिष्यों को समझाते हुए कहा, “जिस प्रकार एक गुस्से से भरा हुआ व्यक्ति कभी भी अपने गुस्से का निरीक्षण नहीं कर पाता, क्योंकि वह खुद अपने गुस्से के साथ एक हो जाता है। वह अपने गुस्से को ही अपना अस्तित्व मान लेता है, और इसलिए वह कभी नहीं देख पाता कि यह गुस्सा उसके मन को किस प्रकार प्रभावित कर रहा है। किस प्रकार यह गुस्सा उसके मन को दुखी कर जाएगा, वह कभी नहीं देख पाएगा, क्योंकि उसके पास वह कला नहीं है कि वह अपने गुस्से को अपने से अलग करके देख सके।

इसी चीज़ के लिए सारे अभ्यास बने हुए हैं, ताकि तुम सिर्फ एक दृष्टा, एक साक्षी बनकर सभी चीजों को उनके असली स्वरूप में देख सको। जब तुम सभी चीजों का, सभी विचारों का असली स्वरूप देख लेते हो, तब तुम्हें उनकी नित्यता का पता चलता है। तब तुम्हें यह समझ में आता है कि ये सब आने-जाने वाली चीजें हैं, लेकिन चेतन, जो उन्हें देख रहा है, वह हमेशा जीवित रहता है। वह कभी नहीं मरता, वह नित्य है, और वही चेतन होती है। चेतन किसी भी चीज़ से कभी भी बंधी हुई नहीं होती।”

The Three Biggest Obstacles to Success
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गुरुजी ने आगे कहा, “तुम्हारा होश ही तुम्हें दूसरों को उनके स्वरूप में देखने की कला देता है। जितनी प्रगाढ़ तुम्हारी चेतना होगी, उतने ही अच्छे तरीके से तुम चीज़ों से अलग होकर उन्हें देखने में सक्षम हो पाओगे। इसलिए अपनी चेतना को ऊपर उठाने का प्रयास करो, ताकि तुम अपनी चेतना से किसी भी चीज़ का असली स्वरूप देखने में सक्षम हो सको।” शिष्य ने पूछा, “गुरुदेव, आपकी बातें कुछ-कुछ समझ में आ रही हैं, लेकिन एक बात समझ में नहीं आई। अपनी चेतना को ऊपर उठाने के लिए, अपने आप को अधिक होश में रखने के लिए हमें क्या करना होगा?”

इस पर चर्चा करते हुए गुरु ने बताया, “तुम मौन रहकर, चुप रहकर अपने विचारों, अपने मन की प्रक्रियाओं, और अपने अनुभवों को देखना शुरू करो। तुम्हारे अनुभव आते हैं और चले जाते हैं। वे अनित्य हैं, वे हमेशा हमारे साथ नहीं रहने वाले हैं, लेकिन हमारा मन उन्हें पकड़ने की कोशिश करता रहता है। जब तुम्हें कोई अच्छा अनुभव होता है, तो तुम्हारा मन चाहता है कि तुम्हें बार-बार वही अनुभव हो। और इस अनुभव को पाने के चक्कर में तुम्हारा मन तुम्हें फंसाता चला जाता है।

तुम्हारी चेतना तुम्हारे मन की गुलाम बन जाती है। यही होता है एक सिगरेट पीने वाले के साथ, यही होता है एक शराब पीने वाले के साथ, और यही होता है हर बुरी आदत को अपनाने वाले के साथ। उसकी चेतना उसके मन की गुलाम हो जाती है। अगर तुम अपनी चेतना को अपने मन से आज़ाद करना चाहते हो, तो सबसे पहले मौन रहना सीखो, चुप रहना सीखो।”

गुरुजी ने समझाया कि “तुम्हारी अधिक बोलने की आदत, दूसरों से उनके अनुभव सुनने की आदत, तुम्हारे मन को और ज्यादा भर देगी। लेकिन अपनी चेतना को आज़ाद करने के लिए तुम्हें अपने मन को खाली करना सीखना होगा। जब तुम अपने मन को खाली करोगे, तब तुम्हें अपनी चेतना का असली स्वरूप दिखाई देगा। तब तुम्हें पता चलेगा कि मौन रहकर, चुप रहकर अपनी चेतना को कैसे ऊपर उठाया जाए, कैसे हमेशा चैतन्य रहा जाए। चैतन्य रहना ही हमारा असली स्वरूप होता है, लेकिन हम उसे भूल चुके हैं, अपने मन के अधीन होकर। इसलिए अपनी चेतना को अपने मन से छुटकारा दिलाना होगा।

आध्यात्मिक शिक्षण क्या है
आध्यात्मिक शिक्षण क्या है

इसके लिए तुम चुप रहकर अपने मन के विचारों को देखना शुरू करो, उसके अनुभवों को महसूस करना शुरू करो। जब तुम अपने मन के साक्षी हो जाते हो, अपने मन के दृष्टा हो जाते हो, उसे देखने वाले हो जाते हो, तब तुम्हें पता चलता है कि तुम्हारे मन में एक विचार जाता है, तो दूसरा आता है, दूसरा जाता है, तो तीसरा आता है। और इस प्रकार जैसे सड़क पर भीड़ चल रही होती है, लोगों का आना-जाना लगा रहता है, वैसे ही हमारे मन की भूमि में अनेक विचार आते और जाते रहते हैं।”

धीरे-धीरे, जब हम विचारों से जुड़ते नहीं हैं, उनके साथ बहते नहीं हैं, बल्कि उन्हें सिर्फ साक्षी बनकर देखते रहते हैं, तो वह विचार विलीन होने लगते हैं। इसके बाद हमारे मन की भूमि पूरी तरह से खाली हो जाती है, और तब हमें पहली बार अपने चैतन्य होने का अहसास होता है। हमें यह समझ में आता है कि हमारी चेतना ही हमारा असली आनंद है, वही हमारा वास्तविक स्वरूप है। इस आनंद को पाने के लिए अपने मन की भूमि से खरपतवार हटाना ज़रूरी है। इसके लिए मेहनत नहीं करनी, बल्कि उन विचारों को सिर्फ देखते रहना है। एक विचार जाता है, तो दूसरा आता है; दूसरा जाता है, तो तीसरा आता है।

बस उन्हें साक्षी बनकर देखते रहना है, और धीरे-धीरे वे विचार विलीन हो जाते हैं।

आत्मविकास के चार स्वरूप
आत्मविकास के चार स्वरूप

इस स्थिति को पाने के लिए चुप रहकर अभ्यास करना होगा, चुप रहकर अपने विचारों का आत्म निरीक्षण करना होगा। अपने मन की भावनाओं को समझना होगा—कब हमें गुस्सा आता है, कब हमें खुशी होती है, इन सभी भावनाओं को अलग होकर देखना होगा। जब भी हमें गुस्सा आता है या खुशी होती है, तो हम तुरंत उत्तेजित हो जाते हैं और इस उत्तेजना के कारण हम उन भावनाओं को अलग होकर देख नहीं पाते। लेकिन अगर हम शांत रहें और शिथिल रहें, तो हम अपने मन की भावनाओं को समझ सकते हैं।

जब हम अपने मन की भावनाओं को जान लेते हैं, तो हमें यह समझ में आता है कि कोई भी भावना हमेशा नहीं रहती। एक भाव जाता है, तो दूसरा आ जाता है; खुशी हमेशा नहीं रहती, दुख हमेशा नहीं रहता। इन बातों को समझने के बाद, ये सारी भावनाएँ हमारी नजरों से विलीन होने लगती हैं, और अंत में केवल प्रेम और आनंद हमारे अंदर शेष रहते हैं। इसे ही हम परमानंद कहते हैं, और यही हमारा असली स्वरूप होता है।

इसलिए, अपने मन की चाल में खुद को फंसने मत दो। अपने मन की चाल को दूर से खड़े होकर देखते रहो, और देखते-देखते वह चाल समाप्त हो जाएगी। जब मन की चाल समाप्त हो जाती है, तब ही हम हर चीज में अपना मन लगा सकते हैं, हर काम को पूरे ध्यानपूर्वक कर सकते हैं। अंततः, मन का विलीन होना ही ध्यान में प्रवेश होता है। जब तक हमारा मन भारी होता है, तब तक हम ध्यान में प्रवेश नहीं कर पाते। लेकिन एक बार जब हमारा मन विलीन हो जाता है,

तो हम हर काम में ध्यान लगा सकते हैं, और ज्ञान ही हमारा असली स्वरूप बन जाता है। इस ज्ञानभरी चर्चा को सुनकर सभी शिष्य प्रसन्न हो गए, लेकिन गुरु ने उन्हें चेतावनी देते हुए कहा कि यह प्रसन्नता भी मन की एक भावना है। असली आनंद की खोज के लिए, शांत होकर, मौन होकर, भावना रहित होकर अपने विचारों और भावनाओं को देखना शुरू करो। इसके बाद तुम्हें खुद ही महसूस होगा कि चेतना शाश्वत होती है और बाकी सभी चीजें अनित्य हैं।

जय श्री कृष्णा 🙏🙏 जाने दान का सही अर्थ। कृष्णा और अर्जुन की बहुत ही सुन्दर कहानी। एक बार अवश्य पढ़े।🙏🙏

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