प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक-संस्कृत विश्व की ऐसी प्राचीन भाषाओं में से एक है, जिसमें अनेकों वेद-पुराणों और ग्रंथों की रचनाएं हुई। इन रचनाओं के ज्ञान से मानवता का कल्याण हुआ और संस्कृत भाषा के ज्ञान के प्रकाश से विश्व ने सकारात्मक सद्मार्ग को अपनाया। प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक पढ़कर आप इस महान भाषा से जीवनभर प्रेरित हो सकते हैं, जिसके लिए आपको इस ब्लॉग को अंत तक पढ़ना पड़ेगा।
यह संस्कृत श्लोक आपको जीने का एक मकसद देंगे और आपको प्रेरणा से भर देंगे। संस्कृत की महिमा केवल भारत में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में मान्य है। इसकी धरोहर ने सभ्यता और संस्कृति को संजीवनी प्रदान की है। इस भाषा में छिपे ज्ञान और विज्ञान ने अनेकों पीढ़ियों को मार्गदर्शन दिया है। संस्कृत के श्लोक हमें न केवल आध्यात्मिक, बल्कि नैतिक और व्यवहारिक जीवन में भी प्रगति का पथ दिखाते हैं।
तो आइए, इस अद्भुत यात्रा पर चलें और संस्कृत श्लोकों के माध्यम से अपने जीवन को सार्थक बनाएं। इन श्लोकों का अध्ययन न केवल हमारे मन और आत्मा को शांति देगा, बल्कि हमें जीवन के प्रत्येक पहलू में उत्कृष्टता प्राप्त करने की प्रेरणा भी देगा।
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Toggleप्रेरणादायक संस्कृत श्लोक
प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक के माध्यम से आप प्रेरणा से भर देने वाले संस्कृत श्लोक और उनके भावार्थ को पढ़ पाएंगे, जो कि निम्नलिखित हैं-
सेवितव्यो महावृक्ष: फ़लच्छाया समन्वित:।
यदि देवाद फलं नास्ति,छाया केन निवार्यते।।
भावार्थ : एक विशाल वृक्ष की सेवा करनी चाहिए, क्योंकि वह फल और छाया से युक्त होता है। यदि किसी दुर्भाग्य से फल नहीं देता तो उसकी छाया कोई नहीं रोक सकता है।
काक चेष्टा, बको ध्यानं, स्वान निद्रा तथैव च।
अल्पहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणं।।
भावार्थ : हर विद्यार्थी में हमेशा कौवे की तरह कुछ नया सीखाने की चेष्टा, एक बगुले की तरह एक्राग्रता और केन्द्रित ध्यान एक आहत में खुलने वाली कुते के समान नींद, गृहत्यागी और यहाँ पर अल्पाहारी का मतबल अपनी आवश्यकता के अनुसार खाने वाला जैसे पांच लक्षण होते है।
अग्निना सिच्यमानोऽपि वृक्षो वृद्धिं न चाप्नुयात्।
तथा सत्यं विना धर्मः पुष्टिं नायाति कर्हिचित्।।
भावार्थ : आग से सींचे गए पेड़ कभी बड़े नहीं होते। उसी प्रकार सत्य के बिना धर्म की स्थापना संभव नहीं है।
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दुर्जन:स्वस्वभावेन परकार्ये विनश्यति।
नोदर तृप्तिमायाती मूषक:वस्त्रभक्षक:।।
भावार्थ : दुष्ट व्यक्ति का स्वभाव ही दूसरे के कार्य बिगाड़ने का होता है। वस्त्रों को काटने वाला चूहाकभी भी पेट भरने के लिए कपड़े नहीं काटता।
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत्।।
भावार्थ : संसार में सभी सुखी हो, निरोगी हो, शुभ दर्शन हो और कोई भी ग्रसित ना हो।
40 प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक हिंदी अर्थ सहित | 40 Motivational Sanskrit Slokas with Hindi Meanings
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कर्म पर संस्कृत श्लोक
प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक के माध्यम से आप कर्म पर आधारित संस्कृत श्लोक और उनके भावार्थ को पढ़ पाएंगे, जो कि निम्नलिखित हैं-
सर्वे कर्मवशा वयम्।
भावार्थ : सब कर्म के ही अधीन हैं।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि।।
भावार्थ : भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन। कर्म करने में ही तेरा अधिकार है। कर्म के फल का अधिकार तुम्हारे पास नहीं है। इसलिए तू केवल केवल कर्म पर ध्यान दे उसके फल की चिंता न कर।
अचोद्यमानानि यथा, पुष्पाणि फलानि च।
स्वं कालं नातिवर्तन्ते, तथा कर्म पुरा कृतम्।
भावार्थ : जिस तरह फल, फुल बिना किसी प्रेरणा के समय पर उग जाते हैं, उसी प्रकार पहले किये हुए कर्म भी यथासमय ही अपने फल देते हैं। यानिकी कर्मों का फल अनिवार्य रूप से मिलता ही है।
न श्वः श्वमुपासीत। को ही मनुष्यस्य श्वो वेद।
भावार्थ : कल के भरोसे मत बैठो। कर्म करो, मनुष्य का कल किसे ज्ञात है?
दिवसेनैव तत् कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत्।
भावार्थ : दिनभर ऐसा कार्य करो जिससे रात में चैन की नींद आ सके।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य:।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।
भावार्थ : जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्वर को समर्पित करके आसक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है, वह पापकर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिस प्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है।
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नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।
भावार्थ : तू शास्त्रों में बताए गए अपने धर्म के अनुसार कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।
कर्मणामी भान्ति देवाः परत्र कर्मणैवेह प्लवते मातरिश्वा।
अहोरात्रे विदधत् कर्मणैव अतन्द्रितो नित्यमुदेति सूर्यः।।
भावार्थ : कर्म के कारण ही देवता चमक रहे हैं। कर्म के कारण ही वायु बह रही है। सूर्य भी आलस्य से रहित कर्म करके नित्य उदय होकर दिन और रात का विधान कर रहा है।
बह्मविद्यां ब्रह्मचर्यं क्रियां च निषेवमाणा ऋषयोऽमुत्रभान्ति।
भावार्थ : ऋषि भी वेदज्ञान, ब्रह्मचर्य और कर्म का पालन करके ही तेजस्वी बनते हैं।
कर्मणा वर्धते धर्मो यथा धर्मस्तथैव सः।
भावार्थ : कर्म से ही धर्म बढ़ता है। जो जैसा धर्म अपनाता है, वह वैसा ही हो जाता है।।
जीवन पर संस्कृत श्लोक
प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक के माध्यम से आप जीवन पर आधारित संस्कृत श्लोक और उनके भावार्थ को पढ़ पाएंगे, जो कि निम्नलिखित हैं-
संतोषवत् न किमपि सुखम् अस्ति॥
भावार्थ : संतोष से बढ़कर कोई सुख नहीं है।
ऐश्वर्ये वा सुविस्तीर्णे व्यसने वा सुदारुणे।
रज्जवेव पुरुषं बद्ध्वा कृतान्तः परिकर्षति॥
भावार्थ : अत्यधिक ऐश्वर्यवान तथा बुरे व्यसनों मे लिप्त व्यक्ति रस्सियों से बंधे हुए व्यक्ति के समान होते हैं और अन्ततः उनका भाग्य उनको प्रताडित कर अत्यन्त कष्ट देता है।
कण्ठे मदः कोद्रवजः हृदि ताम्बूलजो मदः।
लक्ष्मी मदस्तु सर्वाङ्गे पुत्रदारा मुखेष्वपि॥
भावार्थ : प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक-मदिरा (शराब्) पीने से उसका दुष्प्रभाव कण्ठ पर ( बोलने की क्षमता ) पर पडता है और तंबाकू (पान) खाने से उसका मन पर प्रभाव पड़ता है। परन्तु संपत्तिवान होने का मद (नशा या गर्व) व्यक्तियों न केवल उनके संपूर्ण शरीर पर वरन उनकी स्त्रियों और संतान के मुखों (चेहरों) पर भी देखा जा सकता है।
कण्टकावरणं यादृक्फलितस्य फलाप्तये।
तादृक्दुर्जनसङ्गोSपि साधुसङ्गाय बाधनं॥
भावार्थ : जिस प्रकार एक फलदायी वृक्ष के कांटे उसके फलों को प्राप्त करणे में बाधा उत्पन्न करते हैं, वैसे ही दुष्ट व्यक्तियों की सङ्गति (मित्रता) भी साधु और सज्जन व्यक्तियों की सङ्गति में बाधा उत्पन्न करती है।
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति॥
भावार्थ : जिनमें न ज्ञान है, न तप है, न दान है, न विद्या है, न गुण है, न धर्म है। वे नश्वर संसार में पृथ्वी के बोझ हैं और मानव रूप में हिरण (पशु ) की तरह घूमते हैं।
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेन भूय एवाभिवर्धते॥
भावार्थ : भोग करने से कभी भी कामवासना शान्त नहीं होती है, परन्तु जिस प्रकार हवनकुण्ड में जलती हुई अग्नि में घी आदि की आहुति देने से अग्नि और भी प्रज्ज्वलित हो जाती है वैसे ही कामवासना भी और अधिक भडक उठती है।
नारुंतुदः स्यादार्तोSपि न परद्रोहकर्मधीः।
ययास्योद्विजते वाचा नालोक्यां तामुदीरयेत्॥
भावार्थ : मनुष्य का कर्तव्य है कि यथा सम्भव किसी को पीडा दे कर उसका हृदय न दुखाये, भले ही स्वयं दुःख उठा ले। किसी के प्रति अकारण द्वेष-भाव न रखे और कोई कटु बात कह कर किसी का मन उद्विग्न न करे।
अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः।
उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम्॥
भावार्थ : निम्न वर्ग के लोग केवल पैसे में रुचि रखते हैं, और ऐसे लोग सम्मान की परवाह नहीं करते हैं। मध्यम वर्ग धन और सम्मान दोनों चाहता है, और केवल उच्च वर्ग की गरिमा महत्वपूर्ण है। सम्मान पैसे से ज्यादा कीमती है।
कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति।
उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम्।।
भावार्थ : जिस प्रकार लोग नदी पार करने के बाद नाव को भूल जाते हैं, उसी तरह लोग अपना काम पूरा होने तक दूसरों की प्रशंसा करते हैं और काम पूरा होने के बाद दूसरे को भूल जाते हैं।
जीवितं क्षणविनाशिशाश्वतं किमपि नात्र।
भावार्थ : यह क्षणभुंगर जीवन में कुछ भी शाश्वत नहीं है।
जीविताशा बलवती धनाशा दुर्बला मम्।।
भावार्थ : मेरी जीवन की आशा बलवती है पर धन की आशा दुर्लभ है।
सेवितव्यो महावृक्ष: फ़लच्छाया समन्वित:।
यदि देवाद फलं नास्ति,छाया केन निवार्यते।।
भावार्थ : एक विशाल वृक्ष की सेवा करनी चाहिए, क्योंकि वह फल और छाया से युक्त होता है। यदि किसी दुर्भाग्य से फल नहीं देता तो उसकी छाया कोई नहीं रोक सकता है।
काक चेष्टा, बको ध्यानं, स्वान निद्रा तथैव च।
अल्पहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणं।।
भावार्थ : हर विद्यार्थी में हमेशा कौवे की तरह कुछ नया सीखाने की चेष्टा, एक बगुले की तरह एक्राग्रता और केन्द्रित ध्यान एक आहत में खुलने वाली कुते के समान नींद, गृहत्यागी और यहाँ पर अल्पाहारी का मतबल अपनी आवश्यकता के अनुसार खाने वाला जैसे पांच लक्षण होते है।
अग्निना सिच्यमानोऽपि वृक्षो वृद्धिं न चाप्नुयात्।
तथा सत्यं विना धर्मः पुष्टिं नायाति कर्हिचित्।।
भावार्थ : आग से सींचे गए पेड़ कभी बड़े नहीं होते। उसी प्रकार सत्य के बिना धर्म की स्थापना संभव नहीं है।
दुर्जन:स्वस्वभावेन परकार्ये विनश्यति।
नोदर तृप्तिमायाती मूषक:वस्त्रभक्षक:।।
भावार्थ : दुष्ट व्यक्ति का स्वभाव ही दूसरे के कार्य बिगाड़ने का होता है। वस्त्रों को काटने वाला चूहाकभी भी पेट भरने के लिए कपड़े नहीं काटता।
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत्।।
भावार्थ : संसार में सभी सुखी हो, निरोगी हो, शुभ दर्शन हो और कोई भी ग्रसित ना हो।
सफलता पर संस्कृत श्लोक
प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक के माध्यम से आप सफलता पर आधारित संस्कृत श्लोक और उनके भावार्थ को पढ़ पाएंगे, जो कि निम्नलिखित हैं-
काकतालीयवत्प्राप्तं दृष्ट्वापि निधिमग्रतः।
न स्वयं दैवमादत्ते पुरुषार्थमपेक्षते।।
भावार्थ : भले ही भाग्य से, एक खजाना सामने पड़ा हुआ दिखाई दे, (काका-तलिया न्याय के रूप में), भाग्य इसे हाथ में नहीं देता है, कुछ प्रयास (उसे उठाने का) (अभी भी) अपेक्षित है।
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।
भावार्थ : मेहनत से, उद्योग से काम मिलता है, चाहने से नहीं। सोये हुए सिंह के मुँह में जानवर प्रवेश नहीं करते।
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।
भावार्थ : आलस्य शरीर का सबसे बड़ा शत्रु है। मेहनत से अच्छा कोई दोस्त नहीं होता, उसे करने के बाद कोई उदास नहीं रहता।
उद्यमेन हि सिद्ध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
नहि सुप्तस्य सिंहस्य मुखे प्रविशन्ति मृगाः।।
भावार्थ : किसी भी कार्य को केवल सक्रिय उत्साह से ही पूरा किया जा सकता है, अकेले काल्पनिक विचारों से कभी नहीं। सोते हुए सिंह के मुख में मृग (पशु) प्रवेश नहीं करते।
महाजनस्य संपर्क: कस्य न उन्नतिकारक:।
मद्मपत्रस्थितं तोयं धत्ते मुक्ताफलश्रियम्।।
भावार्थ : महाजनों और गुरुओं के संपर्क से कौन उन्नति नहीं करता? कमल के पत्ते पर पड़ी पानी की एक बूंद मोती की तरह चमकती है।
धैर्य पर संस्कृत श्लोक
प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक के माध्यम से आप धैर्य पर आधारित संस्कृत श्लोक और उनके भावार्थ को पढ़ पाएंगे, जो कि निम्नलिखित हैं-
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।।
भावार्थ : तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य, शरीरकी शुद्धि, वैरभावका न रहना और मानको न चाहना, हे भरतवंशी अर्जुन ! ये सभी दैवी सम्पदाको प्राप्त हुए मनुष्यके लक्षण हैं।
धृतिः शमो दमः शौचं कारुण्यं वागनिष्ठुरा।
मित्राणाम् चानभिद्रोहः सप्तैताः समिधः श्रियः।।
भावार्थ : धैर्य, मन पर अंकुश, इन्द्रियसंयम, पवित्रता, दया, मधुर वाणी और मित्र से द्रोह न करना ये सात चीजें लक्ष्मी को बढ़ाने वाली हैं।
जरा रूपं हरति, धैर्यमाशा, मॄत्यु: धर्मचर्यामसूया
भावार्थ : वृद्धावस्था एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें पहुंचने के बाद मनुष्य की सुंदरता, धैर्य, इच्छा, मृत्यु, धर्म का आचरण, पवित्रता, क्रोध, प्रतिष्ठा, चरित्र, बुरी संगति, लज्जा, काम और अभिमान सब का नाश कर देता है।
निन्दन्तु नीतिनिपुणाः यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।
भावार्थ : नीतिनिपुण व्यक्ति चाहे निंदा करे या प्रसंशा, लक्ष्मी आये या चली जाए। मृत्यु आज ही हो जाये या बाद में। धैर्यवान पुरुष के कदम कभी भी न्याय पथ से विचलित नहीं होते।
धैर्यं सर्वत्र सर्वदा, सर्वदा धैर्यमेव हि।
धैर्येण हि सुखं सर्वं, नास्ति दुःखं कदाचन।।
भावार्थ : धैर्य हर जगह और हर समय में होता है। धैर्य ही से सब सुख होता है, कभी दुःख नहीं होता।
संस्कृत के कुछ बेहतरीन श्लोक कौन से हैं?
संस्कृत के लगभग सभी श्लोक ज्ञान से परिपूर्ण हैं,और सभी श्लोक अपने स्थान में महत्वपूर्ण और बेहतरीन हैं।लेकिन संस्कृत में सुभाषितों का अपना विशेष महत्व है।मैं आपके समक्ष उन सुभाषितों को प्रस्तुत करना चाहूँगी जो अत्यन्त प्रिय लगते हैं।-
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैवकुटम्बकम्॥
भावार्थ : “ये मेरा है”, “वह उसका है” जैसे विचार केवल संकुचित मस्तिष्क वाले लोग ही सोचते हैं। विस्तृत मस्तिष्क वाले लोगों के विचार से तो वसुधा एक कुटुम्ब है।
क्षणशः कणशश्चैव विद्यां अर्थं च साधयेत्।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम्॥
भावार्थ : प्रत्येक क्षण का उपयोग सीखने के लिए और प्रत्येक छोटे से छोटे सिक्के का उपयोग उसे बचाकर रखने के लिए करना चाहिए, क्षण को नष्ट करके विद्याप्राप्ति नहीं की जा सकती और सिक्कों को नष्ट करके धन नहीं प्राप्त किया जा सकता।
अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्।
चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम्॥
भावार्थ : तेज चाल घोड़े का आभूषण है, मत्त चाल हाथी का आभूषण है, चातुर्य नारी का आभूषण है और उद्योग में लगे रहना नर का आभूषण है।
कुलस्यार्थे त्यजेदेकम् ग्राम्स्यार्थे कुलंज्येत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥
भावार्थ : कुटुम्ब के लिए स्वयं के स्वार्थ का त्याग करना चाहिए, गाँव के लिए कुटुम्ब का त्याग करना चाहिए, देश के लिए गाँव का त्याग करना चाहिए और आत्मा के लिए समस्त वस्तुओं का त्याग करना चाहिये।
सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्।
यद्भूतहितमत्यन्तं एतत् सत्यं मतं मम्॥
भावार्थ : यद्यपि सत्य वचन बोलना श्रेयस्कर है तथापि उस सत्य को ही बोलना चाहिए जिससे सर्वजन का कल्याण हो। मेरे (अर्थात् श्लोककर्ता नारद के) विचार से तो जो बात सभी का कल्याण करती है वही सत्य है।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात ब्रूयान्नब्रूयात् सत्यंप्रियम्।
प्रियं च नानृतम् ब्रुयादेषः धर्मः सनातनः॥
भावार्थ : सत्य कहो किन्तु सभी को प्रिय लगने वाला सत्य ही कहो, उस सत्य को मत कहो जो सर्वजन के लिए हानिप्रद है, (इसी प्रकार से) उस झूठ को भी मत कहो जो सर्वजन को प्रिय हो, यही सनातन धर्म है।
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥
(वाल्मीकि रामायण)
भावार्थ : हे लक्ष्मण! सोने की लंका भी मुझे नहीं रुचती। मुझे तो माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्रिय है।
बच्चों के लिए 17 संस्कृत के श्लोक व उनके अर्थ | Sanskrit Slokas With Meaning In Hindi
1. काम क्रोध अरु स्वाद, लोभ शृंगारहिं कौतुकहिं।
अति सेवन निद्राहि, विद्यार्थी आठौ तजै।।
भावार्थ: इस श्लोक के माध्यम से विद्यार्थियों को 8 चीजों से बचने के लिए कहा गया है। काम, क्रोध, स्वाद, लोभ, शृंगार, मनोरंजन, अधिक भोजन और नींद सभी को त्यागना जरूरी है।
2. विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम्।।
भावार्थ: विद्या से विनय अर्थात विवेक व नम्रता मिलती है, विनय से मनुष्य को पात्रता मिलती है यानी पद की योग्यता मिलती है। वहीं, पात्रता व्यक्ति को धन देती है। धन फिर धर्म की ओर व्यक्ति को बढ़ाता और धर्म से सुख मिलता है। इस मतलब यह हुआ कि जीवन में कुछ भी हासिल करने के लिए विद्या ही मूल आधार है।
3. गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात्परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
भावार्थ: गुरु ही ब्रह्मा हैं, जो सृष्टि निर्माता की तरह परिवर्तन के चक्र को चलाते हैं। गुरु ही विष्णु अर्थात रक्षक हैं। गुरु ही शिव यानी विध्वंसक हैं, जो कष्टों से दूर कर मार्गदर्शन करते हैं। गुरु ही धरती पर साक्षात परम ब्रह्मा के रूप में अवतरित हैं। इसलिए, गुरु को सादर प्रणाम।
4. अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनं:।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलं।।
भावार्थ: बड़े-बुजुर्गों का अभिवादन अर्थात नमस्कार करने वाले और बुजुर्गों की सेवा करने वालों की 4 चीजें हमेशा बढ़ती हैं। ये 4 चीजें हैं: आयु, विद्या, यश और बल। इसी वजह से हमेशा वृद्ध और स्वयं से बड़े लोगों की सेवा व सम्मान करना चाहिए।
5. उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।
भावार्थ: महज इच्छा रखने भर से कोई कार्य पूरा नहीं होता, बल्कि उसके लिए उद्यम अर्थात मेहनत करना जरूरी होता है। ठीक उसी तरह जैसे शेर के मुंह में सोते हुए हिरण खुद-ब-खुद नहीं आ जाता, बल्कि उसे शिकार करने के लिए परिश्रम करना होता है।
6. यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रियाः।
चित्ते वाचि क्रियायांच साधुनामेक्रूपता।।
भावार्थ: साधु यानी अच्छे व्यक्ति के मन में जो होता है, वो वही बात करता है। वचन में जो होता है यानी जैसा बोलता है, वैसा ही करता है। इनके मन, वचन और कर्म में हमेशा ही एकरूपता व समानता होती है। इसी को अच्छे व्यक्ति की पहचान माना जाता है।
7. न चोरहार्य न राजहार्य न भ्रतृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।।
भावार्थ:एक ऐसा धन जिसे न चोर चुराकर ले जा सकता है, न ही राजा छीन सकता है, जिसका न भाइयों में बंटवार हो सकता है, जिसे न संभालना मुश्किल व भारी होता है और जो अधिक खर्च करने पर बढ़ता है, वो विद्या है। यह सभी धनों में से सर्वश्रेष्ठ धन है।
8. षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता।।
भावार्थ: 6 अवगुण मनुष्य के लिए पतन की वजह बनते हैं। ये अवगुण हैं, नींद, तन्द्रा (थकान), भय, गुस्सा, आलस्य और कार्य को टालने की आदत।
9. काक चेष्टा, बको ध्यानं, स्वान निद्रा तथैव च।
अल्पहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणं।।
भावार्थ: एक विद्यार्थी के पांच लक्षण होते हैं। कौवे की तरह हमेशा कुछ नया जानने की प्रबल इच्छा। बगुले की तरह ध्यान व एक्राग्रता। कुत्ते की जैसी नींद, जो एक आहट में भी खुल जाए। अल्पाहारी मतलब आवश्यकतानुसार खाने वाला और गृह-त्यागी।
10. अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।
भावार्थ: सभी 18 पुराणों में महर्षि वेदव्यास जी ने दो विशेष बातें कही हैं। पहली बात तो यह है कि परोपकार करना पुण्य है और दूसरी बात में उन्होंने पाप का वर्णन किया है, जो लोगों को दुख देने से संबंधित है।
11. देवो रुष्टे गुरुस्त्राता गुरो रुष्टे न कश्चन:।
गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता न संशयः।।
भावार्थ: प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक, देवताओं के रूठ जाने पर गुरु रक्षा करते हैं, किंतु गुरु रूठ जाए, तो उस व्यक्ति के पास कोई नहीं होता। गुरु ही रक्षा करते हैं, गुरु ही रक्षा करते हैं, गुरु ही रक्षा करते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। इसका मतलब यह है कि अगर पूरा विश्व व भाग्य भी किसी से विमुख हो जाए, तो गुरु की कृपा से सब ठीक हो सकता है। गुरु सभी मुश्किलों को दूर कर सकते हैं, लेकिन अगर गुरु ही नाराज हो जाए, तो कोई अन्य व्यक्ति मदद नहीं कर सकता।
12. रूप यौवन सम्पन्नाः विशाल कुल सम्भवाः।
विद्याहीनाः न शोभन्ते निर्गन्धाः इव किंशुकाः।।
भावार्थ: अच्छा रूप, युवावस्था और उच्च कुल में जन्म लेने मात्र से कुछ नहीं होता। अगर व्यक्ति विद्याहीन हो, तो वह पलाश के फूल के समान हो जाता है, जो दिखता तो सुंदर है, लेकिन उसमें कोई खुशबू नहीं होती। अर्थात मनुष्य की असली खुशबू व पहचान विद्या व ज्ञान ही है।
13. अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
भावार्थ: छोटे चित यानी छोटे मन वाले लोग हमेशा यही गिनते रहते हैं कि यह मेरा है, वह उसका है, लेकिन उदारचित अर्थात बड़े मन वाले लोग संपूर्ण धरती को अपने परिवार के समान मानते हैं।
14. मूर्खस्य पञ्च चिह्नानि गर्वो दुर्वचनं मुखे।
हठी चैव विषादी च परोक्तं नैव मन्यते।।
भावार्थ: इस श्लोक में कहा गया है कि मूर्खों की पांच पहचान होती हैं। सबसे पहला अहंकारी होना, दूसरा हमेशा कड़वी बात करना, तीसरी पहचान जिद्दी होना, चौथा हर समय बुरी-सी शक्ल बनाए रखना और पांचवां दूसरों का कहना न मानना। श्लोक इन सभी पांच चीजों से बचने की प्रेरणा देता है।
15. अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम।
पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।
भावार्थ: अपमान व अनादर के भाव से दान देना, देर से दान देना, मुंह फेरकर दान देना, कठोर व कटु वचन बोलकर दान देना और दान देने के बाद पछतावा करना। ये सभी पांच बातें दान को पूरी तरह दूषित कर देती हैं।
16. सुलभा: पुरुषा: राजन् सततं प्रियवादिन:।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ:।।
भावार्थ: हमेशा प्रिय और मन को अच्छा लगने वाले बोल बोलने वाले लोग आसानी से मिल जाते हैं, लेकिन जो आपके हित के बारे में बोले और अप्रिय वचन बोल व सुन सके, ऐसे लोग मिलना दुर्लभ है।
17. दुर्जन: परिहर्तव्यो विद्यालंकृतो सन।
मणिना भूषितो सर्प: किमसौ न भयंकर:।।
भावार्थ:-प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक दुर्जन अर्थात दुष्ट लोग भी अगर बुद्धिमान हों और विद्या प्राप्त कर लें, तो भी उनका परित्याग कर देना चाहिए। जैसे मणि युक्त सांप भी भयंकर होता है। इसका मतलब यह हुआ कि दुष्ट लोग कितने भी बुद्धिमान क्योंं न हों, उनकी संगत नहीं करनी चाहिए।
ये थे संस्कृत के ज्ञानवर्धक 17 श्लोक। यदि आप प्रतिदिन इनमें से एक श्लोक अपने बच्चे को सुनाएं और उसका अर्थ समझाएं, तो वे भविष्य में अच्छे इंसान बन सकते हैं। वे स्वयं ही सही और गलत के बीच का अंतर समझने लगेंगे। ऐसे बच्चे ही आगे चलकर आदर्श समाज का निर्माण करते हैं। इसलिए, आज से ही अपने बच्चों को समय-समय पर इन संस्कृत श्लोकों का अभ्यास कराते रहें और उन्हें सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करें।
यह न केवल उनके चरित्र निर्माण में सहायक होगा, बल्कि उन्हें नैतिक और आध्यात्मिक रूप से भी सशक्त बनाएगा। प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक इन श्लोकों का ज्ञान उन्हें जीवन की कठिनाइयों का सामना करने की शक्ति देगा और उन्हें सच्चाई, ईमानदारी और सदाचार के मार्ग पर अग्रसर करेगा।