जीवन मृत्यु और पुनर्जन्म भागवत गीता की दृष्टि से | कृष्ण का ज्ञान | Krishna ka motivated Gyan in hindi

जीवन मृत्यु और पुनर्जन्म भागवत गीता की दृष्टि से-श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान दे रहे हैं। अर्जुन पूछते हैं, “हे त्रिलोकीनाथ! आप पुनर्जन्म के बारे में बात कर रहे हैं, लेकिन इस विषय में मेरा ज्ञान अधूरा है। कृपया इसे विस्तार से समझाएं।”

जीवन मृत्यु और पुनर्जन्म भागवत गीता की दृष्टि से

श्रीकृष्ण बताते हैं-इस सृष्टि के सभी प्राणियों को मृत्यु के पश्चात् उनके कर्मों के अनुसार परलोक में कुछ समय बिताना पड़ता है, जहाँ वे अपने पिछले जन्मों में किए गए पुण्य और पाप कर्मों का फल भोगते हैं। जब उनके पुण्य और पापों का हिसाब पूरा हो जाता है, तब वे फिर से इस मृत्युलोक में जन्म लेते हैं। इस मृत्युलोक को कर्मलोक भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ प्राणी अपने कर्मों द्वारा अपनी प्रारब्ध बनाता है।

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जीवन मृत्यु और पुनर्जन्म भागवत गीता की दृष्टि से
जीवन मृत्यु और पुनर्जन्म भागवत गीता की दृष्टि से

 

अर्जुन पूछते हैं- “हे केशव! हमारी धरती को मृत्युलोक क्यों कहा जाता है?”

श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं- “हे अर्जुन, केवल इसी धरती पर प्राणी जन्म और मृत्यु की पीड़ा सहते हैं।”

अर्जुन फिर पूछते हैं- “तो क्या अन्य लोकों में प्राणियों का जन्म और मृत्यु नहीं होती?”

श्रीकृष्ण बताते हैं- “नहीं अर्जुन! उन लोकों में न प्राणी का जन्म होता है और न मृत्यु। मैंने पहले ही बताया था कि मृत्यु केवल शरीर की होती है, आत्मा की नहीं। आत्मा तो न जन्म लेती है और न मरती है।”

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अर्जुन फिर से प्रश्न करते हैं- “आपने कहा था कि आत्मा को सुख-दुःख भी नहीं होता। परंतु अब आप कह रहे हैं कि मृत्यु के पश्चात आत्मा स्वर्ग में सुख या नरक में दुःख भोगती है। क्या आत्मा को केवल पृथ्वी पर ही सुख-दुःख नहीं होता, परंतु स्वर्ग या नरक में उसे भोगना पड़ता है?”

श्रीकृष्ण बताते हैं-“नहीं अर्जुन! आत्मा को कहीं भी, किसी भी स्थान पर या किसी काल में सुख-दुःख छू नहीं सकते। आत्मा तो मेरे अविनाशी प्रकाश का हिस्सा है। मैं माया के अधीन नहीं हूँ, बल्कि माया मेरे अधीन है। सुख-दुःख तो माया की रचना हैं और माया मुझे नहीं छू सकती। इसलिए सुख-दुःख केवल शरीर के भोग हैं, आत्मा के नहीं।”

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जीवन मृत्यु और पुनर्जन्म भागवत गीता की दृष्टि से

 

अर्जुन कहते हैं-“हे केशव! ऐसा प्रतीत होता है कि आप मुझे शब्दों के मायाजाल में उलझा रहे हैं। यदि सुख-दुःख केवल शरीर के भोग हैं और आत्मा इनसे मुक्त है, तो मृत्यु के बाद स्वर्ग या नरक में सुख-दुःख को भोगने कौन जाता है?”

श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं-“हे पार्थ! जब किसी की मृत्यु होती है, तो अस्थूल शरीर ही मरता है। इस अस्थूल शरीर के अंदर जो सूक्ष्म शरीर है, वह नहीं मरता। वह सूक्ष्म शरीर आत्मा के प्रकाश को अपने साथ लेकर मृत्युलोक से अन्य लोकों में जाता है। इसी सूक्ष्म शरीर को जीवात्मा कहते हैं।”

अर्जुन पूछते हैं-“अर्थात, जब आत्मा एक शरीर को छोड़कर जाती है, तो वह सूक्ष्म शरीर को भी साथ ले जाती है?”

श्रीकृष्ण कहते हैं- “हाँ अर्जुन! जैसे समुद्र में जल की एक बूंद समुद्र का हिस्सा है और जब उसे किसी बर्तन में भर लिया जाए तो वह अलग दिखाई देती है, उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर रूपी जीवात्मा आत्मा के प्रकाश को अपने साथ ले जाती है।”

श्रीकृष्ण आगे कहते हैं-
“इस शरीर में सुन अर्जुन, एक सूक्ष्म शरीर समाया है,
ज्योति रूप वही सूक्ष्म शरीर, तो जीवात्मा कहलाया है।
मृत्यु समय जब यह जीवात्मा, तन को तज कर जाता है,
धन दौलत और सगे सम्बन्धी, कोई संग नहीं आता है।
पाप पुण्य संस्कार वृत्तियाँ, उसे संग ले जाते हैं,
जैसे फूल से खुशबू, पवन उड़ा ले जाती है।
संग चले कर्मों का लेखा, जैसे कर्म कमाये हैं,
अगले जन्म में पिछले जन्म का, आप हिसाब चुकाये हैं।”

श्रीकृष्ण बताते हैं- “हे अर्जुन! जब जीवात्मा एक शरीर को छोड़कर जाती है, तो उसके साथ उसके पिछले शरीर की वृत्तियाँ, संस्कार और कर्मों का लेखा भी साथ जाता है।”

अर्जुन पूछते हैं- “मधुसूदन! मनुष्य शरीर त्यागने के बाद जीवात्मा कहाँ जाता है?”

श्रीकृष्ण कहते हैं-“मनुष्य शरीर त्यागने के बाद जीवात्मा को उसके प्रारब्ध अनुसार अपने पाप और पुण्यों का भोग करना पड़ता है। इसके लिए भोग योनियाँ होती हैं – उच्च योनियाँ और नीच योनियाँ। पुण्यात्मा स्वर्ग में उच्च योनियों में भोग करता है और पापात्मा नरक में नीच योनियों में। कभी-कभी प्राणी अपने सुख-दुःख पृथ्वीलोक पर ही भोग लेता है।”

अर्जुन पूछते हैं, “कैसे?”

श्रीकृष्ण बताते हैं- “जैसे एक सम्पन्न व्यक्ति महल में रहता है, सेवक-सेविकाएं उसकी सेवा में रहती हैं, उसका इकलौता पुत्र है जिसे वह सबसे अधिक प्रेम करता है। लेकिन एक दिन उसके पुत्र की दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है और वह व्यक्ति जीवनभर उस दुःख से मुक्त नहीं हो पाता। इस प्रकार, पुत्र के जीवनकाल में उसने जो सुख भोगे थे, वे स्वर्ग के समान थे और पुत्र की मृत्यु के बाद जो दुःख भोगे, वे नरक के समान थे। इस प्रकार, मनुष्य अपने पिछले जन्मों के कर्मों का फल इसी लोक में भी भोगता है।”

अर्जुन पूछते हैं-“हे मधुसूदन! मनुष्य अपने पुण्यों को किन-किन योनियों में और कहाँ भोगता है?”

श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं, “पुण्यात्मा किन्नर, गन्धर्व या देवताओं की योनियाँ धारण करके स्वर्ग लोक में रहता है, जब तक उसके पुण्य क्षीण नहीं हो जाते।”

अर्जुन पूछते हैं- “अर्थात?”

श्रीकृष्ण कहते हैं-“अर्थात जब तक प्राणी के पुण्य कर्मों का भोग समाप्त नहीं हो जाता, वह स्वर्ग में रहता है। जब पुण्यों का फल समाप्त हो जाता है, तब वह फिर पृथ्वीलोक में वापस आता है और पुनः जन्म लेता है।”

श्रीकृष्ण उद्धृत करते हैं,
“प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।”

अर्जुन पूछते हैं- “परंतु स्वर्ग लोक में मनुष्य के पुण्य क्यों समाप्त हो जाते हैं? वहाँ देव योनि में रहते हुए वह अच्छे कर्म करता होगा, उन कर्मों का फल नहीं मिलता?”

श्रीकृष्ण बताते हैं-“नहीं अर्जुन! उच्च योनि में देवता बनकर प्राणी जो अच्छे कर्म करता है या नीच योनि में जो क्रूर कर्म करता है, उन कर्मों का उसे कोई फल नहीं मिलता।”

अर्जुन पूछते हैं- “क्यों?”

श्रीकृष्ण कहते हैं- “क्योंकि वे भोग योनियाँ हैं। वहाँ प्राणी केवल अपने कर्मों का फल भोगता है। इन योनियों में किए गए कर्मों का पुण्य या पाप नहीं लगता। केवल मनुष्य योनि में किए गए कर्मों का ही पाप या पुण्य लगता है, क्योंकि यह कर्म योनि है।”

अर्जुन पूछते हैं- “इसका अर्थ है यदि कोई पशु किसी की हत्या करे तो उसे पाप नहीं लगेगा, और यदि मनुष्य करे तो पाप लगेगा? यह अंतर क्यों?”

श्रीकृष्ण कहते हैं-“क्योंकि पृथ्वीलोक के सभी प्राणियों में केवल मनुष्य ही विवेकशील है, जो अच्छे-बुरे की पहचान कर सकता है। दूसरे प्राणी ऐसा नहीं कर सकते। यदि कोई सांप किसी को डस ले और वह मर जाए, तो सांप को उसकी हत्या का पाप नहीं लगेगा। इसी प्रकार, अन्य जानवरों की हत्या से भी पाप नहीं लगता। लेकिन मनुष्य के कर्मों का लेखा-जोखा बनता है, इसलिए उसे अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है। जब उसके पाप-पुण्य समाप्त हो जाते हैं, तो वह फिर से मनुष्य योनि में जन्म लेता है।”

श्रीकृष्ण उद्धृत करते हैं,
“ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्नाः
गतागतं कामकामा लभन्ते॥”

अर्जुन पूछते हैं- “अर्थात देवताओं की योनियों में जो प्राणी होते हैं, वे अपने सुख भोगकर स्वर्ग से भी लौट आते हैं?”

श्रीकृष्ण कहते हैं- “हाँ, और मनुष्य योनि प्राप्त करके पुनः कर्म करते हैं, और इस प्रकार जन्म-मरण के चक्र में फंसे रहते हैं।”

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