कर्म पर गीता के श्लोक
कर्म पर गीता के श्लोक | Gita slok on karma
यहाँ कर्म पर आधारित भगवद गीता के प्रमुख श्लोक दिए गए हैं, जो जीवन में कर्म करने के महत्व को दर्शाते हैं:
श्लोक 1:
भगवद गीता – अध्याय 2, श्लोक 47
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
अर्थ:
तुझे केवल कर्म करने का अधिकार है, उसके फल पर नहीं।
इसलिए कर्म करते समय फल की चिंता मत कर, और न ही कर्म के परिणाम की लालसा में उलझ।
साथ ही, यह सोचकर कि फल नहीं मिलेगा, तू कर्म करने से मुँह मत मोड़।
यह श्लोक हमें सिखाता है कि हम अपने कर्तव्य का पालन निस्वार्थ भाव से करें, क्योंकि फल तो ईश्वर के हाथ में है। जब हम निष्काम भाव से कर्म करते हैं, तभी हम मानसिक शांति और आत्मिक उन्नति प्राप्त करते हैं।

श्लोक 2:
भगवद गीता – अध्याय 3, श्लोक 8
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीर यात्रा अपि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥
अर्थ:
तू अपने नियत (कर्तव्य रूप) कर्म को अवश्य कर।
क्योंकि कर्म करना, कर्म न करने से श्रेष्ठ है।
यहाँ तक कि तेरी शरीर की यात्रा भी बिना कर्म के नहीं चल सकती।
➡️ भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में यह बता रहे हैं कि कर्म से भागना, जीवन से भागना है। हर जीव के जीवन में कुछ न कुछ कर्तव्य निश्चित हैं — उनका पालन करना ही धर्म है। आलस्य, निष्क्रियता और पलायन कभी समाधान नहीं होते।

श्लोक 3:
भगवद गीता – अध्याय 3, श्लोक 16
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य:।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥
अर्थ:
जो व्यक्ति सृष्टि के इस नियत कर्मचक्र में नहीं चलता,
और केवल इन्द्रियों के सुख में लिप्त रहता है —
वह पापमय जीवन जीता है और उसका जीवन व्यर्थ होता है।
➡️ यह श्लोक समझाता है कि हमें समाज, धर्म और प्रकृति द्वारा स्थापित नियमों का पालन करना चाहिए। बिना उद्देश्य केवल भोग-विलास में जीना, मानव जीवन का अपमान है।

श्लोक 4:
भगवद गीता – अध्याय 18, श्लोक 11
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥
अर्थ:
जब तक शरीर है, तब तक सभी कर्मों का त्याग संभव नहीं है।
लेकिन जो व्यक्ति फल की इच्छा का त्याग करता है, वही सच्चा त्यागी है।
➡️ यह श्लोक त्याग के सही स्वरूप को दर्शाता है। कर्म करना हमारी प्रकृति है, लेकिन फल की लालसा को त्याग देना ही सच्चा वैराग्य है।
श्लोक 5:
भगवद गीता – अध्याय 4, श्लोक 13
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥
अर्थ:
मैंने चार वर्णों की रचना की है — गुण और कर्म के आधार पर।
हालाँकि मैं उनका सर्जक हूँ, फिर भी तू मुझे अकर्ता (निष्क्रिय) और अविनाशी जान।
➡️ यह श्लोक बताता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का वर्गीकरण जन्म से नहीं, बल्कि स्वभाव (गुण) और कर्म से होता है। जो जैसा कर्म करे, वही उसका धर्म और स्थान है।
श्लोक 6:
भगवद गीता – अध्याय 3, श्लोक 19
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥
अर्थ:
इसलिए तू निरन्तर बिना आसक्ति के अपना कर्तव्य कर्म करता रह।
जो व्यक्ति ऐसे ही कर्म करता है, वह परम स्थिति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।
➡️ इस श्लोक में श्रीकृष्ण बता रहे हैं कि मनुष्य को कर्म करते समय उसके फल में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। केवल कार्य करना — बिना “मैं कर रहा हूँ” की भावना के — यही योग है।
राधे राधे!🙏🙏
आध्यात्मिक ज्ञानवर्धक कहानियां | Spiritual Knowledge in Hindi
राधे राधे एक सच्ची कहानी। एक बार अवश्य पढ़े
हमारे शरीर और मानसिक आरोग्य का आधार हमारी जीवन शक्ति है। वह प्राण शक्ति भी कहलाती है।