एक शिक्षक की अंतिम प्रेरणा -हमारे समय में एक प्रभाकर सर हुआ करते थे वह अपने विद्यार्थियों के बीच बहुत लोकप्रोय अध्यापक थे उनकी कक्षाएं हमेशा ज्ञान और प्रेरणा से भरी होती थीं। उन्होंने न केवल विषय को समझाने में महारत हासिल की थी, बल्कि विद्यार्थियों को जीवन के महत्वपूर्ण मूल्य भी सिखाए। अभी कुछ समय पहले ही वह सेवा हुए निवृत थे शहर के एक अस्पताल में इलाज के चलते उनका 3 दिन पूर्व ही देहावसान हो गया था। उनके परिवार के लोगो ने उनको श्रद्धांजलि देने हेतु आज प्रार्थना सभा आयोजित की थी।
प्रार्थना सभा में उनके परिवार के सदस्यों के अलावा, उनके सहकर्मी, विद्यार्थी और शहर के गणमान्य व्यक्ति भी उपस्थित थे। सभी ने उनके योगदान को याद किया और उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की।
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अभी सभा चल ही रही थी कि एक अनजान व्यक्ति ने प्रवेश किया और यह कहते हुए सबको चौंका दिया कि अस्पताल में प्रभाकर सर के बेड पर तकिये के नीचे यह लिफाफा मिला है, जिस पर लिखा है कि इसे मेरी प्रार्थना सभा में ही खोला जाए। दिनकर सर की इच्छा के अनुरूप एक व्यक्ति ने लिफाफा खोला। लिफाफे से एक पत्र प्राप्त हुआ। माइक से उस पत्र का वाचन शुरू किया गया। एक शिक्षक की अंतिम प्रेरणा:
“प्रिय बंधुओ,
जब यह पत्र पढ़ा जा रहा होगा, तब तक मैं संसार से विदा ले चुका होंगा। यह पत्र मैंने अपने जीवन के कुछ अनमोल अनुभव और शिक्षाओं को आप सभी के साथ साझा करने के उद्देश्य से लिखा है। अगर वह इससे कुछ प्रेरणा ले सके, तो मैं अपने जीवन को धन्य समझुंगा।
बात 1978 की है। एक शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए मुझे 22 वर्ष हो चुके थे। इसी दौरान एक बार मैं अपनी धार्मिक यात्रा पर वृंदावन गया हुआ था। वहां एक संत रामसुखदास के सत्संग में जाना हुआ। संत रामसुखदास जी के सत्संग में मैंने उनसे जीवन का वास्तविक अर्थ समझने की कोशिश की। प्रवचन समाप्त होने पर मैंने अपनी जिज्ञासा उनके सामने रखी –
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“स्वामीजी! मुझे ईश्वर में बहुत आस्था है, परंतु मैं नियमित पूजा पाठ, कर्मकांड आदि नहीं कर पाता हूं और इसमें मुझे रुचि भी नहीं है। कृपया बताएं, मैं ईश्वर की कृपा कैसे प्राप्त करूं?”
स्वामी जी थोड़ी देर चुप रहे। कुछ देर सोच कर उन्होंने कहा –
“देखिए! भक्ति का अर्थ होता है सेवा। अगर हम इस दुनिया को ईश्वर का ही स्वरूप माने और सभी के प्रति सद्भावना रखते हुए सेवा भाव से अच्छे कर्म करें, तो यह भी ईश्वर की ही भक्ति हुई।”
कुछ देर मौन रहकर स्वामी जी ने फिर प्रश्न किया –
“अच्छा यह बताइए कि तुम क्या करते हो?”
“जी, मैं एक शिक्षक हूं।”
“तुम्हे अपना यह कार्य कैसा लगता है?”
“बहुत अच्छा लगता है। बच्चों के बीच रहना और उन्हें पढ़ाना, इसमें मुझे आनंद प्राप्त होता है।”
“तो अपने इसी कर्म को ईश्वर की भक्ति बना लो। देखा जाए तो शिक्षक का विद्यार्थी के प्रति, व्यापारी का ग्राहक के प्रति, डॉक्टर का मरीज के प्रति, नेता का जनता के प्रति यदि सेवा का भाव मन में जाग्रत हो जाए, तो यह यथार्थ भक्ति हुई।”
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दो-तीन दिन बाद हम अपने गांव लौट आए और एक बार फिर मैं अपने स्कूल में था। स्वामी जी की बातों से अब बच्चों को पढ़ाने में मुझे और भी आनंद आने लगा। हालांकि जल्द ही मुझे एहसास हो गया कि ईश्वर के प्रतीक चिन्ह, मूर्तियों की पूजा करना तो फिर भी आसान है। कभी भी स्नान करा दो, कुछ भी भोग लगा दो। स्तुति करो तो ठीक, ना करो तो ठीक। उसकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं, कोई नखरे नहीं। पर ये बच्चे… उफ्फ… इनकी चंचलता, शरारतें, जिज्ञासाओं से भरा मन। कितनी कठिन है इनकी भक्ति।
स्कूल में सभी प्रकार के बच्चे होते हैं, कुछ बहुत होशियार, कुछ मंदबुद्धि, कुछ आज्ञाकारी तो कुछ उद्दंड। ऐसा लगता था जैसे ईश्वर इन बच्चों के माध्यम से मेरे धैर्य, सहनशीलता की परीक्षा ले रहा हो। पर इन सब बच्चों में मेरी ही कक्षा आठवीं का एक लड़का विजय ऐसा था, जो बहुत ज्यादा समस्या मूलक था। उसका व्यवहार एक अत्यंत आवारा, बिगड़ैल बच्चे की तरह था।
पढ़ाते समय बीच-बीच में बोलना, शिक्षकों पर फब्तियां कसना, बच्चों के साइकिल की हवा निकाल देना या उनका सामान गायब कर देना। यह उसके लिए रोज की बात थी। और इन सब में वह अकेला नहीं था। उसकी पूरी टोली थी। उसकी इन हरकतों से कभी-कभी इतना गुस्सा बढ़ जाता कि मैं उसकी जोरदार पिटाई कर देता। यह सब मेरे बस के बाहर की चीज थी।
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समय इसी तरह निकल रहा था कि एक दिन सूचना मिली कि विजय का भयंकर एक्सीडेंट हो गया है और उसके दोनों पैर फ्रैक्चर हो गए हैं। सुनकर दुख तो हुआ, परंतु हम सब के लिए यह राहत की बात थी कि वह महीने-दो महीने स्कूल नहीं आएगा।
इस घटना को अभी सप्ताह भर ही हुआ था कि मुझे महसूस हुआ कि शायद मेरे विचार और भाव गलत दिशा में जा रहे हैं। हकीकत तो यह थी कि मेरी भक्ति एक कठिन परीक्षा के दौर से गुजर रही थी। विजय जैसे अपराधी प्रवृत्ति के बच्चों में प्रेम और संवेदनाओं का अभाव होता है। लेकिन संवेदनाओं को तो संवेदनाएं देकर ही जागृत किया जा सकता था। अतः मैंने स्कूल समाप्त होने के बाद विजय को उसके ही घर पर जाकर पढ़ाने का निर्णय लिया।
मुझे अपने घर देखकर विजय चौक गया। मैंने उसे लेटे रहने का इशारा किया और एक्सीडेंट के बारे में सामान्य जानकारी प्राप्त की। परीक्षा नजदीक होने से उसके लिए समय बहुत महत्वपूर्ण था। अतः उसे पढ़ाने का सिलसिला शुरू हुआ। विजय को मुझसे संवेदना पूर्ण व्यवहार की उम्मीद नहीं थी, इसलिए उसे कहीं ना कहीं अपराध बोध हो रहा था। धीरे-धीरे उसे पढ़ने में मजा आने लगा। मैंने महसूस किया कि वह पढ़ाई में बहुत अच्छा था।
उसकी याददाश्त भी बहुत तेज थी। मैं उसे गणित, विज्ञान, और अंग्रेजी पढ़ाता और बाकी विषयों के नोट्स अपने साथी शिक्षकों से लेकर उसे देता। आठवीं ‘बोर्ड’ की परीक्षा थी और परीक्षा के ठीक पहले वह स्वस्थ हो गया था। उसने परीक्षा अच्छे से दी और वह 73% अंकों से पास हो गया। ग्रीष्म अवकाश के तुरंत बाद मेरा ट्रांसफर अन्य जगह हो गया।
समय धीरे-धीरे निकलता गया। मेरी ईश्वर भक्ति जारी रही। कई विद्यार्थी मेरे जीवन में आए। उनकी उच्च प्रतिभा में मैंने ईश्वर के दिव्य दर्शन किए…. और एक दिन मेरे सेवा निवृत्ति होते ही इस आनंदमय यात्रा पर विराम लगा।
सेवानिवृत्ति के लगभग 10 वर्ष बाद और इस पत्र को लिखने के 8 दिन पहले अचानक मेरा ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ गया और मैं बेहोश हो गया। जब होश आया तो मैंने स्वयं को शहर के बड़े अस्पताल के आईसीयू वार्ड में एक बिस्तर पर पाया।
“मुझे क्या हुआ है?” एक नर्स से मैंने पूछा।
“कुछ ही देर में डॉक्टर राउंड पर आने वाले हैं, वह ही बता पाएंगे,” कहते हुए नर्स चली गई। करीब 15 मिनट बाद डॉक्टर एक नर्स के साथ मेरे बेड पर आए। डॉक्टर ने मेरी फाइल ली, कुछ पढ़ा और मुझे गौर से देखकर आश्चर्यचकित होकर कहा-
“सर …आप यहां..?”
“हां! पर क्या आप मुझे पहचानते हैं?” मैंने डॉक्टर से पूछा।
“हां! पर शायद आपने मुझे नहीं पहचाना।”
“बिल्कुल सही है मैंने आपको नहीं पहचाना।”
“मैं विजय….. वही विजय जिसे आपने आठवीं कक्षा में पढ़ाया था,” डॉक्टर ने चरण स्पर्श करते हुए कहा।
“अरे हां। तुम तो विजय हो! परंतु इस अस्पताल में क्या कर रहे हो?”
“सर, मैं यहां पर हार्ट सर्जन हूं और मेरी किस्मत बदलने वाले कोई और नहीं बल्कि आप हैं। कुसंगति में पड़कर मेरा भविष्य तो अंधकारमय हो चला था, परंतु आपके प्रेम और संवेदनाओं ने मेरा जीवन ही बदल दिया। मुझे आपसे ही आत्मविश्वास मिला। मेरी पढ़ने में रुचि बढ़ गई और मैं यहां तक आ पहुंचा।”
“अरे वाह….तुमने तो मुझे खुश कर दिया।”
विजय मेरी फाइल देख रहा था और अचानक उसका चेहरा गंभीर हो गया।
“मुझे क्या हुआ है, विजय?”
“कुछ नहीं सर, आप जल्दी ही ठीक हो जाएंगे,” कहते हुए वह चला गया।
मैं लेटे-लेटे उन दिनों की स्मृतियों में खोया हुआ था कि मुझे नींद में समझकर दो नर्स आपस में बातें करने लगीं –
“पहली बार विजय सर को रोते हुए देखा है, आखिर ऐसी भी क्या बात है?”
“ये अंकल, विजय सर के टीचर हैं। इन्हें सीवीयर हार्ट अटैक हुआ है। कल शाम 6 बजे तक कवर कर लिया तो ठीक, वरना बचना मुश्किल है।”
अपनी स्थिति का यथार्थ मालूम होने पर भी मैं चिंतित नहीं था।
रात में मैंने महसूस किया कि कोई मेरे पैर पकड़े सुबक रहा था। देखा तो यह विजय था।
मैंने उसे अपने पास बुलाया।
“तू अपना कर्तव्य कर, डॉक्टर के रूप में अपना फर्ज निभा। पर सच तो यह है आज तुझसे मिलने के बाद तुझे इतने बड़े हॉस्पिटल का डॉक्टर बना देखकर मुझे मेरा रिपोर्ट कार्ड मिल गया। अगर भक्ति की परिणीति परम शांति के रूप में होती है तो अब मैं पूर्णतया संतुष्ट हूं। एक शिक्षक के रूप में मेरी भक्ति को ईश्वर ने स्वीकार कर लिया। अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। एक तृप्तिदायक और आनंददायक मृत्यु मेरा इंतजार कर रही है। मैं चला भी गया तो मेरे जाने का शोक मत करना…. एक डॉक्टर के रूप में दुखियों की सेवा करना।”
मेरे प्रिय विद्यार्थियों, आपसे मेरी यही विनती है कि अपने जीवन में सच्ची भक्ति और सेवा के मार्ग पर चलें। आपका हर छोटा सा कार्य भी इस दुनिया को बेहतर बनाने में योगदान दे सकता है। याद रखें, सच्ची सफलता सिर्फ प्राप्तियों में नहीं बल्कि सेवा और समर्पण में है।
मुझे कब नींद लग गई, पता नहीं। सुबह होकर खिड़की से मैंने अंतिम बार सूर्य के दर्शन किए। शायद सूर्यास्त न देख पाऊं।
अब अलविदा कहने का समय आ गया है। मेरे जाने का शोक मत करना, बल्कि मेरे आदर्शों को अपने जीवन में उतारकर मेरा सम्मान करना। ईश्वर आप सभी को सदा खुशहाल और समृद्ध बनाए रखे।
अब मेरे जीवन का अंतिम अध्याय लिखा जा चुका है, और मैं पूर्ण संतोष के साथ इस संसार को अलविदा कह रहा हूं।
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श्री वासु देव और अर्जुन के बीच एक बहुत ही सुंदर संवाद………..चिंताओं पर विजय
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