आत्मविकास के चार चरण | आत्मविकास के 4 स्वरूप | Self development in hindi

आत्मविकास के चार चरण- आत्म विकास एक आध्यात्मिक प्रयोग है। जो आपको करना ही चाहिए। इसके दो महत्वपूर्ण स्वरूप है। इनमें से एक का नाम है चिंतन और दूसरे का नाम है मनन। चिंतन और मनन के लिए किसी कर्मकांड की जरूरत नहीं है। विधि-विधान की जरूरत नहीं है और किसी समय निर्धारण की भी जरूरत नहीं है। अच्छा तो यह हो कि इन सब कामों के लिए आप सवेरे का ही समय रखें। अध्यात्म साधना के लिए सबसे अच्छा समय प्रातः काल का ही है।

दूसरे कामों के लिए भी प्रातः काल का ही है। यानी की 24 घंटे में से जो सबसे अच्छा समय है, वह प्रातः काल का ही है। प्रातः काल के समय आप जो काम भी करेंगे, उस काम में आपको सफलता ही मिलेगी और प्रसन्नता भी मिलेगी।

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इसलिए चिंतन और मनन की एकांत साधना के लिए, अगर आप प्रातः काल का समय निकाल पाए, तो बहुत अच्छा होगा। कदाचित प्रातः काल का समय निकालना आपके लिए संभव न हो, तो आप ऐसा करें कि एक साथ मनोयोग पूर्वक काम करने हेतु आप समय  निकल ले। जब कभी आप यह देख पाए कि, एक आधा घंटा या 15 मिनट का समय ऐसा निकलता है। जिसमें आपका चित्त (हृदय) शांत है।

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भाग दौड़ में रास्ता चलते-चलते फिरते कहीं भी जप कर लेंगे, ऐसा मत कीजिए। चिंतन मनन के लिए ऐसा संभव नहीं है। इसके लिए ऐसा स्थान होना चाहिए, जहां बाहरी रूकावटे उत्पन्न ना हो। आपका मन शांत और एकाग्र हो। इसके लिए कोई एकांत स्थान मिल जाए तो बहुत अच्छा है। लेकिन अगर ना मिले तो, आप आंखें बंद करके भी ऐसी जगह बैठ सकते हैं, जहां कोई शोर ना हो। आंखें बंद कर लेंगे, तब भी गुफा निवास की स्थिति बन जाती है। गुफा में चले जाना और शांत एकांत में चले जाना एक ही बात है।

अगर ऐसा संभव न हो तो, आप आंखें बंद कर ले। आंखें बंद करना भी एक काम है। आंखें बंद करने से भी बहुत काम बन सकते हैं आंखें बंद कर लेने पर भीतर ही भीतर दिखता है। बाहर का कुछ भी नहीं दिखाई देता।

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आत्मविकास के चार चरण
आत्मविकास के चार चरण

अतः आप अपनी आंखें बंद करके अपने आप को एकांत में समाया हुआ देखें। चिंतन मनन के लिए आप कहीं थोड़ी देर के लिए शांत मन से बैठ जाएं। और यह समझे कि हम अकेले हैं, कोई हमारा साथी और सहकारी नहीं है।

साथी अपनी जगह पर, सहकारी अपने स्थान पर, कुटुंब अपने स्थान पर, पैसा अपने स्थान पर, व्यापार अपने स्थान पर, सबको अपने अपने स्थान पर रहने दीजिए। आप तो सिर्फ यहां अनुभव कीजिए कि आप अकेले हैं और एकांत में बैठे हुए हैं। फिर आप दो तरह के विचार करना शुरू कीजिए। यह विचार करने की शैली है। यह ध्यान की शैली नहीं है। चिंतन और मनन में विचार करने की गुंजाइश है। मन को भगाने की पूरी छूट है। ध्यान में तो एक केंद्र में ही रहना पड़ता है। पर चिंतन और मनन मे एक केंद्र में नहीं रहना पड़ता। इसके लिए विचारा करना पड़ता है।

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आत्मविकास के चार चरण

  • चिंतन अर्थात अपनी समीक्षा
  • आत्म सुधार की प्रक्रिया
  • अपने मन से स्वयं लडिए
  • मनन भी उतना ही जरूरी

चिंतन अर्थात अपनी समीक्षा

चिंतन उसे कहते हैं जिसमें भूतकाल के लिए विचार किया जाता है। कि हमारा भूतकाल किस तरीके से व्यतीत हुआ। इसके बारे में आप समीक्षा कीजिए। आप अपनी समीक्षा तो नहीं कर पाते। लेकिन दूसरों की समीक्षा करना अच्छी तरह जानते हैं। आप पड़ोसी की समीक्षा कर सकते हैं। आप सबकी कमियां निकाल सकते हैं। सारी दुनिया की गलती निकाल सकते हैं। यहां तक की भगवान की भी गलती निकाल सकते हैं। भाग्य की गलती बता सकते हैं। कोई भी ऐसा नहीं है, जिसकी आप गलती ना बताते हो। लेकिन अपनी गलती को आप विचार भी नहीं करते।

आत्मविकास के चार चरण

अगर आप अपनी गलतियों पर विचार करना शुरू करें, अपनी स्वयं की समीक्षा करें तो, ढेरो की ढेरो चीज ऐसी मालूम पड़ेगी, जो आपको नहीं करनी थी। ढेरो चीज ऐसी मालूम पड़ेगी कि जिन कामों को हमने किया है, जिन बातों को अपनाया है, उनको नहीं अपनाना चाहिए था। यह विचार कभी आता है आपको? नहीं कभी नहीं आता।

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मित्रों मन की बनावट की कुछ ऐसी है कि अपना जो कुछ है सो अच्छा। अपना स्वभाव भी अच्छा, अपनी आदतें भी अच्छी, अपना विचार भी अच्छा,सबकुछ अपना ही अच्छा, बाहर वालों का गलत। आमतौर से लोगों की यही मनोवृति होती है, और यह मनोवृति गलत है। आध्यात्मिक उन्नति में यह मनोवृति बहुत भयंकर है। उन्नति में इसके बराबर अड़चन डालने वाला, दूसरी और कोई अड़चन नहीं है। इसलिए पहले आप आत्म समीक्षा करना शुरू कीजिए। एकांत में चिंतन के लिए जब आप बैठे, तो आप यह विचार किया करें कि हमने पिछले दिनों क्या गलतियां करते आ रहे हैं।

हम कहीं रास्ता तो भटक नहीं गए। क्या हमें इसी काम के लिए जन्म मिला था? पेट के लिए जितना जरूरी है कहीं उससे ज्यादा तो नहीं कमा रहे? कुटुंब की जितनी जिम्मेदारियां पूरी करनी थी कहीं अनावश्यक चीजों की पूर्ति करने में ही तो नहीं, जीवन व्यतीत कर रहे हैं। अपनी गलतियों की समीक्षा करना शुरू कीजिए।

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इसी प्रकार अपने खान-पान के लिए, स्वास्थ्य के लिए, आहार बिहार के लिए, जैसा रखना था वैसा ही रख रहे हैं कि नहीं। चिंतन की शैली में जैसी शालीनता का समावेश होना चाहिए था क्या हमने वैसा ही रखा है या नहीं। ना अपने शरीर के प्रति, अपने कर्तव्य का पालन किया, ना अपने मस्तिष्क के प्रति, कर्तव्य का पालन किया, ना उनके कुटुंबियो के प्रति, अपने कर्तव्य का पालन किया। कर्तव्य की दृष्टि से हम बराबर पिछड़ते हुए चले गए।

आत्म सुधार की प्रक्रिया

विचार करने से क्या फायदा है? विचार करने से यह फायदा है कि गलतियां जब समझ में आ जाएगी तो सुधार की भी गुंजाइश रहेगी। गलतियां समझ में नहीं आएगी, तो आप सुधरेंगे ही क्यों?

क्योंकि जब तक बीमारी का पता नहीं चलता, हम इलाज नहीं करवा सकते। बस यही कहते रहेंगे कि हमारा तो शरीर ही ढीला हो गया है, हमे कोई बीमारी नहीं है। इसलिए अपने मन की समीक्षा करना, नाड़ी की परीक्षा करने की तरह है। कोई क्राइम करना ही, सिर्फ पाप नहीं है, जब हम अपने जीवन को सही क्रम में न जिए, वह भी पाप कहलाता है। चोरी, डकैती, हत्या अपराध यह सब तो बुरे कर्म है, ही मगर यह भी कम बुरा नहीं है कि आप आलस्य और प्रमाद में ही सारा समय नष्ट कर दे। आप अपने स्वभाव को गुस्सैल बनाकर रखें, ईर्ष्या किया करें।

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आत्म निरीक्षण द्वारा इन चीजों को सुधारने वाला अगला कदम आता है। आत्म निरीक्षण के बाद में आत्म परिष्कार का दूसरा नंबर आता है सुधार कैसे करें? सुधार में क्या बात करनी होती है? सुधार में रोकथाम करनी होती है, मतलब आप शराब पीते हैं, तो शराब पीना बंद कीजिए। आप बीड़ी पीते हैं सिगरेट पीते हैं, अपना कलेजा जलते हैं, तो अब विचार कीजिए कि अब हम कलेजा नहीं जलाएंगे।

पूर्व में जो हमसे गलतियां हुई, उन गलतियों को सुधारने का काम आत्म परीशोधन कहलाता है।

अपने मन से स्वयं लडिए

जो गलतियां हमने कर दी है, उन्हें हम कैसे सुधारे? जो जीवन हम अभी तक जीते आ रहे, क्या इस तरह से अपने जीवन को जिए, या फिर मजबूती के साथ उसमें सुधार करें। जब अपने साथ पक्षपात और रियायत करने का मन उठे, तब आप स्वयं अपने मन के विरोधी बन जाइए। मन को नियंत्रित करिए। मन को तोड़िए,मरोड़िए मन से लड़ाई कीजिए। मन भला आदमी है क्या, जो मान जाएगा। किसी का मन कहने से नहीं मानता। आप सबको यही शिकायत रहती है ना, कि हमारा मन नहीं लगता,तो फिर मन को लगाइए ना। मन में पहले से ही कुसंस्कार भरे हुए हैं। कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि मन अच्छे कामों में लगेगा।

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हमें अपने मन को सही रास्ते में लगाना पड़ेगा। जिस प्रकार बैल को हाल में चलना सीखना पड़ता है, घोड़े जिस प्रकार जबरन चलाना पड़ता है, जैसे सर्कस में जानवरों को अभ्यास करना पड़ता है, ठीक उसी तरीके से हमें अपने मन को सही राह में मोड़ना पड़ेगा। मन से बगावत करनी पड़ेगी। उसको सजा देने की भी जरूरत पड़ेगी,जिससे घूम फिर करके वह सही रास्ते पर आ जाए। अपने पिछले कर्मों को याद कर, उन्हें समय रहते सुधारना। इसी को चिंतन कहते हैं।

मनन भी उतना ही जरूरी

दो बातें हो गई पहला आत्मनिरीक्षण यानी की चिंतन करना। चिंतन की दो धाराएं हैं पहला गलतियों को याद करना और गलतियों को सुधारने के लिए हिम्मत जुटाना।

अब बात करते हैं मनन की। मनन के भी दो हिस्से हैं इनमें से एक का नाम है आत्मनिर्माण और दूसरे का नाम है आत्म विकास। आत्मनिर्माण क्या है ?आत्मनिर्माण उसे कहते हैं कि जो चीज आपके पास नहीं है, या जो उच्च स्तरीय गुण कर्म और स्वभाव आपके व्यक्तित्व में शामिल नहीं है, उनको शामिल करना, मसलन आप पढ़े-लिखे नहीं है, विद्या नहीं है आपके पास, तो आप कोशिश कीजिए कि आपको विद्या ग्रहण करनी हैं।

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आप बहुत ईमानदारी से रहते हैं। बीड़ी भी नहीं पीते। बहुत अच्छा जीवन व्यतीत कर रहे हैं, लेकिन जो विद्या की कमी है, आप उसे पूरा क्यों नहीं करते। अगर विद्या की कमी को आप पूरा नहीं करेंगे तो उन्नति कैसे होगी? आपके ज्ञान का दायरा कैसे बढ़ेगा? बुद्धि का विकास कैसे होगा? इसलिए यहां आत्म निर्माण के लिए ढेरो काम करने हैं।

आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। आप पहले बीड़ी पीते थे। अभी आपने बीड़ी पीना बंद कर दिया है। मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि आपका स्वास्थ्य ठीक हो गया।आपको इसके लिए ध्यान रखना पड़ेगा।

आत्मनिर्माण में बराबर यह देखना पड़ेगा कि हमारे जीवन में क्या कमी है और उस कमी को कैसे पूरा करें। इसके लिए अपने स्वभाव को अपनी आदतों को सुधारना। निर्माण का मतलब ही है अपने आप को बनाना। अपने स्वास्थ्य को ठीक रखना। अपने व्यक्तित्व को ठीक रखना। अपने चरित्र को निखारना। अपने स्वभाव को बनाना। अपनी कार्य शैली में सुधार करना। इन सबको बनाने के अतिरिक्त सबसे जरूरी बात यह है कि आपको अपने कुटुंब को भी बनाना है।

जो हमारा कुटुंब है, वह भी तो हमारे साथ जुड़ा हुआ है उसका भी निर्माण करना है। जीवन सुख और शांति मय बनाने के लिए अपने कुटुंब और परिवार के बारे में ठीक से नीति निर्धारण कीजिए। अपने कुटुंब और परिवार का निर्माण करना भी इसी श्रृंखला का हिस्सा है।

 

कहानी: सत्संग की महिमा-भवसागर से पार

जीवन में जब भगवान की हम पर विशेष कृपा होती है, तब हमारे कल्याण के लिए कोई न कोई सत्संगी व्यक्ति मिलता है। और भगवान की कृपा से उस सत्संगी पुरुष के कारण हमारा जीवन ही बदल जाता है।

श्री कृष्ण का नाम ही भवसागर की नैया है। एक भंवरा हर रोज फूलों के एक बाग के पास से गुजरता है। वहां एक गंदा नाला बहता है और उस नाले में एक कीड़ा रहता है।

एक दिन उस भंवरे की नजर कीड़े पर पड़ी और उसने सोचा, “यह कीड़ा कैसे इस नाले में रहता है?” भंवरे ने कीड़े से पूछा, “तुम इस गंदी जगह में कैसे रहते हो?” कीड़ा बोला, “यह मेरा घर है।”

भंवरे ने कीड़े से कहा, “चलो, मैं तुम्हें स्वर्ग की सैर करवाता हूं। तुम मेरे साथ चलो और मुझसे दोस्ती कर लो।”

भंवरे ने कहा, “मैं कल आऊंगा, तब तुम मेरे साथ चलना।” अगले दिन भंवरा कीड़े को अपने कंधे पर बिठाकर बाग में ले जाता है और कीड़े को एक फूल पर बिठाकर खुद फूलों का रस चूसने चला जाता है। वह शाम को कीड़े को ले जाना भूल जाता है।

जिस फूल में कीड़ा बैठा था, वह फूल शाम को बंद हो जाता है। कीड़ा भी उसी में बंद हो जाता है। अगले दिन माली फूल तोड़ता है और फूलों की माला बनाकर बिहारी जी के मंदिर भेज देता है। वही माला बिहारी जी के गले में पहना दी जाती है और पूरे दिन के बाद माला यमुना में प्रवाहित कर दी जाती है। और वह कीड़ा यह सब देख रहा होता है।

कीड़ा कहता है, “वाह रे भंवरे, तेरी दोस्ती ने मुझे भगवान का स्पर्श करवा दिया और अंतिम समय यमुना जी में प्रवाहित करवा दिया।”

मित्रों, यह भंवरा और कोई नहीं, जीवन में मिला कोई सत्संगी पुरुष है जो हमें इस भव बंधन के सागर से दूर बहुत दूर ले जाने में सहायता करता है। और यह सत्संगी मित्र भगवान की कृपा से ही मिलता है। कुछ लोग पहचान पाते हैं, कुछ नहीं। कुछ उनमें भी रिश्ता बनाकर उलझ जाते हैं। कुछ भगवान का भेजा दूत समझकर बातें मानकर भव से पार उतर जाते हैं।

हमारे शरीर और मानसिक आरोग्य का आधार हमारी जीवन शक्ति है। वह प्राण शक्ति भी कहलाती है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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