कृष्ण ज्ञान की बातें | Krishna’s Words of Wisdom– दोस्तों! संसार में जो भी कुछ हम पाते है,हम केवल पात्र होते है,देने वाला तो परमात्मा ही होता है,जबकि अहंकार वश हम सोचते है कि यह सब हमने अपने पुरुषार्थ और बुद्धि से पाया है।
जीव के प्रयासों से तो प्रभु कथा एवं प्रभु लीलाएं भी बुद्धि में नहीं बैठ पाती हैं। श्रीमद भगवद् गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि जो निरंतर मेरी कथा और नाम स्मरण में प्रीति पूर्वक लगे रहते हैं। उन्हीं भक्तों को मैं कृपा करके वह बुद्धि प्रदान करता हूँ जिस बुद्धि से मेरी लीला समझ आती है।

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कुछ लोग हैं जो नाम आश्रय किये बिना या कथा के बिना ईश्वर की खोज में लगे हैं। लेकिन वो मार्ग जिस पर चलने से गोविन्द मिलते हैं वो तो भगवान श्रीकृष्ण ही भक्त पर कृपा करके बताते हैं।
कथा और नाम जप से हृदय विकार मुक्त होता है। प्रभु कृपा करने को बाध्य हो जाते हैं। साधन से प्रभु नहीं मिलते अपितु भगवान् की कृपा से साधन मिलता है।
कृष्ण ज्ञान की बातें | Krishna’s Words of Wisdom
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संसार में अपनी बुद्धि , रूप , कुशलता , चातुर्यता, पद , धन किसी भी वस्तु पर अहम मत करना। ये सब हमारी बुद्धि के कारण नहीं भगवद अनुग्रह के कारण हमें प्राप्त हुआ है। बुद्धि तो मिटने वाला तत्व है पर कृपा तो अहर्निश बरसती रहती है। भगवान् की कथा और नाम को कभी भी मत छूटने देना।
प्रभु नाम ही इस मनुष्य जीवन की वास्तविक उपलब्धि भी है।नाम जप से बड़े से बड़े दुख दूर होते है।नाम जप से मनुष्य इस भव बंधन से जन्म जन्म के फेरो से मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
नाम जप से नाम का प्रभाव हमारे वातावरण को कभी दूषित नही होने देता।जब भी अवसर मिलें नाम जप में लगे रहे। जय जय श्री राधे कृष्णा जी।श्री हरि आपका कल्याण करें।
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क्या भगवान हमारे द्वारा चढ़ाया गया भोग ग्रहण करते हैं?यदि पाते हैं, तो वह वस्तु कम क्यों नहीं होती? और यदि नहीं पाते हैं, तो भोग लगाने का क्या लाभ?
एक लड़के ने पाठ के बीच में अपने गुरु से यह प्रश्न किया। गुरु ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया। वे पूर्ववत् पाठ पढ़ाते रहे। उस दिन उन्होंने पाठ के अन्त में एक श्लोक पढ़ाया:
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते,
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।
पाठ पूरा होने के बाद गुरु ने शिष्यों से कहा कि वे पुस्तक देखकर श्लोक कंठस्थ कर लें। एक घंटे बाद गुरु ने प्रश्न करने वाले शिष्य से पूछा कि उसे श्लोक कंठस्थ हुआ कि नहीं? उस शिष्य ने पूरा श्लोक शुद्ध-शुद्ध गुरु को सुना दिया। फिर भी गुरु ने सिर ‘नहीं’ में हिलाया, तो शिष्य ने कहा कि वे चाहें, तो पुस्तक देख लें, श्लोक बिल्कुल शुद्ध है।
गुरु ने पुस्तक देखते हुए कहा, “श्लोक तो पुस्तक में ही है, तो तुम्हारे दिमाग में कैसे चला गया?” शिष्य कुछ भी उत्तर नहीं दे पाया।
तब गुरु ने कहा, “पुस्तक में जो श्लोक है, वह स्थूल रूप में है। तुमने जब श्लोक पढ़ा, तो वह सूक्ष्म रूप में तुम्हारे दिमाग में प्रवेश कर गया। उसी सूक्ष्म रूप में वह तुम्हारे मस्तिष्क में रहता है, और जब तुमने इसको पढ़कर कंठस्थ कर लिया, तब भी पुस्तक के स्थूल रूप के श्लोक में कोई कमी नहीं आई।”
इसी प्रकार, पूरे विश्व में व्याप्त परमात्मा हमारे द्वारा चढ़ाए गए निवेदन को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करते हैं, और इससे वस्तु के स्थूल रूप में कोई कमी नहीं होती। उसी को हम प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं।
शिष्य को उसके प्रश्न का उत्तर मिल गया।
गुरु की इस व्याख्या से शिष्य को अपने प्रश्न का उत्तर स्पष्ट रूप से मिल गया। उसने समझा कि भोग चढ़ाने का अर्थ सिर्फ भगवान को भौतिक वस्तु देना नहीं है, बल्कि यह हमारी श्रद्धा और भक्ति का प्रतीक है। भगवान उस भोग को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करते हैं और हमें प्रसाद के रूप में आशीर्वाद देते हैं।
यह जानकर शिष्य ने गुरु का धन्यवाद किया और उसने भक्ति के महत्त्व को और भी गहराई से समझा। उसने महसूस किया कि पूजा-पाठ और भोग लगाने का असली उद्देश्य ईश्वर के प्रति अपनी श्रद्धा और समर्पण व्यक्त करना है, न कि भौतिक वस्तुओं का लेन-देन।
गुरु ने शिष्य को यह भी समझाया कि भोग और प्रसाद की प्रक्रिया केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है। यह हमारे जीवन के हर पहलू में लागू होती है। जब हम किसी को मदद करते हैं, प्रेम और सम्मान देते हैं, तब भी यह एक प्रकार का भोग होता है। हमारे द्वारा किया गया यह भोग परमात्मा द्वारा ग्रहण किया जाता है और हमें आंतरिक शांति और संतोष के रूप में उसका प्रसाद मिलता है।
इस प्रकार, शिष्य ने समझा कि हर क्रिया जो हम भक्ति और श्रद्धा से करते हैं, वह भगवान तक पहुँचती है और हमें उसके फल के रूप में आशीर्वाद मिलता है। भोग और प्रसाद केवल धार्मिक कृत्य नहीं हैं, बल्कि वे हमारे जीवन की हर सकारात्मक क्रिया का प्रतिनिधित्व करते हैं।
इस घटना के बाद, शिष्य ने हर दिन अपनी पूजा और भक्ति को और भी अधिक समर्पण और श्रद्धा के साथ करना शुरू किया। उसने सीखा कि भगवान के प्रति सच्ची भक्ति और समर्पण से ही हमें वास्तविक आनंद और मुक्ति प्राप्त होती है।
इस प्रकार, शिष्य का जीवन भगवान की भक्ति और सेवा के माध्यम से सार्थक हो गया और उसने अपने गुरु की शिक्षाओं को अपने जीवन का मार्गदर्शन बना लिया।

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